Wednesday, March 16, 2011

आकांक्षा 

जा पंथी अब छोड़ मुझे 
मैं बीते कल की दासी हूँ
एक पहेली अनसुलझी सी
कोई ग़ज़ल पुरानी हूँ

पैमानो के जोर में अटकी
आज भी तोली जाती हूँ
एक अधूरी मृग आकांक्षा
नयनो  के गोते खाती हूँ 

  
जा सपनो के रंगो में उड़कर
तू अपनी मुस्कान सजा ले
गम की छाया छोड़ यहाँ पर   
खुशियो के तू रंग बहा दे

देख वाबरी अंधियारी रातें
में अपनी सेज सजा ही लूंगी
कदमो के जाने की आहट से
अपना रंग मिटा ही दूँगी

सूरज की किरणे फिर से जब
तेरे मस्तक से टकराएंगी
सारे रंग भूल  श्वेत सी
स्मृति उभर कर आएगी

मेरे रंगो का वह धागा
हो सके अगर तो लौटा देना
जीवन की शैय्या  पर बिखरे 
स्वप्नो को मिटा देना

     
 कृते  अंकेश 
   

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