Tuesday, November 29, 2011

वह आया और बोला
यीशु और सुकरात तो भले लोग थे
फिर भी मारे गए
फिर क्यों कहते हो आप भला बनने को
पल भर में स्तब्ध रहा
फिर बोला कुछ साहस कर
म्रत्यु अंत नहीं होती है
जीवित है  आज भी वह
मष्तिष्क में उभरते विचारो में 
लेकिन यदि कही वह झुक जाते
तो शायद जीवन झुक जाता
मैं भी अबोध हूँ
ज्ञान नहीं मुझको जीवन का
लेकिन इतिहास बताता हैं
जो हुआ समर्पित परहित को
वही जीत कर आता है

कृते अंकेश





Monday, November 28, 2011

इन हवाओ में क़ैद है मेरे कुछ ख्वाब , उड़ने के जज्बे ने संभाले रखा है , कभी फुर्सत मिलेगी तो दिखायेंगे तुम्हे . इन हवाओ से अपना क्या रिश्ता है || (अंकेश )



देख गगन में घिरते मेघो को नहीं तरसती
उन नयनो ने जल की इतनी धारा बरसाई

गए सूख पर वह कपोल न जाने कब से
उन आँखों में नमी कही भी नज़र न आई


कुछ विषाद सा भरा हुआ है सीने में उसके
वक़्त बीतते  जड़े हुई बस गहरी जाती
न जाने किसे ढूढती  विस्मृत आँखे
ऐसा भी दिखलाती क्या रूप जवानी 


कृते अंकेश



Saturday, November 26, 2011

बादलो के घेरे से
पवन उठ कर बहने लगी
खिडकियों के कांच से
शायद कुछ कहने लगी
मेज़ पर रखी किताबे बस पन्ने पलटती गयी
धूप को यह क्या हुआ
बिन बताये चल पड़ी
बारिश  की बूंदों ने भी अपना रुख इधर किया
पल भर में ही एक विपदा के आगमन ने मुझे चिंतित किया
 
 कृते अंकेश










है असत्य
कहता यदि कोई विजय रण में हुई 
लाशे गिरी दोनों तरफ से
माँ की गोदी सुनी हुई
आंसूओ का मोल क्या
बस हार और यह जीत है
है धरा जब एक ही
तो क्यों उलझती प्रीत है
स्वार्थलिप्त जीवन में उलझा
बस यहाँ मनुष्य है
लड़ रहा है स्वयं से
हारता मनुष्य है

कृते अंकेश 
नीड़ तुम कितने घने हो
है सघन मेरा भी मन
बढ रहा हूँ में भी प्रतिक्षण
चाहता हूँ में भी पाना
आकाश की ऊंचाइयों को
लेकिन नहीं में जान पता
यह नहीं पहचान पाता
इस बदलते परिवेश में
कैसे अडिग तुम खड़े हो
नीड़ तुम कितने घने हो

कितने बसाये घोसले हो
फूल और फल से लदे हो
ग्रीष्म,शीत और शिशिर में
एक से ही बस  खड़े हो
काश में पहचान पाता
राज़ यह में  जान पाता
इन गुणो से जीवन में अपने 
तेरे सद्रश सम्मान पाता 
नीड़ तुम कितने घने हो

 कृते अंकेश
चिर परिचित
प्रतिपल प्रतिक्षण
जीवन मुस्कान अधर चंचल
है स्वेत  राग श्रृंगार विरल
नयनो में डूबे हुए नयन
फिर कैसी मुख पर लाज बसी
क्या सीमाओ से घबराना
यह मिलन यामिनी जीवन की
मिटकर इसमें है मिल जाना

कृते अंकेश

Saturday, November 19, 2011

इन हवाओ में  क़ैद  है मेरे  कुछ  ख्वाब
उड़ने के जज्बे ने संभाले रखा है
कभी फुर्सत मिलेगी तो दिखायेंगे   तुम्हे
इन हवाओ से अपना क्या रिश्ता है

(अंकेश )  

Sunday, November 13, 2011

यह ख़ामोशी
जानी पहचानी तो नहीं है
छिपाए अंतर में गूढ़ रहस्य
कर रही है इंतज़ार
किसी परिचित का
चिल्लाती हवाए
भला मौन को कहा विचलित कर पाए
यह तो है शाश्वत
स्वर तो बस भ्रम मात्र है
जो लाते है सुख को दुःख को
वरना भला किसी ने क्या रोते देखा है पत्थरों को

कृते अंकेश

Tuesday, November 08, 2011






मेरी अपनी सीमाएं है
कहता जितना कह पाता हूँ
चाहे  जितना ही कह डालू
कुछ अनकहा छोड़ ही जाता हूँ

जीवन के पथ पर शायद
कोई इनका अर्थ बना लेगा
मेरी ख़ामोशी में छिपे हुए
शब्दों का भाव बता देगा

कृते अंकेश 

Wednesday, November 02, 2011

अगर पंख जो मेरे  होते 
दूर गगन तुमको ले जाता
पर्वत नदिया झरने सबकी 
पल भर में ही सैर कराता

खूब खेलतेफिर हवाओ में 
पलक झपकते ही खो जाते 
थक जाते जो यदि कही तो
पेड़ो के मीठे फल खाते

फिर यह सारी सुन्दर  चिड़िया
अपनी भी दोस्त हुआ करती
हमें जंगलो में ले जाती
संग अपने खेला करती

खरगोशो की माद देखते
हिरनों को देख उछलता
झाड़ी में छुप देखा करते 
प्यारे भालू को शहद टटोलता

तब जंगल का राजा भी
अपने पंखो के नीचे होता
देखो वह हिरनों का झुण्ड भागता
शेर कही वही पीछे होता

नदियों के तट पर जाकर फिर
सूरज को ढलता देखा करते
थक जाते जो यदि कही  तो
बापस घर का डेरा करते


कृते अंकेश