Sunday, February 26, 2012

इश्क में जलना कहा, मिटना कहा, होता कहा
 इश्क तो दरिया है वो, जिसमे जब बहा, खुलकर बहा
है कहा फिर इश्क वो जो, तोड़ दे दिल को अगर,
इश्क तो होता वही, जो होकर जुदा भी दिल में रहा

कृते अंकेश 

Thursday, February 23, 2012

ओ नटखट गिलहरी
तुमको जितना बादाम खाना है उतना खाओ
चाहो तो सारे के सारे मुह में भर के ले जाओ
पर संभल के
तुम जब उस तार पर चढ़ती हो
तो तार के साथ साथ खुद भी झूलती हो
कही गिर न जाना
और फिर ऐसा न हो की
चोट लगने पर महीने भर मिलने ही न आना        
सच  में तुम कितना सुन्दर लगती हो
जब सारे बादाम मुह में भर लेती हो
अपने नन्हे   पैरो पर खड़े  होकर
हाथो में  पकडे हुए बादामो को खाते हुए तुम्हारा चेहरा
सचमुच कितना मासूम लगता है
मुझे तो डर है कि कही तुम मोटी न हो जाओ
और फिर इतनी ऊपर तक चढ़कर मेरी खिड़की में आ ही नहीं पाओ
चलो कोई नहीं
तुम आवाज़ लगा दिया करना 
मैं ही तुमसे मिलने आ जाऊँगा  

लेकिन कोई शरारत न करना
ओ नटखट गिलहरी 

कृते अंकेश

Wednesday, February 22, 2012

This is a beautiful poem "The address" written by "Sohrab Sepehri" . I have gave a try to translate it in hindi from its english translation. I have changed some part to make it in rhyme but tried to keep the essence same. Hope I have done my job satisfactorily.

Writer - Sohrab Sepheri
Translator in Hindi - Ankesh Jain 

क्या बता सकते मुझे हो
है कहा मेरा प्रिये
देख उषा की किरण को
पूछता व्याकुल हुए

सुनते ही यह बात मेरी
 मौन हो गया आसमा
शोकमय बादल घिरे
और टूटता तारा वहा

राही ने भी छोड़ दी
हाथो से अपने वो छड़ी
जिसके सहारे था चला
अब रेत में धूमिल पड़ी




फिर अचानक से किसी ने
कोई उत्तर था दिया

"देखते हो दूर क्या तुम
पेड़ वो अडिग सा रहा
ठीक उसके ही पहले
रास्ता एक जायेगा
होगा हरियाली से भरा
स्वर्ग जैसा ही नज़र आएगा
सुख और प्रेम की वहा
कोई भी न कमी होगी

देख जो तुम सके यदि

अच्छा फिर चले जाना वही
सीधे उसी पथ पर
पहुच जाओगे तुम कही
एक सुन्दर बगीचे पर
भावो से होगा यह भरा
जीवन वहा विश्रांत होगा
देखना फिर वही कही
एक झील का किनारा शांत होगा
ध्यान से सुनना वहा
पत्तियों के स्वर निराले
देखना मग्न होकर
बह रहे फब्बारे प्यारे
बहते है जो प्राचीनता के
असंख्य रहस्यों से
डूब जाना उन स्वरों में
जब तक नहीं कोई भय लगे

जब कोई शोर फिर
आकाश में हो बिखरता
पाओगे तुम वही कही
एक  पेड़ पर छोटा सा बच्चा
पास ही एक घोसले को
रहा होगा वो निहारता
स्वर्ण के अन्डो की आशा में
समय अपना गुजारता

देख जो तुम सको यदि

इतना मुझ पर विश्वास करना
उस बच्चे से बात करना
वह अबोध है वह सच्चा है
वही तुम्हे राह दिखायेगा

यदि
तुमने
सच में मुझसे अपनी प्रिये का पता पुछा है यदि !!!

