Tuesday, August 27, 2013

अँधेरा


दिन भर थक हार के बैठी
राह जोतती जाने किसकी
सांझ भी लो न लायी संदेसा
छाया रहा अँधेरा कैसा

उड़ते रहे पतंगे फेरे
पक्षी बापिस घर के डेरे
जग अपनी रातो को सजाता
उसके पथ कोई न आता

सोचे नयन पलक को डारे
उसकी छवि को पास बुला ले
लेकिन पलके खोल ज्यो आती
छाया घना अँधेरा पाती

कृते अंकेश

Saturday, August 17, 2013

कुछ भी तो नहीं बदला 


कुछ भी तो नहीं बदला
आती है सूरज की  किरणे
करती थी जगमग जो इस घर  को
चौका  जाती है अब मुझ को
पवन उडाती जो केश  तुम्हारे
अब परदो से खेला करती है
थक जाती है जब उनसे
सामान बिखेरा करती है
शायद वो नाराज़ है कुछ
या कुछ तो उसका बदला है
में तो पहले जैसा ही हूँ
कुछ तनहा और कुछ अकेला हूँ
चिडियों के छोटे बच्चे
तुमने जिनको दाना डाला था
आ जाते है भूले भटके न जाने क्यों
जब न कुछ है उनको खाना
 उनकी आँखे अब भी शायद तुमको ही तकती है
कुछ भी तो नहीं बदला

कृते अंकेश