Sunday, April 27, 2014


इस अंधियारे युग में तुम जिसे प्रकाश समझते हो
वह तो एक दावानल है
अभी तुम्हे जगमगाहट दे रही है
लेकिन दूर नहीं दिन
जब वो सब कुछ जला जाएगी
जो लोग तुम्हे इससे दूर जाने को कहते है
समझो कि  वो तुम्हारे शुभचिंतक है
वैसे इतना आसान भी नहीं है
प्रकाश को छोड़कर अन्धकार में जाना
लेकिन जो प्रकाश तुम्हे अनायास मिला है
वह तुम्हारा कैसे हो सकता है
समझो की यह मात्र भ्रम है
चेतो इससे पहले कि तुम्हारी चेतना शून्य  हो जाए

कृते अंकेश

Tuesday, April 22, 2014


इस कोरे  कागज़ पर लिख सकते हो रहस्य अंतरिक्ष के
सुलझा सकते हो सभी  समस्याएं विज्ञानं की
अंकित कर सकते हो गणनाएं जटिल से जटिलतम

या लिख सकते हो एक कविता किसी के अनुभावो की
अथवा कोई कहानी वास्तविक या काल्पनिक
भरना चाहो तो भर सकते हो  इसको रंगो से
सजा सकते हो अपने सम्पूर्ण सपनो को इस पृष्ठ में

 दे रहा है समय तुम्हे मौका
 इस पन्नें से होकर बार बार इस दुनिया में गुजरने का

कृते अंकेश

Saturday, April 19, 2014


लल्ला चो रे
को जीतेगो जा बेर
टोपी कि मोदी
का कहतु है
अरे चचा पंजा ए काए भूल गए
तुमन्ने तो वइये जितायो  है हर बेर
अरे लल्लू का बताये
ससुर जो हाथ सर पे समझत रहे
वो गलो दबा के निकल लओ
अबे तो तू बता
काइको बटन दवाएगो
टोपी कि  मोदी

कृते अंकेश

हाथ में लेना तिरंगे को अगर अभिमान है
इसके रंगो की अगर तुमको फिर पहचान है
देखना न रंग कोई फिर तुम्हारे माथे चढ़े
जो चढ़े तो बस तिरंगा ही हमारी मृत देह पर चढ़े

कृते अंकेश
वो थी बात पुरानी जब नर होता था नारी पर भारी
आज की नारी डायटिग करती, होती खुद ही न भारी
मनुष्य को देवता न बनाओ
सर्वत्र उसके गुण न गाओ
वह इस भूमि के अपराधो का भागी है
उसे स्वर्ग में न लेकर जाओ

कृते अंकेश
फागुन की रिमझिम की झिम झिम
भींझ रही गलियन, गलियन के जन
पोखर बन गयी सिगरी गलिया
बाल चलावे नावन की नदिया
लगो की आयो फिर से सावन
छाड़ लाज़ भींजत है जन मन
फागुन की रिमझिम की झिम झिम

फिर फिर आवत जाड़े की कपकप
होली जले तो आवे राहत 
त्योहारन को लगो महीना
जमके सबको भंग है पीना
करत रहे सब बस यह बतिया ठोरे
फागुन कि कछु बातही औरे

फागुन की रिमझिम की झिम झिम

कृते अंकेश
कहू किसे यो मन की बात
सभी सखी कान्हा के साथ
क्या कान्हा रूठे है मुझसे
कौन बतावे मुझको आज
बंसी आज तुझे नहीं कोसू
तू ही श्याम का ध्यान बटा
इन गोपियो के जमघट से तू
मेरे कान्हा को मुक्त करा
फिर चाहे तू ही कर लेना
उसके अधरो पर अधिकार 
व्याकुल मन की पीड़ा को पर
हर ले ओ मुरली तू आज

कृते अंकेश
मनमोहक ग्वाला नन्द का लाला, वो ब्रजवाला गया कहा
बंशी को छाडे, गइयन को ठारे, राधा का प्यारा गया कहा
श्यामल अखिया, धावल बतिया, मोर मुकुट, कटि कमर कसे
ग्वाल बाल संग आवे जावे, मुख माखन तस्वीर सजे
कहा ओ मैया तेरा कन्हैया, किस बंसी के साथ फिरे
सूनी गलिया तीर है यमुना, ब्रज अब किसके संग हसे

