Friday, December 30, 2011

तेरे उतारे हुए दिन संभाल कर रखे है यादो में
बहुत कुछ भूला पर यह  फिर भी याद रहे
आज भी जब खुलते है  तो सिलवटे तक नहीं दिखती
लगता जैसे गए रोज़ ही तो उतारा गया था इनको
और संभाल कर रख दिया गया था फिर करीने से उस कौने में
समय के बक्से में बंद करके
लेकिन चाबियाँ भूल जाता हूँ कभी कभी
भटकता हूँ फिर यहाँ से वहां
बाहर भी तो बारिश बस तेरी ही याद दिलाती है
फिर अन्दर आता हूँ तो देखता हूँ
की बक्से पर तो कोई ताला ही नहीं है
शायद अभी भी कोई सोचता है कि इनको फिर से निकाला जायेगा
और दिन को फिर से उतारा जायेगा

कृते अंकेश

Wednesday, December 28, 2011

आहिस्ता हर पल गुज़र गया
देखो अब यह भी साल चला
कुछ हलचल लाकर कभी गया
खामोश कही  यह चला गया 

 सपनो के बादल बने कही

खुशियों की बारिश हुई कही 
कुछ राहे खोयी रही यहाँ 
अनजान किनारा कही मिला 

सुधबुध थे जो अपने सपने  में
जिनकी किसको भी फ़िक्र नहीं
वो राजमंच  पर आ चमके
उनसे सत्ता भी डरी हुई  

कुछ ने ठोकर खा सीखा चलना
कुछ को यह चलना सिखा गया

जो  भटके  थे इस वीराने में
उनको मंजिल यह बता गया

आभार तुम्हारा है हर पल
जो कुछ भी तुम दे जाओगे
है वही सम्पदा अपनी तो
ले  नए वर्ष  में जायेंगे

कृते अंकेश

Sunday, December 25, 2011

ओ हेनरी कि कहानी से प्रेरित 

मिस्टर शाह  काम के अम्बार से परेशान थे
कभी देर से बजते टेलीफ़ोन  को उठाते
तो कभी कंप्यूटर की स्क्रीन को देख चकराते
ऑफिस का यह व्यस्ततम  महीना था
और मिस्टर शाह से काबिल वहा दूसरा कोई नहीं था
इतने में जूली ने फाइलों का ढेर लाकर मेज़ पर रख दिया  
और बॉस की उस पर्सनल  सेक्रेटरी के कपड़ो से आती सुगंध ने मिस्टर शाह का ध्यान भंग कर किया
लेकिन आज जूली के अंदाज़ में कुछ परिवर्तन था
और चंचल सी दिखने  वाली उस  लड़की के व्यव्हार  में गंभीरता का पुट था
वह आई और एकदम शांत होकर अपनी कुर्सी पर बैठ गयी
और दोपहर देर तक बिना यहाँ वहा जाये वही बैठी रही
जब दोपहर बाद गार्ड अंदर आया
तो जूली ने उसे बुलाया और पूछा
क्या नयी सेक्रेटरी के लिए अभी तक कोई आया
यह सुन मिस्टर शाह चोके
गार्ड ने कोने में पड़ी कुर्सी की और इशारा किया
और शायद जूली और मिस्टर शाह दोनों ने एकसाथ उस कुर्सी की और अपना ध्यान किया
और पता नहीं क्या हुआ की उसके बाद मिस्टर शाह को न तो बजते हुए टेलीफ़ोन की फिक्र रही
और न ही कंप्यूटर स्क्रीन की और उनकी  निगाह गयी
जूली उस नयी लड़की को देखते ही मायूस  हो गयी
इससे पहले कि चपरासी बॉस के केबिन में जाता
बॉस बाहर आये और जूली को आने वाले सप्ताह में करने वाले सारे काम बताये
जूली कुछ पूछ  पाती कि चपरासी  बोला
सर वीं टाइम वालो ने नयी  सेक्रेटरी को भेज दिया
यह सुन बॉस ने शंकित होकर कहा
मैंने कब नयी   सेक्रेटरी  के लिए बोला
जाओ उसे वापिस जाने के लिए बोलो
और मेरे केबिन में जोह्न्सोंस की फाइल भेजो 
कोने में कुर्सी पर बैठी वह लड़की चपरासी का सन्देश सुन कर चलने के लिए उठी
बाहर जाते हुए रास्ते में  मिस्टर शाह की मेज़ भी पड़ी
फाइलों में खोया जवान अभी तक पता नहीं किन खयालो में खोया हुआ था
की उसे उस कन्या के आने या जाने का पता ही नहीं चला
बाहर जाते हुए जब उस लड़की ने चपरासी को उसके सहयोग के लिए धन्यवाद् कहा
और उस मधुर स्वर ने मिस्टर शाह को उनकी काल्पनिक दुनिया से बाहर किया
वह बोले "में यह कर कर ही रहूँगा"
वह तुरंत बाहर गए
उनके हाथ में अभी भी पेन और कुछ कागज़ थे
लड़की अभी गेट के पास ही थी
मिस्टर शाह ने उसके सम्मुख जाकर कहा
मुझे आपका नाम भी नहीं पता
और मेरी जिंदगी व्यस्तता से भरी हुई है
मेरे पास बिताने के लिए बस एक क्षण है
और में उस क्षण में आपसे प्रेम करता हूँ
यह क्षण मैंने उन लोगो से चुरा लिया है
वहा वह मेरा इंतज़ार कर रहे है 
लेकिन यह क्षण बस मेरा है
और मैं यह आपको  दे रहा हूँ 
वह लड़की स्तब्ध थी
मिस्टर शाह बोले
क्या आप इतना भी नहीं समझती 
क्या आपको प्रेम का अर्थ नहीं पता  
मैं आपसे विवाह करना चाहता  हूँ
 पहले तो उस लड़की ने अजीब सा व्यवहार किया
फिर वह मुस्कुरायी
उसने अपनी बाहों को मिस्टर शाह के कंधे में डाला
और बोली पहले तो में शंकित थी
लेकिन अब सब कुछ ठीक है
क्या तुम भूल गए
पिछली शनिवार को हम दोनों ने उस चर्च  में विवाह किया था
और मुझे डर था कि काम में तुमने मुझे बिलकुल भुला दिया था

  
अंकेश Jain

Monday, December 19, 2011


मेरा घर
घर के सामने सड़क
सड़क के उस पर हलवाई की दुकान
गरमागरम जलेबिया और कचोरियाँ
बच्चो के झुण्ड
सुबह सुबह स्कूल जाते बच्चे

ऊनी वस्त्रो से झांकते नन्हे नन्हे चेहरे
घडी की टिक टिक
कुछ आठ बजे का समय
सूरज का नामोनिशान नहीं
हल्का सा धुंध है
मेरे पैरो पर अभी भी रजाई है
हालाकि खिडकियों से आती हुई ठंडी हवा चहेरे को कबका जगा चुकी है   
लेकिन आँखे अभी भी अर्ध्सुप्त है
मैं खुश हूँ यह सोमवार सभी बन्धनों से मुक्त है

कृते अंकेश

Sunday, December 11, 2011

हे गीत मिलन हे माधुरी
हे स्वरगर्भित प्रियवासिनी
अनुरंजित सामीप्य तुम्हारा
जीवंत तुम्हारी रागिनी
गीत  मिलन हर पल हर क्षण
अनिरुद्ध  हो तुम  युग वासिनी
स्वरसाध्य प्रिये मुस्कान मधुर
है सत्य या दिवा स्वप्न यह रागिनी

कृते अंकेश 
आवहु मिली सब खेले भाई
बहु दिन पाछे यह घडी आई
मत  पूछो कहा ऋतु गवाई
सम्मुख तोहरे अब जानो पाई

बस इह ठोर जमेंगे अब मेले
रहे वहा परदेश अकेले
तेरी सोह न भूले पाई
चाहे भले ही बरस बितायी

कृते अंकेश 

Saturday, December 10, 2011

मैं कौन हूँ
बस एक दर्शक
तुम एक कुशल नर्तकी
शब्द बध्द तुमको  करने का दुस्साहस में नहीं करूंगा
तुम बस यु ही गीत लिखो
अपने करतल
अपनी गतियो से
अपना ही संगीत रचो
अपने इस आवेग  में बहकर जीवन का हर गीत रचो
मैं तो बस  शब्दों में खोकर
उन  मधुर रसो का पान करूंगा
मैं कौन हूँ
बस एक दर्शक
तुम एक कुशल नर्तकी


कृते अंकेश

Friday, December 09, 2011

संदेह 

अचानक आई बारिश ने मुझे ऊपर से नीचे तक पूरा भिंगो दिया.......  भींगने का कोई डर शेष नहीं  रहा ...... मुझे संदेह है कि भ्रस्टाचार में डूबे लोगो को कोई डर होता होगा ||

 कृते अंकेश

Thursday, December 08, 2011

भेडियो को आज भी शहरों मैं पनाह नहीं मिलती
वो तो कुछ इंसान ही है
जिनके कृत्य ऐसे है
वरना आदमी और भेडियो के अंतर को समझने के लिए दो आँखे कम नहीं होती

कृते अंकेश
अकुशल श्रम की लागत
अब भी रोटी ही होती है
क्या जाने वो बेचारे
श्रम की कीमत कितनी  छोटी है

कृते अंकेश 

Wednesday, December 07, 2011

नशा 

तुम्हारी कविताओ में कुछ भी तो नहीं मिलता
उसने कहा
और चाय का प्याला पकड़ा दिया
देखो इस चाय की सुंगंध को
क्या ला सकते हो इसे अपनी कविताओ मैं
मैं जब भी लेता हूँ इसकी चुस्कियां
देती है एक स्फूर्ति का आनंद
वह बोला,
मेरे  दोस्त
जिसे तुम आनंद कहते हो
वह तो मात्र एक नशा है
और आप बस उसी नशे में खो जाते हो, मैंने कहा,
तो क्या आपकी कवितायेँ किसी नशे से कम है,
क्या आप नहीं खो जाते है इनमे
उसने चाय का प्याला मेज़ पर रखकर कहा 
हकीकत तो यह है यहाँ सभी नशे के शौक़ीन है
बस सबकी पसंद अलग अलग है