  

   
  

Tuesday, February 21, 2012

अगर चाहू तो में उस पर्वत श्रखला की चोटियों पर भी जा सकता हूँ
मेरे जोश और उन्माद के पंख पूर्ण रूप से परिपक्व हैं
मैं अँधेरे मैं भी देख सकता हूँ
मेरे अन्दर का साहस रौशनी बनकर सदा मेरे साथ खड़ा है
 
मैं सागर की समस्त उर्जा को अपने में समेटे हुए हूँ
मैं रेत की तरह कही भी उड़ सकता  हूँ
जीवन का सौन्दर्य आज मेरी ताकत है
ख़ुशी , हसी , व्याकुलता, चंचलता , सहजता , सरलता सभी कुछ तो है मेरे पास
फिर भी मैं कितना अकेला हूँ

कृते अंकेश 
 

Sunday, February 19, 2012

गद्य बनाम पद्य


मन की अभिव्यक्तियों को पद्य के माध्यम से उकेरना अत्यत्न सरल है, पद्य मन के भावो को बड़ी ही सहजता के साथ व्यक्त करते चले जाते है। वस्तुत: कवि के लिए पद्य स्वभाभिक होते है। जीवन की समरसता को पद्य में सहज ही ढाला जा सकता है । किन्तु पद्य गूढ़ होते है, वह संक्षिप्त होते है । वही गद्य शब्दों का सीधा साधा क्रम होता है, जो बिना किसी लय और ताल के  बहता है। यहाँ बातें आसानी से व्यक्त तो हो जाती है किन्तु मन के स्थान पर मस्तिष्क का प्रतिभाग कुछ अधिक होता है। यहाँ मन से मेरा अभिप्राय मष्तिष्क के उस भाग से है जो कला एवं मनोरजन से संबंधित गतिविधियों का अनुमोलन करता है, जबकि मष्तिष्क से मेरा अभिप्राय तार्किक एवं वैज्ञानिक गतिविधियों में निपुढ़ मष्तिष्क के भाग से है। यही कारण है कि पद्य, गद्य से प्राचीन है। रचनाओ को संचित करने का कोई उपाय न होने के कारण प्राचीन समय में रचनाये कंठस्थ  की जाती थी। पद्य लयबद्ध होने के कारण सहजता से याद हो जाते थे। यही कारण है कि अठाहरवी शताब्दी तक हिंदी साहित्य में पद्य का ही बोलबाला रहा। भारतेंदु हरिश्चंद्र के आगमन के साथ गद्य साहित्य का आविर्भाव हुआ। लेकिन वर्तमान में साहित्य संचय के प्रचुर साधन होने के कारण गद्य साहित्य का प्रबल स्तम्भ बन गया है। समाचार पत्र से लेकर लघु कथाये, हास्य व्यंग, कहानिया, रिपोर्ट एवं अनेको  गद्य विधाए विकसित होती गयी है । लेकिन फिर भी मन के भावो को आज भी गद्य में पद्य कि सहजता से  व्यक्त करना आसान नहीं है।

कृते अंकेश 
मेरे पिताश्री द्वारा कृत एक उर्दू कविता..... जितनी मुझे याद है वही लिख रहा हूँ ....


मत पूछ की क्या क्या दिन दिखाती है मुफलिसी
की यह वही जाने कि जिस पर आती है मुफलिसी
मुफलिसी कि क्या सुनाऊ क्वारी झिडकिया
खाने को न घर में  न  चूल्हे मैं लकडिया
 तन के कपडे तक ले जाती है मुफलिसी
मत पूछ कि क्या क्या दिन दिखाती है मुफलिसी
............
 ये पंडित और मुल्ला जो कहाते है
मुफलिसी में यह कलमा तक भूल जाते है
कोई पूछे अलिफ़ तो बे बताते है
और जिनके यह बच्चे पढाते है
उनकी तो जिंदगी भर न जाती मुफलिसी
मत पूछ कि क्या क्या दिन दिखाती मुफलिसी 


कृते जिनेश चंद्राकर
कुछ थी हकीकत
कुछ था तमाशा
शायद रही कोई
छोटी सी आशा
सपना था कोई
या फिर सयाना
दिल ही रहा होगा
कोई दीवाना


वरना यह दिल फिर किसे ढूंढता है
नहीं सामने जो किसे ढूँढता है
वरना यह दिल फिर किसे ढूंढता है
नहीं सामने जो किसे ढूँढता है



सपनो के बादल
भी लगते निराले
जिसको यह चाहे
अपना बना ले
इनको पता क्या
है क्या हकीकत
इनको कहा मिलती
इतनी ही फुर्सत



यह तो सदा उनको सपनो में ला दे
नहीं जो भी मेरा वो मेरा बना दे
वरना यह दिल फिर किसे ढूंढता है
नहीं सामने जो किसे ढूँढता है

तुम भी कभी
और हम भी कभी
शायद रही होगी
उलझन यही

वरना यह दिल कब कहा हार माने
हजारो हो कोशिश नहीं फिर भी हारे
न जाने यह किसे ढूंढता है
है वो कहा यह जिसे ढूँढता है
न जाने यह किसे ढूंढता है
है वो कहा यह जिसे ढूँढता है