कृते अंकेश
मन मोहक मुस्काती मुरली, मुख माखन मस्तक मोरपंखी
मृदुल मनोहर मणिकर मध्ये, माधव मन मंदिर में मिलते
माटी मथुरा माथे मंजुल, मानस मांगे मिलना मधुकर
मिटतो मन मेरो मोह में माधो, मेरी मन मझधार मिटादो

कृते अंकेश
बोलो किसकी यह तैयारी है
जब साथ में भ्रष्टाचारी है
दल बदलू इससे उससे
क्यो हुई दोस्ती प्यारी है
है सत्ता तो दूर अभी
माना तुम मशहूर अभी
पर प्यारे न यु चाल चलो
जीती बाज़ी न हार पड़ो

कृते अंकेश
कौन बताऔ जग में ऐसा
जिसने खेली है न होली
कोई खेला इसके रंगो से
और किसी की रंगी है चौली
यह न पूछो रंग यहा पर
किसने किस पर कैसा डाला
सभी हुए रंगीन यहा पर
रंगो का यह खेल है सारा
आऔ खोकर सुधबुध अपनी
इन रंगो में ही खो जाए
रंगो से ही अपने जीवन को
इन रंगो सा रंगीन बनाए

कृते अंकेश

इक मन तन्हा
इक मन सूना
इक मन ख़ामोशी में गुमसुम
कितने टुकड़े, कितने जीवन
कितने पल और कितनी उलझन

कृते अंकेश

हैं मनोहर नग्न पीड़ा
आसुंओ का आघात भी
विष के प्याले है सुखोदर
और घृणा का साथ भी

हार में भी है मजा और
मूल्य तिरस्कार में
मिलते है अनुभव अनोखे
हुए दुर्व्यवहार में

लेकिन रहे है जो अभी तक
सीमा में स्नेह और प्यार की
जानते है क्या वो सीमा
इस अनोखे संसार की

कृते अंकेश

कुछ नटखट सा कुछ चंचल सा
ऐसा ही होता है बचपन
माँ की गोदी से पापा के हाथो में
होकर गुज़रना होता है बचपन
अपनी सारी मांगो को बेहिचक मनवाने का
अधिकार होता है बचपन
और सभी लोगो से ले लेना
ढेर सारा प्यार, होता है बचपन

अपनी शैतानियो से लोगो को 
हँसा देना होता है बचपन
बस यु ही किसी भी बात पर
आंसू बहा देना होता है बचपन
चीज़ो को सीखने की असीमित
और अटूट लगन होती है बचपन
मनुष्य के जीवन की
सुनहरी किरण होती है बचपन

कृते अंकेश
मुझको डुबो कर गया है समय जितनी बार
निखर गया है यह चेहरा उतनी ही बार
धुल गयी है शंकाए मेरे मन की
बह गयी है कश्मकश जीवन की
नहीं दिखें इस चेहरे पर फिर चिंताओ के तार
मुझको डुबो कर गया है समय जितनी भी बार

कृते अंकेश
दोहा

मोदी आगे बढ़ रहे, खीचे केजरिवाल
मैडम फ़ौरन से कही, लेट्स मेक सरकार

कृते अंकेश

जो कहते है
इन इंसानो को
आता ही नहीं चलना, उड़ना
जाना ही क्या है, उनने अभी
सपना इंसा का है अपना
उड़ता है वो, बहता है वो
रहता है वो, अपने में मगन
यह दुनिया अभी इस काबिल न
समझे जो उस इंसा का मन
रंगता है वो, लिखता है वो 
छेड़ा करता है धुन भी नयी
माना कुछ शब्द है मिले नहीं
पर यु कविता रही न अधूरी कभी
उसको इन सपनो को चुनकर
है रंग हकीकत में ढल जाना
चेहरे बदलेंगे सपने भी
पर हर सपने को सच कर जाना