कृते अंकेश


Monday, December 05, 2011

इंदु क्या छवि तुमने बसायी
निशा श्यामल सी होकर आयी
खेल है या यह कोई पुराना
हूँ  रहा मैं जिससे अनजाना
अब  ढूंढता निज को भटकता
होगी  मिलन की आस क्या
साथ जब तुम ही रहे न
तो भला उन पर विश्वास  क्या

सेकड़ो तारे भले ही
नभ में हो जो टिमटिमाते
घिरती घटा काली घनी है
छोड़ अपने जब है जाते
होना  सवेरा है सुनिश्चित
पर रात का लम्बा सफ़र है
कैसे चलू तू ही बता
मीलो छाया तम का कहर है

कृते अंकेश

Sunday, December 04, 2011

स्वप्न है मेरा यह जीवन
कल्पना मेरी ही है
दिख रहा जो शांत सम्मुख
स्वप्न की कर्णभेरी  है
बस सजाता कल्पनाएँ

स्वप्न से श्रृंगार करता
अज्ञात हूँ सुख से दुःख से
स्वप्न में ही प्यार करता
कुछ अधूरे  कुछ अनोखे
बहुप्रतीक्षित स्वप्नों की ढेरी
कल्पनाओ से सजी है
बस यहाँ दुनिया यह मेरी

कृते अंकेश

Tuesday, November 29, 2011

वह आया और बोला
यीशु और सुकरात तो भले लोग थे
फिर भी मारे गए
फिर क्यों कहते हो आप भला बनने को
पल भर में स्तब्ध रहा
फिर बोला कुछ साहस कर
म्रत्यु अंत नहीं होती है
जीवित है  आज भी वह
मष्तिष्क में उभरते विचारो में 
लेकिन यदि कही वह झुक जाते
तो शायद जीवन झुक जाता
मैं भी अबोध हूँ
ज्ञान नहीं मुझको जीवन का
लेकिन इतिहास बताता हैं
जो हुआ समर्पित परहित को
वही जीत कर आता है

कृते अंकेश





Monday, November 28, 2011

इन हवाओ में क़ैद है मेरे कुछ ख्वाब , उड़ने के जज्बे ने संभाले रखा है , कभी फुर्सत मिलेगी तो दिखायेंगे तुम्हे . इन हवाओ से अपना क्या रिश्ता है || (अंकेश )



देख गगन में घिरते मेघो को नहीं तरसती
उन नयनो ने जल की इतनी धारा बरसाई

गए सूख पर वह कपोल न जाने कब से
उन आँखों में नमी कही भी नज़र न आई


कुछ विषाद सा भरा हुआ है सीने में उसके
वक़्त बीतते  जड़े हुई बस गहरी जाती
न जाने किसे ढूढती  विस्मृत आँखे
ऐसा भी दिखलाती क्या रूप जवानी 


कृते अंकेश



Saturday, November 26, 2011

बादलो के घेरे से
पवन उठ कर बहने लगी
खिडकियों के कांच से
शायद कुछ कहने लगी
मेज़ पर रखी किताबे बस पन्ने पलटती गयी
धूप को यह क्या हुआ
बिन बताये चल पड़ी
बारिश  की बूंदों ने भी अपना रुख इधर किया
पल भर में ही एक विपदा के आगमन ने मुझे चिंतित किया
 
 कृते अंकेश










है असत्य
कहता यदि कोई विजय रण में हुई 
लाशे गिरी दोनों तरफ से
माँ की गोदी सुनी हुई
आंसूओ का मोल क्या
बस हार और यह जीत है
है धरा जब एक ही
तो क्यों उलझती प्रीत है
स्वार्थलिप्त जीवन में उलझा
बस यहाँ मनुष्य है
लड़ रहा है स्वयं से
हारता मनुष्य है

कृते अंकेश 
नीड़ तुम कितने घने हो
है सघन मेरा भी मन
बढ रहा हूँ में भी प्रतिक्षण
चाहता हूँ में भी पाना
आकाश की ऊंचाइयों को
लेकिन नहीं में जान पता
यह नहीं पहचान पाता
इस बदलते परिवेश में
कैसे अडिग तुम खड़े हो
नीड़ तुम कितने घने हो

कितने बसाये घोसले हो
फूल और फल से लदे हो
ग्रीष्म,शीत और शिशिर में
एक से ही बस  खड़े हो
काश में पहचान पाता
राज़ यह में  जान पाता
इन गुणो से जीवन में अपने 
तेरे सद्रश सम्मान पाता 
नीड़ तुम कितने घने हो

 कृते अंकेश
चिर परिचित
प्रतिपल प्रतिक्षण
जीवन मुस्कान अधर चंचल
है स्वेत  राग श्रृंगार विरल
नयनो में डूबे हुए नयन
फिर कैसी मुख पर लाज बसी
क्या सीमाओ से घबराना
यह मिलन यामिनी जीवन की
मिटकर इसमें है मिल जाना

कृते अंकेश

Saturday, November 19, 2011

इन हवाओ में  क़ैद  है मेरे  कुछ  ख्वाब
उड़ने के जज्बे ने संभाले रखा है
कभी फुर्सत मिलेगी तो दिखायेंगे   तुम्हे
इन हवाओ से अपना क्या रिश्ता है

(अंकेश )  

Sunday, November 13, 2011

यह ख़ामोशी
जानी पहचानी तो नहीं है
छिपाए अंतर में गूढ़ रहस्य
कर रही है इंतज़ार
किसी परिचित का
चिल्लाती हवाए
भला मौन को कहा विचलित कर पाए
यह तो है शाश्वत
स्वर तो बस भ्रम मात्र है
जो लाते है सुख को दुःख को
वरना भला किसी ने क्या रोते देखा है पत्थरों को

कृते अंकेश

Tuesday, November 08, 2011






मेरी अपनी सीमाएं है
कहता जितना कह पाता हूँ
चाहे  जितना ही कह डालू
कुछ अनकहा छोड़ ही जाता हूँ

जीवन के पथ पर शायद
कोई इनका अर्थ बना लेगा
मेरी ख़ामोशी में छिपे हुए
शब्दों का भाव बता देगा

कृते अंकेश 

Wednesday, November 02, 2011

अगर पंख जो मेरे  होते 
दूर गगन तुमको ले जाता
पर्वत नदिया झरने सबकी 
पल भर में ही सैर कराता

खूब खेलतेफिर हवाओ में 
पलक झपकते ही खो जाते 
थक जाते जो यदि कही तो
पेड़ो के मीठे फल खाते

फिर यह सारी सुन्दर  चिड़िया
अपनी भी दोस्त हुआ करती
हमें जंगलो में ले जाती
संग अपने खेला करती

खरगोशो की माद देखते
हिरनों को देख उछलता
झाड़ी में छुप देखा करते 
प्यारे भालू को शहद टटोलता

तब जंगल का राजा भी
अपने पंखो के नीचे होता
देखो वह हिरनों का झुण्ड भागता
शेर कही वही पीछे होता

नदियों के तट पर जाकर फिर
सूरज को ढलता देखा करते
थक जाते जो यदि कही  तो
बापस घर का डेरा करते


कृते अंकेश

Monday, October 31, 2011

आहिस्ता आहिस्ता गयी कितनी रातें
हिसाब ही कहा है, कैसे बताएं
अब तो आरज़ू है जन्नत के इस गलीचे से दूर कही 
दरख्तों की छाव में भी कुछ दिन बिताएं

कृते अंकेश

Saturday, October 29, 2011


क्षोभ
वो कौन आकाश के आँगन में खेलता है
स्वप्नों के साथ 
तरसाता है
सताता है
बूदो की प्यास में
पवन को झुलसाता है
सुना है मेने शोर मेघो के गर्जन का
डरावना सा लगता है
जैसे वह  अपरिचित व्यक्तित्व भयभीत कर रहा हो
लेकिन कभी कभी उसका भी दिल पिघलता है
बरसता है वह
पर इस तरह
कि शांत ही नहीं होता
जलमग्न  कर देता है धरा को अपने आंसूओं से
ये क्षोभ है उस ह्रदय का
जो नहीं समझ सका जीवन को
और संतृप्त  करता है आंसूओ को आंसूओ से

कृते अंकेश 

Wednesday, October 26, 2011

दीप जलो तुम और जलो 
देखो अँधियारा बचा हुआ 
कही कही कुछ पलकों में
दुःख का साया छिपा हुआ 

अपनी खुशियों से बिखेर दो 
जग में रंग ख़ुशी के 
ला  सकते हो तो लोटा दो 
चेहरों की मुस्काने सभी को 

और बढ़ो  तुम और बढ़ो
तुमसे ही आशाएं जीवन की
देख रही है सभी निगाहें 
इस भूतल जलतल नभतल  की 

दीप जलो तुम और जलो
करो प्रकाशित जीवन को
आज जला दो अपनी लो में
हर विपदा विपत्ति  विघ्न को

फिर विजय के गान युगों तक
यु ही गाये जायेंगे
ये दीप सदा हर घर में बस यु ही जलते जायेंगे

कृते अंकेश 




Tuesday, October 25, 2011

दीप तुझे जलना ही होगा 
राही तुझे चलना ही होगा 
जाने कितने चेहरों की मुस्काने अब भी बाकी है
कितनी आँखे भूल चुकी है
क्या होली और दिवाली है
उनके  होठो के रंगों को
अब तुझको ही  भरना होगा
दीप तुझे जलना ही होगा 
राही तुझे चलना ही होगा 



Sunday, October 23, 2011

कुछ पल आज मुझे दे दे जीवन
सर्वस्व तुम्हारा कल होगा
वरना मेरा क्या मैं मिट जाऊँगा 
 दुःख शायद तुमको तब होगा    

कृते अंकेश

Saturday, October 22, 2011

प्रतिबिम्ब 

क्या गाते हो
ओ मुसाफिर
मौन हो तुम
या मौन रह कर ही कुछ कह जाते हो
हो अजनबी
या जाने पहचाने हो
या शायद पहले  कही मिले हो
लगते कुछ परिचित से हो
या अपरिचित हो
माफ़ करना मुझे
भूल जाता हूँ
चेहरे नहीं याद रख पाता हूँ
लेकिन यह तेरे जो स्वर है
शायद पहले भी कही सुने है
या यह मात्र प्रदर्शन है
उन अभिव्यक्तियों का
जो सभी के जीवन का अंग है
या शायद तू और कोई नहीं मात्र मेरा ही प्रतिबिम्ब है

( कृते - अंकेश जैन )









Wednesday, October 19, 2011

मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी
नंदन वन सी फूल उठी यह छोटी सी कुटिया मेरी

