Monday, May 23, 2011

अंधियारे में डूब रही है 
देख दिवस की ज्योति है 
कालचक्र के फेर में उलझी 
निज अस्तित्व भी खोती है

वाह निशा तेरा क्या कहना 
दिनकर को भी सुला दिया 
चमक रहे है तारे नभ में 
इंदु भाग्य  को जगा दिया 


तम  की माला ओढ़े  जीवन 
आज निशा में डूब गया
इस बेला के मंद नशे में 
स्वप्न लोक में झूम गया

कुछ बिखरी सी आँखों में बस
मंद हँसी सी तैर रही 
बीते पल के सुख को शायद 
अब  आँखे ही बोल रही 

तेरे आगोशो में सोयी
मनुजनो की टोली है 
छिटपुट सी आवाज़ कही है 
लगता झींगुर की बोली है 

यहाँ वहा निर्भीक डटा 
कोई कर्मवीर सा योगी है 
उसी  साधना से खिल रही 
जग  विकास की झोली है

अंधियारे में डूब रही है 
देख दिवस की ज्योति है 
कालचक्र के फेर में उलझी 
निज अस्तित्व भी खोती है

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