Thursday, May 05, 2011


 अनकही 

तेज़ी से अपने कदमो को बढ़ाते हुए ऑटो की और दोडा | "तिलक नगर चलेगा" ऑटो वाले से पूछा , हा चलेंगे, ऑटो वाला बोला | कितना लेगा?  मैंने कुछ अकड़ कर कहा  | २०० रूपया, ऑटो वाले ने अपनी गर्दन ऑटो से बाहर  निकालते  हुए बोला | . "अरे पर वहा का तो सौ रुपया ही लगता है |" में  आश्चर्य की मुद्रा में आकर बोला |  . लगता तो १० रुपया भी है जाओ बस के धक्के खाओ और चले जाओ , यह  कहता हुआ ऑटो वाला आगे की और बढने लगा | शाम का सात बज चुका था और दूर दूर तक किसी सवारी का नामोनिशान भी नहीं दिख रहा था.  भागते भूत की लगोटी ही भली |  यह सोचकर मैंने  आखिरी पासा फैका | अच्छा १५० लेगा. मेरे इस प्रसताव को ऑटो वाले ने  इतनी निर्ममता के साथ ठुकराया, मानो बहुमत से चुनी गयी सर्कार  विपक्षी  पार्टी की मांगो को ठुकरा रही हो |  अब तो मुझे  अपनी मोलभाव की क्षमता    पर शक होने लगा | पर मरते क्या न करते दलबदलू नेता की तरह तुरंत से ऑटो में घुसे और बोला चलो | अगले ही कुछ पलो में ऑटो दिल्ली की व्यस्त सडको से गुजरने लगा . सड़क के दोनों और विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों में बनी हुई दुकाने कृत्रिम रौशनी से जगमगा रही थी | ऐसा लग रहा था मानो निशा के आगमन के लिए  पूरा शहर सजा हुआ बैठा हो | रोशनियों की कटती पिटती परछाई में चेहरे की झुर्रिया साफ़ देखी जा सकती थी .  कहने को तो पिछले २५ सालो से दिल्ली में ही रह रहा हूँ , लेकिन हर दिन लगता है, जैसे अनजानों की तरह एक नए शहर में भटक रहा हूँ | सुबह के साथ शहर की गलियों से पहचान बनती है ,तो रात के अंधियारे में यह अनजान मोड़ की तरह मुझे भटकाने लगती  है | वैसे भी मैंने इनको समय ही कितना दिया परिचय लेने या देने का | जीवन की व्यस्तता में कहा घूमा, कुछ पता ही नहीं | अब तो इतना सोचने का समय भी नहीं मिलता |  विचारो  में मग्न ही थे कि  ऑटो वाले ने बोला, साहब तिलक नगर | अगर ओर आगे  जाना है तो ५० रुपया एक्स्ट्रा लगेगा | गुस्सा तो बहुत आई पर सोचा खामख्वाह क्यों अपना वक़्त जाया करे| उसे २०० रूपये दिए और घर की और चल दिया |


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