कृते अंकेश
उड़ जा पंछी
तुझे फिकर क्या
किसका सपना
तुझे रोकता
तेरी मंजिल
तेरा  रस्ता
खुला आसमा  
रोक टोक क्या


तेरे पंखो में सजते है
इस दुनिया के सपने प्यारे
जा पंछी तू अपनी धुन में
अपने रंगों को अपना ले

यहाँ वक़्त की बड़ी कमी है
 रिश्तो के संग्राम यहाँ है
उलझन में रहते है सपने
पगले अपना  काम कहा है

जिन्हें अभी तक लगता है कि
नशा नहीं उनका तुझको है
बुनने दे उनको कुछ चेहरे
चेहरों की अब किसे फिकर है 


खोकर इन सपनो को अब
चेहरों की मुस्कान बना दे
बहुत मिलेंगे मौके तुझको
आज यहाँ तू रंग सजा दे ..............

कृते अंकेश
 

Saturday, February 11, 2012

एक छोटा सा बच्चा
छोड़ खिलोने कहा चला

घूमा दुनिया के मेले में
सुख दुःख के सभी झमेले में
रिश्तो में, यादो में,
जीवन के बाजारों में
रहे तलाशे ज्ञान के पन्ने
फिर से जीने की आशा में

एक छोटा सा बच्चा
छोड़ खिलोने कहा चला

सोया वो सागर के तट पर
खेला वो लहरों के घट पर
पानी के साथ बहा वो भी
अनजान मिलन की आशा में

एक छोटा सा बच्चा
छोड़ खिलोने कहा चला

न जाने कितना सीख गया
हसना रोना भी भूल गया
देखा मैंने उसको जाते
एकांत कही उस आँगन में

एक छोटा सा बच्चा
छोड़ खिलोने कहा चला



वही दूर एक छोटा बच्चा
हाथो को पंख बनाता है
लगता मानो बस उड़ता है
दूर चाँद तक जाता है
उस आँगन के कौने में
थी रही काठ की एक सीढ़ी
जो सटी हुई पत्थर से थी
थी शायद वो थोड़ी टेढ़ी
चढ़ रहा प्यार था उसपर
दुनिया से ओझल होने को
है शेष रहा ही अब क्या
कुछ पाने को या खोने को

एक छोटा सा बच्चा
छोड़ खिलोने कहा चला

और अंत में देखा उसने
एक रेल को आते
सभी खिलोने, छोटे बच्चे
कही दूर थे जाते

न जाने क्या हुआ उसे फिर
वो भी छोड़ चला जग को
देखा था मैंने बस
जाते जाते उस पग को

कृते अंकेश

Sunday, February 05, 2012

इसमें क्या आश्चर्य, प्रीती जब प्रथम प्रथम जगती है 
दुर्लभ स्वप्न सामान रम्य नारी नर को लगती है 

कितनी गौरवमयी घडी वह भी नारी जीवन की
जब अजय केसरी भूल सुधबुध समस्त तन मन  की 
पद पर रहता पड़ा देखता अनिमिष नारी मुख को 
क्षण क्षण रोमाकुलित, भोगता अनिर्वच सुख को 

यही लग्न है वह जब नारी जो चाहे वह पा ले 
उडुपो की मेखला कौमुदी का दुकूल मंगवा ले 
रंगवा ले पदों की उंगलिया उषा के जावक से 
सजवा ले आरती पूर्णिमा के विधु के पावक से 

तपोनिष्ट नर का संचित तप और ज्ञान ज्ञानी का 
मानशील का मान गर्व गर्वीले अभिमानी का 
सब चढ़ जाते भेट सहज ही प्रमदा के चरणों पर 
कुछ भी बचा नहीं पता नारी से उद्वेलित नर 

किन्तु हाय यह उद्वेलन भी कितना मायामय है 
उठता सहज जिस आतुरता से पुरुष हृदय है 
उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में 
रखा चाहती वह समेत कर सागर को बंधन में 

किन्तु बांध को तोड़ जब ज्वार नारी में जगता है 
तब तक नर का प्रेम शिथिल प्रशभित  होने लगता है 
पुरुष चूमता हमें अर्धनिद्रा में हम को पा कर 
पर हो जाता विमुख प्रेम के जग में हमें जगा कर 

और जगी रमणी प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला 
पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला 

कृते दिनकर