कृते अंकेश
मोदी विकास पुरुष नहीं विनाश पुरुष है
शादी न कर वंशवाद का विनाश किया
इतने सालो में एक अच्छा सा घोटाला न कर
पूजीवाद का विनाश किया
गुजरात को औद्योगिक बनाकर
साम्यवाद का विनाश किया
सदभावना रैली करवा कर
धार्मिक भेदभाव का विनाश किया
नादान है वो जो कहते है की
मोदी विकास पुरुष है

कृते अंकेश
लैपटॉप पर कोडिंग करती
की बोर्ड चलाती माँ
में जाकर हेल्प कराऊँ
तो मुझे दूर भगाती माँ
ए इ आई बोल समझाऊ
फिर भी हेल्प नहीं लेती माँ
जब तक में गुस्से से न चिल्लाऊ
लैपटॉप नहीं छोड़ती माँ
 
थी वो छोटी सी बमुश्किल साल भर की ही रही
में नया था उस शहर में
वो थी दुनिया में नयी
दूर से देखा मुझे और दूर से निकली गयी
खींचती रेखा अनोखी
मानो कहती हो
सोचना इसमें आने का भी नहीं
था वो मेरी मौसी का घर
धर्म की नगरी प्रयाग
डाला था मैंने वहा
अपनी शिक्षा का पड़ाव
और फिर दिन कैसे गुज़रे
था समय भी दौड़ता
उस दौड़ के ही बीच में
कुछ समय मौसी के घर में भी गुज़रता
और वो नन्ही सी लड़की
कब मेरी गोद तक आने लगी
कुछ सुने और कुछ अनसुने अपने मन के किस्से सुनाने लगी
और भी बच्चे वहा थे पर वो उनमे सबसे छोटी रही
अपनी बातो से सदा वो ध्यान मेरा मोहती रही
कहती मुझको अंकेश वो
भइया भी थी जोड़ती
बाक़ी बच्चो से अलग पर वो नाम मेरा बोलती
मुझको यु तो उसने सिखाया काफी कुछ था उन दिनो
पर में बड़ा था सीख न सकता था सब उसकी तरह
पूछती मुझसे थी क्यो स्कूल में रहते हो तुम
मैंने बोला सब बड़े रहते है तो हो जाती गुमसुम
और फिर अगले ही पल बोली की होगे आप भी
में हँसा तो हसने लगी फिर वो मेरे साथ ही
खेलती थी खेल सारे वो मेरे साथ ही
हार कर भी जीतता में
उसकी हसी नादान थी
मुसकराती थी वो हमेशा
खेल से अनजान सी
लाती ठहाको का भी डेरा
सोचती हैरान सी
और फिर पूरा हुआ
मेरा भी शिक्षा का यह क्रम
बोला उसको फिर मिलेंगे
आप पड़ना लिखना फिर आ जाना स्कूल में मेरे ही संग
वो मगर अचरज में थी
था उसे न यह पता
में नहीं हिस्सा वहा का
चल भी दूंगा इस तरह
उसके बचपन ने हमेशा देखा मुझको था वहा
और अचानक छोड़ना मुझको भी अच्छा न लगा

कृते अंकेश

कितनी रातें थक कर मुझसे यु ही चुपके से निकल गयी
सुबह की किरणे उनके जाने का सन्देश लिए ही खड़ी रही

कृते अंकेश
वो हसे
और हस कर इनकार कर दिया
थी वही हसी
जिस पर हमने सब कुछ इजहार कर दिया
है कायदे यह वक़्त के
और मौसम के मिजाज़
मिलते है अब भी
लेकिन अब हम भी हसते है उनके साथ

कृते अंकेश
क्या सुन सकोगे गीत मेरा
ला नहीं पाया संगीत निरा
मांगू कैसे यहाँ मधुरता
जब फैली है निष्ठुरता

कह दे कोई उपवन है मेरा
सीचा इसको बस प्रेम से था
उजड़ा कैसे फिर घर यह मेरा
शत्रु परिचित उपवन में ही था

में आज भी लेकिन गाऊंगा
फिर गीत नयी उम्मीदो का
है सीखा मैंने जग से इतना
मुस्कानो को मिलने दो मौका