माँ ओ कह कर बुला रही थी, मिटटी खा कर आई थी
कुछ मुह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लायी थी

पुलक रहे थे अंग, द्रगो में कोतूहल सा छलक रहा
मुह पर थी आल्हाद लालिमा, विजय गर्व था छलक रहा

मैंने पुछा यह क्या लायी, बोल उठी वह, "माँ काओ"
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय ख़ुशी से, मैंने कहा, तुम्ही खाओ

पाया मैंने बचपन फिर से, बचपन बेटी बन आया
उसकी मंजुल मूर्ती देखकर, मुझमे नवजीवन आया

मैं भी उसके साथ खेलती, खाती हूँ, तुतलाती हूँ
मिल कर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ

जिसे खोजती थी बरसो से, अब जाकर उसको पाया
भाग गया था मुझे छोड़कर, वह बचपन फिर से आया

(सुभद्रा कुमारी चौहान)

Tuesday, October 18, 2011

मैं ह्रदय की बात रे मन
किससे कहू यह शोर सारा
क्या भला मैं व्यर्थ हारा

इस झुलसते विश्व दिन की
है कही क्या रात भी
है घिरी यह कालिमा जो
लाएगी क्या बरसात भी
न दिखाओ बस स्वप्न मुझको 
मैं यहाँ स्वप्नों से हारा 
किससे कहू यह शोर सारा 

अश्रु आँखों में सजाये 
कैसे विजय का ताल दू 
है गहन छायी निराशा
कैसे कहो मैं  टाल दूं 

चिर विषादो के प्रणय में 
क्षुब्ध है जीवन की धारा 
किससे कहूं यह शोर सारा

कृते अंकेश

Monday, October 17, 2011

मत कहो है पथ असंभव
व्यक्तिगत मत है यदि तो व्यर्थ है इसको बताना
है  समय अपना  गवाना
क्या हुआ जो छाया अँधेरा
आकाश में है  व्याप्त कोहरा
सूर्य भी दिखता न है
क्या करेंगे देखकर
देखा उसे सहस्त्रो ने है
हमको तो आगे है  जाना
मत कहो है पथ असंभव

कृते अंकेश







Saturday, October 15, 2011

 फ़्रांसिसी कविता का हिंदी में अनुवाद   (मैं जैसा हूँ वैसा हूँ)

मैं जैसा हूँ वैसा हूँ
मैं ऐसा ही बना हूँ
जब होती है हँसने की इच्छा
हाँ, मैं ठहाके मार कर हँसता हूँ

प्यार करता हूँ उन्हें जो प्यार करते हैं मुझे
क्या यह मेरी ग़लती है
(अगर यह वैसे ही नहीं होता)
कि हर बार मैं प्यार करता हूँ?

मैं जैसा हूँ वैसा हूँ
मैं ऐसा ही बना हूँ
तुम और क्या चाहते हो?
क्या चाहते हो तुम मुझसे?

मैं चाहने के लिए बना हूँ
मेरी एड़ियाँ बहुत ऊँची हैं
मेरा कद बहुत झुका हुआ
मेरा सीना बहुत ज़्यादा कठोर
और मेरी आँखें बहुत ज़्यादा कमज़ोर
और फिर
इससे तुम्हारा क्या होगा?
मैं जैसा हूँ वैसा हूँ
मैं ऐसा ही बना हूँ

क्या होगा इससे तुम्हारा
जो मुझे हुआ था?

हाँ, मैने किसी से प्यार किया था
हाँ, उसने मुझे प्यार किया था
उन बच्चों की तरह जो आपस में प्यार करते हैं
केवल प्यार करना जानते हैं
प्यार करना
प्यार करना
क्यों करते हो मुझसे प्रश्न
यहाँ मैं तुम्हें खुश करने के लिए हूँ
और यहाँ कुछ बदल नहीं सकता।

मूल फ़्रांसिसी से अनुवाद : हेमंत जोशी 
जो पुल बनायेंगे
अनिवार्यत: पीछे रह जायेंगे
सेनाये हो जाएँगी पार
मारे जायेंगे रावन
विजयी होगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में बन्दर कहलायेंगे

(अज्ञेय) 

साप
तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया
एक बात पूछु उत्तर दोगे
फिर कैसे सीखा डसना ?
विष कहा से पाया ?

(अज्ञेय)
मैं मरूँगा सुखी
मैंने जीवन की धज्जिया जो उड़ाई है

(अज्ञेय)
है वीणा तुम कितनी हो मधुर 
सम्मोहित कर लेती हो तुम अपने उन मधुर स्वरों से 
पर न भूलो कितने हाथो ने किया समर्पण है खुद को 
तब जा पहचानी है वह लय
वह तारो का कुछ निश्चित क्रम 
जिनके छिड़ने से निकला करती है वह मधुर ध्वनि 
मैं भी मोहित हो जाता हूँ 
अपनी सुध बुध खो जाता हूँ 
जादू ही कुछ ऐसा है 
उन मधुर स्वरों का 
है वीणा तुम कितनी हो मधुर

अंकेश जैन

Tuesday, October 11, 2011

उफ़ पिघलता है यह दिन 
क्या हुआ रवि को यहाँ 
हे मेघ तुम गए हो कहा 

कृते अंकेश 

Sunday, October 09, 2011

स्वप्न 
आभास स्वतंत्रता  का 
है राज्य मेरा 
न कोई सीमा न कोई बंधन 
उड़ता हूँ  आज़ाद 
परिचित या अपरिचित 
सभी है मेरी ही कल्पनाये 
नहीं है विवशता रहने की हमेशा
मैं ही सृजक मैं ही संहारक
तैरता हूँ निश्चल इस सागर में
है जीवंत यह मेरा स्वप्न

कृते अंकेश

Saturday, October 01, 2011

समाज 
मनुष्य का विकास 
कुछ अधूरे प्रश्न 
एक प्रतिविम्ब 
जीवित है कल्पना 
एक नए कल की 
बेहतर कल की  
प्रत्युत्तर है अधूरा 
समाज के उस वर्ग के बिना नहीं है पूरा 
जिसे नहीं है पहुच 
आधारभूत आवश्यकताओ की 
पहचान नहीं है संघर्षवाद के सिद्धांतो की
वो तो भटकता है 
एक रोटी की आस में 
भूखे पेट की प्यास में 
एक भूख के होते हुए भला दूसरी भूख कैसे लगेगी 
खाली पेट में विचारो की माला कैसे गुथेगी
पहले खोजना होगा समाधान इस समस्या का 
तभी संभव है हल किसी और प्रश्न का 

कृते अंकेश 

 

Saturday, September 24, 2011

नहीं समझ पाती में इनको
इन शब्दों में होगे कई अर्थ भले
मेरा परिचय बस उन अधरों से है
जिसने शायद यह शब्द कहे 
नैनों की भाषा समझाना
क्या इतना मुश्किल  काम कोई
बन अर्थहीन मैं भटकी हूँ
इन शब्दों का न विराम कोई

है शब्द अर्थ  न अर्थ शब्द
जीवन एक विहंगम नृत्य बना
क्या पास दूर क्या दूर पास
स्वप्नों को क्या हुआ पता


था जिन नैनों को  मैंने जाना
वह बंद पलकों में खोये कही
अब तस्वीर निहारा करती हूँ
अधरों की हसी है सोयी कही
नहीं समझ पायी में इनको
इन शब्दों में होगे कई अर्थ भले
मेरा परिचय बस उन अधरों से है
जिसने शायद यह शब्द कहे
 कृते अंकेश 
 
 

Friday, September 23, 2011

नहीं समझ पाती में इनको
इन शब्दों  में होगे कई अर्थ भले
मेरा परिचय बस उन अधरों से है
जिसने शायद यह शब्द कहे

कृते अंकेश

"Millions of people never analyze themselves. Mentally they are mechanical products of the factory of their environment, preoccupied with breakfast, lunch, and dinner, working and sleeping, and going here and there to be entertained. They don't know what or why they are seeking, nor why they never realize complete happiness and lasting satisfaction. By evading self-analysis, people go on being robots, conditioned by their environment. True self-analysis is the greatest art of progress."
- Paramahansa Yoganana

My views on above lines -:
I do not have much experience with life and may be my perceptions are not correct, but I feels that there are three stages in this process of self evaluation, a normal individual, whose motive is just to survive is purely bounded by the conditions described above, this phase of human life can be described as struggle for the existence of the body, then with a little intelligence he may started thinking beyond this, and may found that life is useless without having big goals, and without striving for these goals, and this phase of human life can be defined as the struggle for the existence of mind, and finally If you started thinking a lot you may start realizing that ultimate happiness lies in satisfaction, here satisfaction does not mean that you left putting efforts, rather you were able to find the things which you likes, where you can spend whole of your life without being tired, Now you do things not for survival or for existence, rather you do it for fun, because it makes you happy, with a careful balance of efforts and fun, you start enjoying the life. I defines this phase of human life as the struggle for the existence of soul.

Thursday, September 22, 2011

And then when the day (virtue) and night (vice) were exactly equal, I came here, In this world..... and that may be the reason I could never become a good or a bad person , I remain as I was :P

Monday, September 19, 2011

है निमंत्रण क्या मुझे उस संसार का 
हो नहीं प्रतिबन्ध कोई जहा  किसी प्रकार का 


 

Sunday, September 18, 2011

आराम करो आराम करो
जीवन में बस आराम करो
आराम शब्द में राम बसा
तन मन से इसका ध्यान करो

यह जीवन पल भर की नैया
फिर और समय न पाओगे 
जो भी क्षण है विश्राम करो
वरना तकते रह जाओगे

देखो ऋषियों और मुनियों को
बस  ध्यान लगा सो जाते है
जो फसते लालच में मेहनत के
वह व्यर्थ समय गवाते है

सोकर सपनो में खो जाना
खुशियों के आँचल में सो जाना
यह जीवन सिर्फ तुम्हारा है
पहले  अपनी  इच्क्षाओ को पाना

 
कृते अंकेश 

Saturday, September 17, 2011

कही यादो के किस्से है 
कभी ख्वाबो में मिलते है 
कही खुशियों के पल गहरे
कभी  दुःख के भी है पहरे
यह डूबी शाम है कहती 
निशा अब पास ही रहती 
नहीं अब दूर तक जाना 
खयालो में न खो जाना  

चिरागों के उजाले है 
बड़ी मुश्किल संभाले है 
पवन की बासुरी बहती 
तिमिर के साथ थी रहती 
यह डूबी शाम का कहना 
घटा को है सदा बहना
नहीं अब भींग तुम जाना 
खयालो में न खो जाना 

उठी फिर रौशनी कैसी 
गगन में दूर तक ऐसी 
अगर यह चांदनी है तो 
चन्द्र को भी साथ था लाना 
यह डूबी शाम का आना 
घटाओ का यु छा जाना 
नहीं अब भींग तुम जाना 
खयालो में न खो जाना 

कृते अंकेश

Friday, September 16, 2011

ओस की बूंदों को सहेजे  है धरा 
गगन रात भर क्यों रोया 
मुस्कुराती थी चांदनी
चंद्रमा भी नहीं सोया 
निशा का आँचल 
समेटे था जग पटल को 
अन्धकार ने भी कहा कुछ देखा
कुछ आवाजे 
रात्रि के सन्नाटे में सुनाई दी होगी
पर किसे खबर जब सारा जग ही सोया

कृते अंकेश


Thursday, September 15, 2011

संध्या शायद स्वप्न को यू अधूरा न छोड़ दे 
ये घटा इस पथ से आकर मुख कही न मोड़ ले 
दूर तक थे जो चले तेरे और मेरे कदम 
इस अँधेरे में कही वो पथ नए न जोड़ ले

कृते अंकेश

Saturday, September 10, 2011

वो सुप्त है, मैं हूँ  जगा 
खामोश वो, मैं हूँ ठगा 
वो जीतती, मैं हारता
वो भींगती, मैं भागता 
वो खिल रही, मैं मिल रहा 
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा

है दूर पास क्या पता 
कैसी आस क्या खता 
किसे खबर है रंग की 
किसे फिकर है ढंग की
है सिलसिला बस बढ रहा
अब हार का किसे गिला 
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा

छिपे हुए से रंग है
जो आज संग संग है
मुस्कुरा रही धरा 
छिड़े जो यह प्रसंग है
हर स्वर खिला खिला
मन की इस तरंग का
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा

कृते अंकेश 

Friday, September 09, 2011

Hint story written by me, words highlighted in yellow color are words given to us, rest is imagination, :) (To read article properly, click over article and it will open in another window, where it can be zoomed again)

Thursday, September 08, 2011

                             लहरें समुद्र में बार बार उभर कर आती ही जा रही है , लहरों के आते हुए  क्रम को एवं उनके  जोश को देखकर ऐसा प्रतीत  होता है मानो  किसी  राजा की सेना कही पूरे  जोर शोर  से चढाई करने  जा रही हो, तात्पर्य  यह है कि उनका उत्साह  देखते ही  बनता है |   चंद्रमा की  रौशनी  में लहरों का  जल  चमकते हुए ऐसा दिख  रहा है मानो प्रिय के  आलिंगन में बद्ध  प्रेमिका मुस्कुरा  रही हो | यह देख कर  प्रथ्वी  को  लगता है की वह तो  अकेली ही रह गयी , जबकि  वास्तविकता यह है की लहरों का जल  अंत में धरा  पर  ही आना  है एवं चांदनी तो  सदा ही उसके   पास भी है लेकिन यहाँ  महत्वपूर्ण  द्रश्य चांदनी का लहरों से  मिलन है जो धरा के  सानिध्य में न  होकर  सिन्धु में हुआ, जिसका उसे  दुःख है |
सिन्धु वक्ष स्थल पर उभरती   लहरें  इस  आवेग  से 
मानो  चली  हो  सेन्य  शक्ति जैसे संपूर्ण  संवेग से
 नहला  रही है चांदनी वारि के कण कण को यहाँ 
तक रही फिर भी धरा,  क्यों मेरा मिलन अधूरा  रहा 

कृते अंकेश 
  
 
फिर दहला है कोई शहर
फिर से हलचल सी आई है 
जागो अब तो संभलो  जानो 
की लेनी अब अंगड़ाई है

 कृते अंकेश 

Tuesday, September 06, 2011

रेतसे घर मैं बनाता
फिर पवन से था बचाता
टूटकर गिरना ही था
आ जमी में मिलना ही था

मैं नहीं पर हार पाता
फिर से मिट्टी को उठाता
रंग सपनो के लगाता
उस घडी चलना ही था
आ जमी में मिलना ही था

ओ पवन यह कारवा
मेरा नहीं पर रुक सकेगा
हार भी यहाँ जश्न है
यह सफ़र अब न थमेगा
मौत से भी कह देना ठहेरे
उस घडी ही बात होगी
जब जीत मेरे साथ होगी
जब जीत मेरे साथ होगी

कृते अंकेश 

Monday, September 05, 2011

जो देकर अपने सपनो को 
यह विश्वास दिलाते है 
है खेल मात्र यह जीवन रण
पत्थर भी यहाँ तर जाते  है

है मधुर ज्ञान की वाणी वह
कटु शब्द पिरोये हुए कभी
उनसे ही बना व्यक्तित्व सरल 
है जीवन का श्रृंगार वही 

जिनके उर में बस सदा रहे 
अपने कल  की तस्वीर कही 
जो जीतें है इस आशा में
बिखरे खुशबू इन सपनो की

हम जीत गए कभी हार गए
जो नहीं हार कभी पाते है
ऐसे शिक्षक तुल्य प्रभु के है
हम उनको शीश झुकाते है

कृते अंकेश
 

Friday, September 02, 2011


 रात को अब जाना ही होगा 
 
 कह दो उनसे जो सोये है
 सपनो के बादल में खोये है
निशा के मद में डूब कही
 जो जीवन रंगों में खोये है

 इस प्रहर को अब ढल जाना होगा
 रात को अब जाना ही होगा

ओ चंचल चन्द्र चांदनी
चातक चिंता में है डूबा
इन  किरणों के भ्रम में शायद
स्वाति तेरा मोह भी छूटा

उन किरणों को लेकिन अब ढल जाना होगा
रात को अब जाना ही होगा

कृते अंकेश 

खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है
किसी नयी मंजिल  से जुड़ जाने का मन करता है
यहाँ तलाशे कितने रस्ते
टेढ़ी  मेढ़ी गलिया भी
अब इन गलियों से बाहर जाने का मन करता है
खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है

 नहीं थका हूँ नहीं थकूंगा
 मुझको है विश्राम कहा
 लेकिन  जीवन में कभी कभी मनमानी को मन करता है
खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है

 खिलते चेहरे मुस्कानों में घुला हुआ संगीत कहा
 मुश्किल से थे कभी समेटे वो सारे तेरे गीत कहा
 आज उसी संगीत में जा  मिल जाने का मन करता है
खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है
किसी नयी मंजिल  से जुड़ जाने का मन करता है

कृते अंकेश 

Wednesday, August 31, 2011

बढ चले दल, फिर नयी मंजिलो की आस में 
घटती दिवा, बुझने लगी चन्द्र के प्रकाश में
संध्या तले, दीपक जले बरसी कृत्रिम रौशनी 
यह प्रकाशित आगमन ही रात्रि का आह्वान है

कृते अंकेश

Monday, August 29, 2011

चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी 

जब घटा ने ओढ ली चादर कोई श्यामल पुरानी
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी 
था कभी  अपना सरोवर, तीर भी अपना ही था
दर्द से तपकर यह जल बाष्प बन उड़ता गया 
अब यहाँ सूखे अधर है
और है कुछ लुटी कहानी 
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी

दर्द से यु है नहीं कोई नया अपना यह नाता
ग्रीष्म में है स्वेद त्यागा उस घटा का बल बढाया
लेकिन तरसती आँख को अब नहीं आता रास
बहता रहे मेरा लहू  न मिटे उनकी प्यास
तरसे नयन है ढूंढते 
किसने है छीनी यह कहानी
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी

गर्जन है करती जो घटाए कह दो उनका बल हमसे ही है
है जो बैठी वह गगन में उनके अगन में हम ही है
फिर भी यदि न मानती वह सत्य की इतनी कहानी
तो चलो भरकर लहू ही आँख में जो न हो  पानी
जीतनी है अब हमें
अपनी खोयी किस्मत पुरानी
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी

कृते अंकेश

Sunday, August 28, 2011

छूटकर जो रास्ते से मैं किनारे पर खड़ा था
हाथ मेरा थाम वो ले फिर मुझे बस चल दिया था
जीत या  हार तो लगने लगे बस अब बहाने
सेकड़ो की भीड़ में  जो है मिले कदम जाने पहचाने

कृते अंकेश 


Tuesday, August 23, 2011

भीड़ है बदती हुई 
गूजते कुछ स्वर भी है
उन्माद में डूबे हुए पर कुछ इनसे बेखबर भी है
धर्म भाषा जाति बोली कद या काठी क्या पता
इस समूह की भीड़ में हर एक इंसान दिख रहा
है व्यवस्थित से कदम, आँखों में पर आक्रोश है
खौलता है खू नसों में, उनके  स्वरों  में जोश है
रास्ते कब बन गए है मार्ग एक विश्वास का 
है चली जिस  पर यह सेना जीत का उन्माद सा 
आज हम जायेंगे बदल अब हर उस एक सच को
  छीनती है जो व्यवस्था हमसे हमारे हक को

 कृते अंकेश
दो पग तो साथ चले थे हम,
अब न  जाने कब मिल  पाएंगे ,
किस्से पल भर के है तो क्या
 आँखों से न मिट  पाएंगे

 तेरी मंजिल का पता नहीं 
 मेरा रास्ता भी बना नहीं
 जो आज अधूरे  कही रहे 
 बन आँखों में सपने छाएंगे

दो पग तो साथ चले थे हम,
अब न  जाने कब मिल  पाएंगे 

  घिरती  जाएगी शाम कही 
 ढलती  आएगी रात वही 
 फिर आँखों में बन सपना जो
 यह नयन वही  मिल जायेंगे

दो पग तो साथ चले थे हम,
 अब न  जाने कब मिल  पाएंगे 

कृते  अंकेश

Sunday, August 21, 2011

मेघ गया न  तू उस घट
फिर पत्र भला क्यों भींगा है 
सच बतला मुझको बात है क्या
नैनों ने बरसना कब सीखा है

 धुंधले से टेढ़े  यह अक्षर
आँखों की हकीकत कहते है
 तूने तो चेहरा देखा है 
क्या अधर भी खामोश ही  रहते है