कृते अंकेश

थे कहा तुम
दूर पलके
थी निहारा करती प्रतिदिन

थे कहा तुम
मेघ आते
और बरसते यु ही रिमझिम

थे कहा तुम
यह पवन भी 
शोर करती थी सारा दिन

थे कहा तुम
रात बीती
जैसे बीता हो यह जीवन

कृते अंकेश

कितने शब्द बिखेरू आज
कुछ शब्दो में छिपा के राज़
केह जाऊ क्या सारी बात
कितने शब्द बिखेरू आज

सुनने वाले तोल रहे है
मेरे शब्दो के आगाज़
सुनने से ही पहले लगते
उनके है बदले अंदाज़
कितने शब्द बिखेरू आज 

मेरे शब्द बहुत है थोड़े
यहाँ वहा से लाकर जोड़े
कर सकता बस सीधी बात
नहीं छिपा सकता कुछ राज
कितने शब्द बिखेरू आज

कृते अंकेश

छोड़ न साथी साथ अभी
लम्बी है यह रात अभी
अधियारे मे कौन कहाँ
जाए बिछुड़ न चले पता
कुछ सभ्हले जो रात अगर
बनती हो जो बात अगर
फिर सुन लेना मुझको भी
कह देना जो दिल में थी
शायद हम जिद छोड़ भी दे
सपनो का रूख मोड़ भी दे 
तब तक आ खामोशी पी
यह पल भी मैरे साथ ही जी

कृते अंकेश
भौर भयी मन
खोल रे अखिया
आती किरण भी
जगती है सखियाँ
लाये नये रंग
दिन का उजाला
कोई सजायें
सपनो का प्याला
खेले कोई
पलको के किनारे 
करता रहे कोई
बस यू इशारे
सपनो की धुन में
कोई है जाता
पवनो का झोका
हमे भी झुलाता
मन मेरा जैसे
वासुंदी खाये
आकर हमे भी
कोई जगाये

कृते अंकेश

माँ एक किताब लिखी जो तूने
उसका पन्ना आ उड़ यहाँ गिरा
लोग जरूरत पड़ने पर है पढ़ते
तुझ सा इसे न कोई समझा

यहाँ किताबे इतनी सारी
क्या तुझको में बतलाऊ
तेरा आँचल भी तो नहीं है
बोल कहा अब छिप पाऊ

तूने रखा संभाले जिसको
वो अब धूल में उड़ता है
पन्ना है यह लेकिन तेरा
अपनी लेखनी से टिकता है

कृते अंकेश
यहाँ भूख से अकुलाते बच्चे की छाती अड़ी रही
और वहा उस थाली में रोटी बेसुध सी पड़ी रही

कृते अंकेश

बस साध लीजिये बात
जुड़े फिर  जाने किससे
कितने होगे हाथ
आएंगे किसके हिस्से

यह दुनिया है  घर
कि बेघर ढूंढें ठिकाना
आये गए है कितने
कितनो ने पहचाना

में समझा  कुछ बात
की पाया खुद को भ्रम में
बीत जाये यह रात
चले जायेंगे नभ में

कृते  अंकेश

Friday, April 11, 2014


पेट भरा जो हिन्दू का
जपे राम का नाम
मुस्लिम भरे पेट से करता
अल्लाह ही का ध्यान
जो खाली रह जाये फिर
हिन्दू मुस्लिम का पेट
आती दोनो के ध्यान में
चीज़ वही फिर एक
मिले कैसे न कैसे
खाना कही भरपेट

कृते अंकेश

Tuesday, April 08, 2014


कुछ कविताये छोड़ कर गया था
आकर देखा तो स्वीपर ने फेक दिया था कूड़े में
बेकार का समझकर
उसने तो गिनी भी नहीं होगी
कितनी कवितायेँ है
मेरे कहने पर बोला
सर आप कहे तो कुछ कविता लाकर दूंगा में
मेरी बस्ती में भी एक आदमी कवितायेँ लिखता है
फेक देता है कभी कभी मेरे कूड़े में
आपके जैसे ही पेज होते है कुछ खाली कुछ भरे 
मुझे उसका प्रस्ताव अच्छा लगा
सोचा इसी बहाने कुछ नयी कवितायेँ पड़ने को मिलेंगी
और कूड़े में जा चुकी कवितायेँ अपनी किस्मत पर पछतावा नहीं करेंगी

कृते अंकेश