वह  चंचल से दो पग जो तब 
मेरे रस्ते आ जाते थे
क्या राहों ने  उनको देखा
अब भी  है वहा आते जाते

एहसास  नहीं होता मुझको 
मैं इतना   दूर चला आया
खामोश  रही साँसे  अब तक
कागज़ की नमी ने बतलाया

कृते अंकेश

Thursday, August 18, 2011

  बादल को घिरते देखा है
   तूफा  की आहट से मैंने  बस्ती को  जुड़ते देखा है
  फिर भी जो  सोया क्या बोले
  शायद सोचेगा कल, सपनो ने भी उडान भरी
  लगता आज उसे  जो धोखा  है
  बादल को घिरते देखा है
कृते अंकेश



Tuesday, August 16, 2011

छोड़ सखी क्या उनसे बोले
छोड़ सखी क्या उनसे बोले
भूले वो क्यों  राज़ यह खोले  
निशा नहीं यह क्षण प्रभात का
बन बावरे फिर क्यों डोले
छोड़ सखी क्या उनसे बोले


जीवन की इन राहों में
जाने कितने मोड़ बने है
किस पथ बिछुड़े थे उनसे तब
किस पथ पर अब नैन मिले है
 मगर कहे क्या समय की सीमा
  नयनो में है अचरच घोले
छोड़ सखी क्या उनसे बोले
 भूले वो क्यों  राज़ यह खोले  

यह बूदे बारिश की देखो
कभी भिंगो जाती थी तन को 
पूरे जोरो से है बरसी
नहीं भिंगो पाई पर मन को
 कैसे इन बातो को अब
 उस भूले भटके उर में खोले
छोड़ सखी क्या उनसे बोले
भूले वो क्यों  राज़ यह खोले  

देखो यह ढलता सूरज भी
दिनकर को आभास दिलाता
निशा निकट है, इंदु प्रेम से
श्रृष्टि का श्रृंगार कराता
 हाय मगर कहा भाग्य हमारा
 किस चंचलता को अब तोले
छोड़ सखी क्या उनसे बोले
भूले वो क्यों राज़ यह खोले

कृते अंकेश

Saturday, August 13, 2011

इंतज़ार

इंतज़ार में
बीत गए दिन
अब तो ऋतु भी बदली है
कुछ कहते है सावन आया
छायी काली बदली है



कहा छिपी है तेरी आभा
 जीवन का श्रृंगार कहा
मधु था भूल गया होठो को
वह तेरा विस्तार कहा
 तुझसे  खोयी मेरी सुबह
 और यह शाम दुपहरी है
वो कहते बीत गया है अरसा
लगती बीते पल की प्रहरी है

इंतज़ार में
बीत गए दिन
छायी काली बदली है


कृते अंकेश

Wednesday, August 03, 2011

कसूर किसका है

हमने तो बस रंगों से दोस्ती की 
फिजा में गर छायी लाली तो कसूर किसका है 
शिकायत लाख करे ज़माना 
मगर तमन्ना ए हसरत अभी भी उतनी  ही मासूम  है 
लेकिन फिर हाथो से यदि वही तस्वीर बन जाये तो कसूर किसका है 

यु तो मौसम भी गुज़रते है 
सावन से पतझड़ तक 
लेकिन बिन मौसम बदली गर भिंगा जाये तो कसूर किसका है
मेरे आँगन  में बगीचा है कुछ सूखे पेड़ लिए 
पर अचानक से तितली आ गुनगुना जाये तो कसूर किसका है  


कृते अंकेश

Sunday, July 31, 2011

अधिकार
सत्य बोलो
क्या यहाँ अधिकार कोई छीनता
था हमारा स्वप्न जो
आज़ाद संसार कोई छीनता
दे दिए थे प्राण भी  
बस जिसकी आस में
वो ख्वाब जो बन सकी हकीकत
वह ख्वाब कोई छीनता


क्यों उठी आवाज़ फिर है
क्या यहाँ कोई जस्न है
आक्रोश से क्यों है भरे कंठ
आँखे  दिखी क्यों  नम है
सोचते क्यों अलग हम
जो चले कल साथ थे
या भूले यहाँ कुछ हाथ कि कल
हम सभी एक हाथ थे

देखो नहीं खो जाये
जो पाया बहाकर था लहू
थे शीश भी हसकर कटाए
निज प्राण की आहुति दी
समझो संभालो कर लो प्रयत्न
न खो सके अधिकार यह
ऐसा न हो हम हार जाये
व्यर्थ हो जाये सारी विजय


 कृते अंकेश

Wednesday, July 27, 2011


 Knowledge vs Money: My views

I belongs to a family where knowledge always overshadowed the money, and I always try to inherit this property. In my opinion, the quest for knowledge should be the goal of life as it will teach you what you want from life. In fact knowledge can tells you the way to get anything from life even money but vice versa is not true. Actually you can get education through money, but getting knowledge is something different. It cannot be quantified in degrees or certificate which education can provide. In fact knowledge is the essence of education which can be obtained through education but cannot be guaranteed by it. It comes through the willingness of delving deeper into the subject and by extracting and exploring the hidden truth of your arena. It may be time consuming but it leads to ecstasy, where you enjoy your presence.    

Ankesh Jain





Tuesday, July 26, 2011





जूतों का महत्त्व 

जूता वैसे तो साधारण सी  दिखने वाली एक सामान्य प्रयोग की वस्तु है| लेकिन जूतों की गरिमा मनुष्य के चरित्र में विशेष भूमिका रखती है | सेना से लेकर सेवा तक, जूतों का  अपना एक अलग  ही स्थान है | मनुष्य के इतिहास में भी  जूतों की एक अलग ही पहचान है, जब भगवान राम राजा दशरथ के आदेश पर वनवास गए थे, तो उनके लघुभ्राता भरत ने इन्ही जूतों के वंशज "खडाऊओ" को उनका प्रतीक मानकर शासन  चलाया|   कुछ लोगो का तो यह तक मानना है की आदमी के जूतों को देखकर उसके चरित्र का अनुमान लगाया जा सकता है| इसी के चलते इंटरव्यू हो या कोई बड़ी मीटिंग, हर कोई अपने जूतों को चमकाने मैं लगा रहता है | यहाँ तक की सिने-क्षेत्र में राजकुमार जैसी  हस्तियों  को लोग  उनके जूतों को देखकर ही पहचानते है |

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो जूतों की जरूरत और भी बड गयी है| अकुशल राजनीतिज्ञों एवं  बडबोले  लोगो को प्रत्युतर देने में इनका उपयोग तीव्र गति से बड रहा है |   कुछ सेन्य विशेषज्ञो का मत है, कि जूता वह अनोखी कृति है, जिसे अस्त्र एवं शस्त्र दोनों वर्गों में रखा जा सकता है | सामान्यत: अस्त्र वह हथियार होते है जिन्हें  हाथ  में रखकर वार किया जाता है , जबकि  शस्त्र वह हथियार होते है, जिन्हें फेककर मारा जाता है | लेकिन जूतों की बहुमुखी प्रतिभा  के चलते वह इन दोनों परिभाषाओ में खरे उतरते है |  यदि मनुष्य को सफलता प्राप्त  करनी  है तो आवश्यकता है इस प्रतिष्ठित कृति को भली-भाती समझने की |





Saturday, July 23, 2011

पिघलती देह से टपके पसीने का भला क्या मोल 
यहाँ तो जिंदगी भी कुछ  कागज़ के टुकडो में बिखर जाती 
नुमाइश क्यों लगाते हो अपनी कामयाबी की
यह  बस्ती आज भी रातें वही खाली पेट गुजारती
मुझे  खलिश नहीं तेरी चमक से धमक से
बस खयालो को यह सूरत नहीं भाती
कही बहती है नदिया न पीने वाला
यहाँ प्यासों को मरीचिका भी नज़र नहीं आती


कृते अंकेश





Wednesday, July 20, 2011

मुद्दे और संवेदनशीलता

भारत एक लोकतंत्र है एवं लोकतंत्र में सभी को अपने मत व्यक्त करने की संपूर्ण स्वतंत्रता है|  लेकिन समाज के कुछ ही लोग विचारो के सृजन से पहले प्रश्न के सभी पहलूओ को महत्व देते है | समाज का एक बड़ा हिस्सा शायद ही अपनी कोई राय रखता है, उसके विचार मुख्यत: सामाजिक
गतिविधियों से प्रभावित होते है | यहाँ सामाजिक गतिविधियों से मेरा तात्पर्य समाज के कुछ चुनिदा लोगो द्वारा दिए स्वतंत्र विचार एवं अन्य लोगो द्वारा उन पर की प्रतिक्रिया से है|  वैसे देखा जाये तो यह प्रक्रिया पूर्णत: वैज्ञानिक है यदि सुचारू रूप से की जाये | लेकिन वही यदि विचारो के सृजन एवं प्रतिक्रिया में लोग अपने स्वार्थ के लिए यदि किसी पक्ष विशेष का समर्थन करने लगे, तो यह प्रक्रिया न केवल हानिकारक अपितु विनाशक भी है | अब चाहे वो मीडिया द्वारा अपनी टी.आर.पी. को बढाने का स्वार्थ हो या राजनीतिक हस्तियों द्वारा अपनी वोटो की रोटियों को सकने का स्वार्थ हो| लेकिन इसका दुष्प्रभाव तब प्रदर्शित होता है जब समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने विचारो  के सृजन में उन पक्ष विशेष के मत को सत्य मान कर अपनी राय बना लेता है| यहाँ लोकतंत्र समाज के सृजक  के स्थान पर विनाशक की भूमिका अपना लेता है क्योकि दुष्प्रभाव के चलते बड़े तबके की असत्य राय चुनिदा लोगो के सत्य को दबा देती है|  यहाँ आवश्यकता है विचारको  को एक निष्पक्ष मंच बनाने की, जहा उनका कार्य केवल अपनी स्वतंत्र राय देने के साथ ही नहीं ख़त्म होता, अपितु उन्हें अपनी राय को दबने से बचाना भी होगा| समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके मत को समझ सके इसके लिए उन्हें मीडिया से भी जुड़ना पड़ सकता है, लेकिन उन्हें किसी भी राजनीतिक स्वार्थ से पूर्णत: दूर रहना होगा| उन्हें अपने कुछ चंद लोगो के साथ को छोड़ कर आम जनता के मध्य सरल भाषा में अपने विचारो  को समझाना होगा|  कहने में यह बात मात्र आदर्श कथन लगती है, लेकिन  यह आवश्यक है, क्योंकि समाज के प्रत्येक मत का प्रभाव सभी पर पड़ता है, वह चाहे कुछ चंद विचारक हो, जो मुद्दों को समझ सकते है अपनी राय रख सकते है अथवा समाज का एक बड़ा हिस्सा हो जिसे  आसानी से गुमराह किया जा  सकता है|







Tuesday, July 19, 2011

वो हरी दूब पैरो के नीचे
मखमल सा एहसास कहा मिलता
इस मिटटी इस पानी में
तेरा सा स्वाद कहा मिलता
खो जाता था में खुशबू में
वो आँगन तेरे हवा थी बहती
अब भूल गया वो खुशबू भी
बस कुछ धुंधली यादें है तेरी

कहते है लेकिन लोग यहाँ पर
मुझमे तेरा ही साया है
तेरे आँचल की छाव मिली
तूने ही साँची काया है
यह रंग रूप सब तेरा है
मेरी तो बस कुछ यादें
जो तेरे सायें में बीती
वो चंद सुहानी सी रातें 

कृते अंकेश






Wednesday, July 13, 2011

श्रदांजलि

एक शहर
उम्मीदों का घर
बसते है जाने कितने दिल
कैसे सकता कोई उजाड़
क्या  उसको न आई  लाज
क्या मजहब का वास्ता
कैसा है यह रास्ता
नहीं सिखाता धर्म कोई भी
दानवता की दास्ता
मासूम मृतक चेहरों से  कैसे
नए सृजन  का  ख्वाब सजोगे
क्या जानो तुम सृजन की सीमा
कभी कही यही मौत मरोगे 
न समझो हम झुक जाते है
बड़े कदम यह रुक जाते है
लेकिन दिल इंसानी ही है
आँखों में आंसू भर आते है


कृते अंकेश






Tuesday, July 12, 2011

उड़ चला रे मन कहा तू
देख छायी  काली घटा
मादक पवन बिखरी सयानी
जाल यह कैसा  बुना
रंग धुंधले  से हुए
आगोश में रवि को लिया
ढूढने खामोशिया 
अब  तू  कहा यु  चल दिया
खो चुकी मै दिन को पहले
अब भिंगोती  बरसात हैं
बह गए सब रंग दिल के
आस ही एक  पास है
पर  तिमिर का क्या भरोसा
कब  कहा वो घात दे
तरसे  नयन तुझको तकेंगे
उस घडी  तू साथ दे
देखती धारा समय की  
भींग तन यह बह गया
है बची जो श्वास  तुझमे 
बस यही मेरा बचा
देख घिरती कालिमा
है भेद जीवन का मिटा
 दे  बता क्या मन में तेरे
ले मुझे कहा चल दिया

कृते अंकेश





Saturday, July 09, 2011

छूटी
कुछ मुस्कानें
चल दिए फिर भी हम
माना असंभव है
कि सभी मुस्कुराएं
पर क्या यह संभव नहीं
हम कुछ और मुस्कानों को ले आये

Tuesday, July 05, 2011

 प्रस्ताव 


चंचलता है इन आँखों में 
कैसे होठो पर ले आऊं 
तुम तो इतने नादान नहीं 
क्या तुमको भी अब समझाऊं

या शायद है यह कोई 
तेरी तरकीब पुरानी सी 
नादान बनी तकती मुझको 
करती हरकत बेगानी  सी 

इस  छिपी हुई सूरत में  अब 
खुद को ओझल में कर जाऊं 
कुछ और शरारत  में डूबू
इन रंगों से मै रंग जाऊं 

या ढकी हुई इन तस्वीरों में 
अपने रंगों को भर जाऊं 
या इन नयनों से जीवन के 
सपनो में तुझको रंग जाऊं  


कृते अंकेश

बचपन की वह शाम मधुर 
सपनो में खेला करते थे 
थी किसे खबर है रात निकट 
बेखोफ ठिठोला करते थे 

लेकिन डूबी यह  संध्या भी 
अंधियारे ने आगोश लिया 
बचपन का छोटा पुष्प कही 
जीवन की दोड़ में छूट गया 


लेकिन  चंचल था मन अब  भी 
पल भर पहचान नहीं पाया 
 ठोकर खाकर संभला जाना 
वह बचपन छोड़ कही आया  


अब सीखा करते है हम भी 
कैसे सपनो को है बुनना 
लेकिन शायद कुछ छूट रहा 
बन बादल  उड़ने का सपना 

जो उड़ता है अपनी लय में 
जग को मुस्कान दिलाता है
कुछ छोटी कागज की नावो में 
सपनो को सैर कराता है

बस अब ढलती धीरे धीरे
अंधियारे की रात विकल
सपनो से खेल रहा होगा
मेरा सोया बचपन कही इधर

 कृते अंकेश


Sunday, June 26, 2011

परिवर्तन 

शहर उसके लिए नया नहीं था | शहर की ऐसी ही गलियों में खेलकर तो वह  बड़ा हुआ था | जाने कितने साल इस  मिटटी से वह खुद को रंगता रहा | लेकिन वह  उसका बचपन था, शायद ही कभी उसने चीजों के पीछे छिपी वास्तविकता को तलाशने की कोशिश की होगी,  उसे क्या पता वह जो करता था  उसका क्या परिणाम होगा ?  उसने यह शायद कभी सोचा ही नहीं |  उसने तो वही किया जो उसे अच्छा लगा | लेकिन आज वह उस बचपन से बहुत दूर है, शहर पहले  जैसा तो क्या आज वो बदल गया है |

कृते अंकेश

Friday, June 24, 2011

तेरी तमन्नाओ में वक़्त ही कहा गुजरा 
बस ये झुर्रिया  समय का एहसास  दिलाती है 
खयालो की खलिश  तो अभी तक ज़वा है 
तू ही है जो कभी नहीं आती है 
लगता है अब तो मौसम ने भी ओढ़ी है उदासी 
कहा गयी  बारिश की बूंदे 
खुले आसमान में भी छाया अँधेरा 
खो चुकी  है इंदु किरणे
चला तेरी यादो का मंथन मैं  करने 
हलाहल ही शायद मुझे मिल जाये 
बनू नील कंठ उन यादो से शायद 
मुझे मेरी मंजिल यु ही मिल जाये 


कृते अंकेश


Monday, June 20, 2011

सन्देश 

जो यदि वो बैठ जाते हाथ पर यु हाथ रख 
तो भला कैसे पहुचते चन्द्र पर मनु के यह पग 
जीत माना  आराध्य है लेकिन असाध्य है नहीं
हार से  कर मित्रता
है जीत का भी मार्ग यही 
राह यह दुर्गम तो क्या 
तूने सरल पथ कब चुना 
मुश्किलों से जूझना ही 
है तेरी फितरत सदा 
फिर भी न हो विश्वास तो 
इतिहास को  ही देख ले 
 थे रहे असंभव पथ 
लेकिन कदम बढते चले 
स्वप्न  के उन्माद में 
निज को भी त्याग दिया
हर घडी मनुपुत्र ने 
एक नया स्वप्न  साकार किया


कृते अंकेश 

Sunday, June 12, 2011

क्रांति की राह में प्राण का है  मोल क्या
या प्रश्न ही है यह अनोखा
इस मार्ग में भी तोल क्या
है समर्पण की भावना या चाह हो जो जीत की
जो दे सको यह जान भी बस चाह में स्वप्न संगीत की
भूल कर जो जा सको
बन्धनों  की दास्तान
जीत कर यदि  ला सको
बन्धनों से दास्तान 
जो चल सको पथ पर सदा न लक्ष्य से होकर विरत

सैकड़ो ठोकर तो क्या है कोशिशो में जय निहित
डूबती शामो में ढूँढती सुबह सदा
क्रांति का कारवा बस यु ही सदा चलता रहा

कृते अंकेश



Wednesday, June 08, 2011

मेरे झरोखे से समय का पता ही नहीं चलता 
 फूलो की खुशबू  भी नहीं आती 
बारिश आकर गुजर भी गयी 
मिटटी की खुशबू कहा मिल पाती 

अब तो अरसा हो गया 
जो भींगा था कभी 
क्या बारिश का पानी अभी भी फैला  है 
या उड़ा ले गयी धूप की तपिश 
 कौन यहाँ रुका  ये जीवन एक मेला है 

कितने रंगों को  समेटे
यह स्म्रतियो  के साये 
तू अभी तक  पलकों में है 
क्या तुझे भी तस्वीर नज़र आये 

यु ही गुजर जाएगी 
समय की यह सदिया 
कभी सम्मुख कभी सपनो में 
बस बनती  रहेगी यह  दुनिया 
   

  

   

Monday, June 06, 2011

अर्धसुप्त बैचैन सा था न्याय की वो आस में 
क्यों उसे उखेड डाला 
किस प्रलोभन विश्वास  में 
था यदि जो दोष कुछ तो 
न्याय का है मार्ग भी 
न पड़े वरना भुगतना
अन्याय की जो राह चली 


 

Wednesday, June 01, 2011

बारिश तेज़ थी, लेकिन घर पहुचने की जल्दी में था , छाते को हाथ में पकडे पैदल ही चल दिया | मानसून की बारिश का भी पता नहीं , आये तो महीनो नहीं आये और अब आई तो थमने का नाम ही नहीं ले रही है | सडको के गड्डे भी बारिश के पानी में उभर कर सामने आ गए है और भ्रष्टाचार की कलई खोल रहे है | आतें जातें वाहनों के पहिये गड्डो में फसकर फुहारों की ऐसी  धार छोड़ जातें है, जो कपड़ो पर अगर पड़ी, तो दाग बनकर आने वाले कई सालो तक इस मानसून की याद दिलाये | पानी भी तो  अनोखा होता है, जब मिलता है, तो हम कीमत नहीं समझते, जब नहीं मिलता, तब  तरसते है | छातें के कवच को चीरती हुई दो चार बूदें गालो तक  आ गयी | जो स्थान आंसूओ के लिए सुरक्षित  ह,ै  आज बारिशो कि बूदें वहा जश्न मना रही है  |  कहते ही है समय बड़ा बलवान | पक्षी भी अचानक आई वर्षा से आश्चर्यचकित है , पंखो को फडफड़ाते हुए कोलाहल मचा रहे है, उनके पंखो  से झरती हुई बूदो में सूर्य की अनेको आभाये देखि जा सकती है | धन्य  है सापेक्षिकतावाद, सत्य भी  द्रष्टिकोण पर आधारित होता है | वरना दो आखे, हजारो सूर्य, वो भी एक ही समय में, लेकिन पानी की उन बूंदों में यह भी संभव है | घर नजदीक आ गया, बारिश भी मंद हो गयी, जैसे  उसे एहसास हो गया हो  कि गंतव्य नज़दीक ही है |  

कृते अंकेश

Monday, May 30, 2011

क्षुदा विक्षिप्त तन भूल गया है 
आँखे सब कुछ बोल रही 
 इस  नुक्कड़ के अधियारे  में
तकती आँखों को तोल रही 
कुछ छूटा कुछ  शेष रहा सा
जीवन कुछ भटका सा है 
इस बस्ती का यह  हिस्सा 
अभी  क्षुदा में अटका है 
देखो देर नहीं हो पाए 
कही श्वास न  खो जायें
इस विकास  में मानवता की
कही आस न खो जाये

Wednesday, May 25, 2011

कितने प्रयत्नों से आती है यह लहरें 
कितनी ठोकर खाती है लहरें 
फिर भी उठती जाती यह लहरें 
तट  के समीप किनारे पर बैठा 
ध्यानमग्न पुरुष 
उसकी  समाधी को शीतलता 
पहुचाती यह लहरें
समेटे ऊर्जा  का असीम संसार 
नहीं करती हाहाकार 
यद्यपि  स्वर है उग्र
प्रबोधक है  उस द्रढइक्छा का
समाहित है जो जलकण में
सागर की तृष्णा ने घोली है इसमें
लक्ष्य तक जाने की शक्ति
चल दिया  वो धीर पुरुष
दूर सागर तट से
खोयी  लहर की तलाश में


Monday, May 23, 2011

अंधियारे में डूब रही है 
देख दिवस की ज्योति है 
कालचक्र के फेर में उलझी 
निज अस्तित्व भी खोती है

वाह निशा तेरा क्या कहना 
दिनकर को भी सुला दिया 
चमक रहे है तारे नभ में 
इंदु भाग्य  को जगा दिया 


तम  की माला ओढ़े  जीवन 
आज निशा में डूब गया
इस बेला के मंद नशे में 
स्वप्न लोक में झूम गया

कुछ बिखरी सी आँखों में बस
मंद हँसी सी तैर रही 
बीते पल के सुख को शायद 
अब  आँखे ही बोल रही 

तेरे आगोशो में सोयी
मनुजनो की टोली है 
छिटपुट सी आवाज़ कही है 
लगता झींगुर की बोली है 

यहाँ वहा निर्भीक डटा 
कोई कर्मवीर सा योगी है 
उसी  साधना से खिल रही 
जग  विकास की झोली है

अंधियारे में डूब रही है 
देख दिवस की ज्योति है 
कालचक्र के फेर में उलझी 
निज अस्तित्व भी खोती है

Sunday, May 22, 2011

कहते है विकास एक सतत प्रक्रिया है | प्रत्येक जाति अपने विकास के लिए प्रयत्नशील रहती है | किन्तु विकास एक सापेक्षिक मापदंड है | विश्व परिद्रश्य में सीमित प्राकृतिक एवं मानवीय अर्जित संपदाओ ने सदैव जातियों को प्रतिद्वंदता के लिए प्रेरित किया है | चाहे वह आर्यों का भारतभूमि  में प्रवेश हो अथवा मुगलों का आक्रमण , ब्रिटिश साम्राज्य ने इसी लोभ के चलते विश्व भूमि  को अपनी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा | किन्तु एक बात स्पष्ट  है,  इस प्रतिद्वंदता के अंत में जो पक्ष  स्थायी रहा, वह विकसित होने के लिए शेष रहा, जबकि  दूसरा पक्ष इतिहास के पन्नो में सिमट कर रह गया | अतएव  विकास में स्थायित्व का होना अति  आवश्यक है | स्थायित्व  के भी अनेक पक्ष  हो सकते है  |  सामरिक एवं आर्थिक पक्ष  इनमे सबसे प्रमुख है  |  किन्तु आज के दौर में  यह सभी पक्ष  एक  मुख्य बिंदु कि  ओर संकेद्रित हो गए है और वह है तकनीक, यु तो विकास कि प्रक्रिया में तकनीक ने सदेव अहम् भूमिका निभाई है, किन्तु समय के साथ साथ इसकी भूमिका में अत्यधिक परिवर्तन आया है | यदि हमें अपने विकास को स्थायी बनाना है तो हमें तकनीको के आयाम में सर्वोपरि होना होगा | यह तभी संभव है जब हम अपने शैक्षिक एवं शोध प्रबंध को अतििविकसित बनाये |  किन्तु यहाँ एक प्रश्न  यह है कि हम अपने शोध को संकेद्रित करे या विकेन्द्रित , यहाँ संकेंद्रित से मेरा अभिप्राय लक्ष्य आधारित शोध से है , जो स्वभाभिक्त: हमारे विकास को स्थायी रख सकता है, किन्तु वही हो सकता है कि कुछ महत्वपूर्ण शोध हमारे आयाम से बाहर ही रह जाये | अत: हमें अपने संसाधनों को ध्यान  में रखते हुए  अपनी नीतिया निर्धारित करनी होगी | व्यावसायिक  संस्थानों कि  भागीदारी से यह प्रक्रिया ओर  भी  आसान बनायीं जा सकती है | आशा है हम अपने मिशन में सफल होंगे |

अंकेश
जीवन के पन्ने जो खोले कभी थे 
उन्हें रंग चला समय का यह साया 
खयालो में शायद जमे अब ये महफ़िल 
जो किस्सा कभी कोई याद आया 

कृते  अंकेश



Thursday, May 19, 2011

दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित
लगता यह विचित्र
है स्वभाभिक
है आदि अनंत
यह काल भ्रमन्त
अपराधिक मन
समुचित संकुचित
दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित
व्याधि ग्रसित
नर मन विचलित
क्षण भंगुर तन
अस्थिर अस्मित
यह जीव तरन्ग
वह नग्न बदन
है सूर्य किरण
अर्जित अर्पित 
दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित
समसार व्यथा
संसार कथा
सर्वत्र यहाँ
दर्शित हर्षित
वह  विद्व यहाँ
जो जान सका
सापेक्ष समर
सब कुछ निर्भर
दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित

Sunday, May 08, 2011

 माँ

खो रही है श्वास  भी, जो बस इसी विश्वास  में 
कर सकू में कुछ बड़ा, है वो सदा इस आस  में 
सेकड़ो  दुविधा रही, फिर भी सदा हँस कर सहा
माँ तेरी हिम्मत से ही मुझको मिली दुनिया यहाँ 
 
दूर तुझसे हूँ तो क्या, साँसे मुझे तुझसे मिली 
दिख रही है जो छवि , थी तेरी ही काया कभी 
आपसे, पापा से ही, सीखा था चलना बोलना 
आज रचता हूँ स्वरों को, जो कभी सिखला दिया

 तेरी आँखों की नमी में है छिपी ममता सदा 
तेरे चरणों से मिली आशीष की धारा   सदा 
आज में जो हूँ जहा हूँ तेरा ही में अंश हूँ 
माँ तेरे  इस अंश में रखना छवि अपनी सदा

कृते अंकेश

Thursday, May 05, 2011


 अनकही 

तेज़ी से अपने कदमो को बढ़ाते हुए ऑटो की और दोडा | "तिलक नगर चलेगा" ऑटो वाले से पूछा , हा चलेंगे, ऑटो वाला बोला | कितना लेगा?  मैंने कुछ अकड़ कर कहा  | २०० रूपया, ऑटो वाले ने अपनी गर्दन ऑटो से बाहर  निकालते  हुए बोला | . "अरे पर वहा का तो सौ रुपया ही लगता है |" में  आश्चर्य की मुद्रा में आकर बोला |  . लगता तो १० रुपया भी है जाओ बस के धक्के खाओ और चले जाओ , यह  कहता हुआ ऑटो वाला आगे की और बढने लगा | शाम का सात बज चुका था और दूर दूर तक किसी सवारी का नामोनिशान भी नहीं दिख रहा था.  भागते भूत की लगोटी ही भली |  यह सोचकर मैंने  आखिरी पासा फैका | अच्छा १५० लेगा. मेरे इस प्रसताव को ऑटो वाले ने  इतनी निर्ममता के साथ ठुकराया, मानो बहुमत से चुनी गयी सर्कार  विपक्षी  पार्टी की मांगो को ठुकरा रही हो |  अब तो मुझे  अपनी मोलभाव की क्षमता    पर शक होने लगा | पर मरते क्या न करते दलबदलू नेता की तरह तुरंत से ऑटो में घुसे और बोला चलो | अगले ही कुछ पलो में ऑटो दिल्ली की व्यस्त सडको से गुजरने लगा . सड़क के दोनों और विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों में बनी हुई दुकाने कृत्रिम रौशनी से जगमगा रही थी | ऐसा लग रहा था मानो निशा के आगमन के लिए  पूरा शहर सजा हुआ बैठा हो | रोशनियों की कटती पिटती परछाई में चेहरे की झुर्रिया साफ़ देखी जा सकती थी .  कहने को तो पिछले २५ सालो से दिल्ली में ही रह रहा हूँ , लेकिन हर दिन लगता है, जैसे अनजानों की तरह एक नए शहर में भटक रहा हूँ | सुबह के साथ शहर की गलियों से पहचान बनती है ,तो रात के अंधियारे में यह अनजान मोड़ की तरह मुझे भटकाने लगती  है | वैसे भी मैंने इनको समय ही कितना दिया परिचय लेने या देने का | जीवन की व्यस्तता में कहा घूमा, कुछ पता ही नहीं | अब तो इतना सोचने का समय भी नहीं मिलता |  विचारो  में मग्न ही थे कि  ऑटो वाले ने बोला, साहब तिलक नगर | अगर ओर आगे  जाना है तो ५० रुपया एक्स्ट्रा लगेगा | गुस्सा तो बहुत आई पर सोचा खामख्वाह क्यों अपना वक़्त जाया करे| उसे २०० रूपये दिए और घर की और चल दिया |


Wednesday, May 04, 2011

 चिंतन

क्यों टूटे यह  सपने 
उड़ने  की ही तो तयारी थी 
रंग भरे थे तस्वीरो में 
स्याही  अभी सवारी थी 

उलझन में डूबा मन 
जाने कौन राह पर भटक गया
मेरे  नयनो से झर कर 
एक  आंसू फिर से निकल गया 

उम्मीदों की दुनिया ने
 हिम्मत क्यों अब  हारी थी
गूँज रही मेरे दामन में 
उसकी ही किलकारी थी
 

क्यों टूटे यह  सपने 
उड़ने  की ही तो तयारी थी

 
 

Sunday, May 01, 2011

तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 

 जा जीत ले तू जिन्दगी 
हर  लक्ष्य को तू प्राप्त कर 
तेरी विजय की रात में 
मैं कामिनी बन जाऊंगी 

तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 

आखेट सा मेरा गमन 
यह जिंदगी है अनुसरण 
हर अधूरी  प्रतिज्ञा का 
मोल  मैं अज्माऊंगी 

तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 

बन विरागी  जीव सा 
मेरा वियोगी अंतर्मन 
कर रहा है साधना 
उस स्वप्न सुख का चिंतन 
उस अधूरी रात की 
मैं  रागिनी बन जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 
 
तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 

Friday, April 22, 2011

उस बारिश में भीगा था मन 
अब तक पलको में पानी है
ख्वाइश तो पंख लगा उड़ने की थी 
लगता अब सब नादानी है

रेत में खीचे चित्र यहाँ 
पल भर के साथी होते है 
लहरो का जो साथ मिला
 बन सपनो के वासी होते है 

आँसू को  दोष भला क्यो दे 
उसकी  तो फितरत बह जाना 
पलको ने सब कुछ देखा था 
इनको तो था चुप रह जाना   

अब तो मन भी अपने पास नहीं
ख़ामोशी का बस साया है
आहट भी शोर सी लगती है
न कोई आता जाता है

ढलती शामो में डूब रहा
जीवन का यह बेरंग सा पल 
बारिश तो आती जाती है 
मन क्यो है इतना यह चंचल 

उस बारिश में भीगा था यह
अब तक पलको में पानी है
ख्वाइश तो पंख लगा उड़ने की थी 
लगता अब सब नादानी है

Saturday, April 16, 2011


महावीर स्वामी 

आज उदित था हुआ दिव्य एक 
त्रिशला नंदन राजकुमार
मगध प्रांत, वैशाली ग्राम में 
वर्धमान  था उनका  नाम 

नन्हे बचपन ने जीवन को 
अल्प काल में जान लिया 
वीस वर्ष की आयु में
असमंजस को पहचान लिया

उठी दिव्य सी आभा मन में
ज्ञान ज्योति को जला दिया
राग द्वेष बंधन को छोड़ा
निज अम्बर को उड़ा दिया

त्याग चले इस  मोह पाश को
जन्म मरण सब भ्रम  है जान
 धीर वीर महावीर नमन है 
दिया अहिंसा का जो ज्ञान

कृते अंकेश

Friday, April 08, 2011

कितना और सहेगे बोलो
किस कीमत की आज़ादी है
न्याय मागते  श्वांस  लड़ रही 
जीवन जंग  भी भारी  है 
यही भगत की राष्ट्र  भूमि है 
यही शिवाजी की शाला 
इसी माटी का एक पुत्र यह 
चला पहन अब वरमाला    
उस पग की छाया भी अब 
भ्रष्ट तंत्र का काल बनेगी 
इतने हलके में न लेना
कोटि पगो से राह पटेगी 
अभी  गुजारिश बस है इतनी 
इतनी हिम्मत दिखलाओ 
अन्ना जी की माँगो को 
शीघ्र स्वीकृति में ले आओ
कृते  अंकेश 
   
 

 

Saturday, March 19, 2011

मेरी  होली   

कोरे कागज से बचपन में
माँ ने प्यार का रंग चढ़ाया 
पापा ने सिखलाया जीना
ज्ञान रंग उनसे ही पाया
भाई तेरा रंग अनोखा
तुझ बिन बचपन सूना होता 
खेल खिलोने प्यारी दुनिया
यादगार हर पल न होता 
मिली ज्ञान की दूजी शिक्षा
विद्या का आँगन था प्यारा
नन्हे मुन्हे चंचल मन को
बेशकीमती रंगों में ढाला
नन्हे मुन्हे मेरे साथी 
कितने रंग थे मैंने पाए
भीग  रहा था रंग बिरंगा
यह पल कभी भी ढल न पाए
आज रंगों की पावन बेला
रंगों में रंग जाऊँगा
आने वाले जीवन को भी
इन रंगों से सजाऊँगा
 
 
कृते अंकेश    
   

Wednesday, March 16, 2011

आकांक्षा 

जा पंथी अब छोड़ मुझे 
मैं बीते कल की दासी हूँ
एक पहेली अनसुलझी सी
कोई ग़ज़ल पुरानी हूँ

पैमानो के जोर में अटकी
आज भी तोली जाती हूँ
एक अधूरी मृग आकांक्षा
नयनो  के गोते खाती हूँ 

  
जा सपनो के रंगो में उड़कर
तू अपनी मुस्कान सजा ले
गम की छाया छोड़ यहाँ पर   
खुशियो के तू रंग बहा दे

देख वाबरी अंधियारी रातें
में अपनी सेज सजा ही लूंगी
कदमो के जाने की आहट से
अपना रंग मिटा ही दूँगी

सूरज की किरणे फिर से जब
तेरे मस्तक से टकराएंगी
सारे रंग भूल  श्वेत सी
स्मृति उभर कर आएगी

मेरे रंगो का वह धागा
हो सके अगर तो लौटा देना
जीवन की शैय्या  पर बिखरे 
स्वप्नो को मिटा देना

     
 कृते  अंकेश 
   

Tuesday, March 15, 2011

क्षण भर के कम्पन ने फिर से 
एक नयी त्रासदी ढा दी 
कितनी सूक्ष्म असहाय जिन्दगी 
 जल तरंग ने पल में बहा दी 
असंभव घटनाओ का
यह कैसा क्रम है छाया
नाभिकीय विस्फोटो  से
विकिरण  निकल बाहर है आया
ढूढ़ रहे है दूर दूर से
आये  नयन मनुज के तन को
अपने स्वप्नो के मलवे में
छिपे हुए मानव के मन को
स्वयं झूझती सीमाओ से
आज अर्ध्सुप्त सी काया
सकल विश्व हुआ एक है
यह संकट मानव पर आया

  
 
 
 


   

Thursday, March 03, 2011

कुछ तत्वो का संगम है
कुछ नियमो की शक्ति  है
मानव काया इस श्रृष्टि की
एक अनोखी गुत्थी है
आयामो  की सीमा में यह
सदा मध्य में आती है
जितनी छोटी आकाश गंगा से  
अणु  को उतना पीछे पाती है
सदियो के विकसित क्रम का यह
परिणाम अनोखा  लगता है
रहे समय के किसी दौर में
सदा ज्ञान को तकता है
भाव, बिभाव, शक्ति, सौन्दर्यता
जीवन के आयाम यहाँ
ध्येय ज्ञान है, लक्ष्य ज्ञान है
जीवन में विश्राम कहा   





      

Monday, February 28, 2011

समय कितना तेज़ी से बदला, जिन चीजो  से हमारा परिचय उम्र के दूसरे दर्जे में हुआ, आने वाली पीढ़ी को वो विरासत में ही मिल गयी.  देखते  ही देखते  भावी जनरेसन  हमे कितना पीछे छोड़ गयी, पता ही नही चला. क्रांति हथियारो  से नही विचारो से होती है, कितना सटीक उदाहरण  हैं, सूचना क्रांति को ही ले लीजिये, चिठ्ठी  ने न जाने कब  मेल का रूप ले लिया  और फोन कैसे   घर घर में पहुच गया, इसकी भनक भी न लग सकी. मौगली , रंगोली और साप्ताहिक  आने वाले अनेक नाटको  के लिए बेसब्री से हफ्ते भर इंतज़ार करने वाले इंसान ने चैनलो का ऐसा पुलिंदा बना दिया, कि हम साथ साथ नाटक देखना भी भूल गए. परिवर्तन के इस युग में गलियो में भटकने वालो बच्चो के झुण्ड, चेट रूम्स में भटकने लगे. वैसे भी उम्र के इस पड़ाव में नियंत्रण की किसे परवाह होती है. खुली धार की भाति जहा दिशा देखि चल दिए, भले ही मौड़ कितना ही भयानक एवं  रास्ता कितना ही खतरो  से भरा क्यो न हो. आज़ादी के अपने फायदे भी है, शिक्षा, चिकित्सा , विज्ञान, खेल अवं अन्य अनेको आयामो में विश्व भर से विचारो  का आदान प्रदान द्रुत गति से होने लगा. परिवर्तन की ऐसी बयार चली कि सरहदे भी धुंधली होने लगी. सामाजिक संगठन परिवर्तित होने लगे. हम एक दूसरे के नजदीक आते गए,  किन्तु हमारे प्रभाव की  सीमा उतनी ही विस्तृत होती गयी. राष्ट्र एवं समाजो की आन्तरिक  समस्याए  विश्व पटल को प्रभावित करने लगी. अमेरिका में होने वाली घटना  का असर मुंबई के स्टोक मार्केट पर दिखने लगा. लीबिया में व्याप्त असंतोष से कच्चे तेल की कीमतो ने आसमान छूना प्रारंभ कर दिया, पटना के एक आम इंसान की जेब भी इससे प्रभावित हुए बिना न रह सकी. लगता है जैसे कि हम एक विकसित किन्तु संवेदनशील भविष्य की और बढते जा रहे है. जहा हमारे मध्य सामंजयस्य हमारे स्वय के अस्तित्व से भी अधिक आवश्यक हो गया है. हम केवल भौतिक ही नहीं सामाजिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं हर प्रकार से एक दूसरे को प्रभावित करने लगे है. विकास  का यह बहुत ही आकर्षक पहलू है. जहा हमे अपने अपने क्षेत्र के गुड़ दोष निखारने का  मौका अनायास ही मिल जाता है. लेकिन अगर हमने यह मौका गवा दिया तो प्रकृति स्वयं  ही किसी  एक को चुन लेगी, लेकिन प्राकृतिक चयन सर्वोतम ही हो ऐसा आवश्यक नही है.