Monday, May 30, 2011

क्षुदा विक्षिप्त तन भूल गया है 
आँखे सब कुछ बोल रही 
 इस  नुक्कड़ के अधियारे  में
तकती आँखों को तोल रही 
कुछ छूटा कुछ  शेष रहा सा
जीवन कुछ भटका सा है 
इस बस्ती का यह  हिस्सा 
अभी  क्षुदा में अटका है 
देखो देर नहीं हो पाए 
कही श्वास न  खो जायें
इस विकास  में मानवता की
कही आस न खो जाये

Wednesday, May 25, 2011

कितने प्रयत्नों से आती है यह लहरें 
कितनी ठोकर खाती है लहरें 
फिर भी उठती जाती यह लहरें 
तट  के समीप किनारे पर बैठा 
ध्यानमग्न पुरुष 
उसकी  समाधी को शीतलता 
पहुचाती यह लहरें
समेटे ऊर्जा  का असीम संसार 
नहीं करती हाहाकार 
यद्यपि  स्वर है उग्र
प्रबोधक है  उस द्रढइक्छा का
समाहित है जो जलकण में
सागर की तृष्णा ने घोली है इसमें
लक्ष्य तक जाने की शक्ति
चल दिया  वो धीर पुरुष
दूर सागर तट से
खोयी  लहर की तलाश में


Monday, May 23, 2011

अंधियारे में डूब रही है 
देख दिवस की ज्योति है 
कालचक्र के फेर में उलझी 
निज अस्तित्व भी खोती है

वाह निशा तेरा क्या कहना 
दिनकर को भी सुला दिया 
चमक रहे है तारे नभ में 
इंदु भाग्य  को जगा दिया 


तम  की माला ओढ़े  जीवन 
आज निशा में डूब गया
इस बेला के मंद नशे में 
स्वप्न लोक में झूम गया

कुछ बिखरी सी आँखों में बस
मंद हँसी सी तैर रही 
बीते पल के सुख को शायद 
अब  आँखे ही बोल रही 

तेरे आगोशो में सोयी
मनुजनो की टोली है 
छिटपुट सी आवाज़ कही है 
लगता झींगुर की बोली है 

यहाँ वहा निर्भीक डटा 
कोई कर्मवीर सा योगी है 
उसी  साधना से खिल रही 
जग  विकास की झोली है

अंधियारे में डूब रही है 
देख दिवस की ज्योति है 
कालचक्र के फेर में उलझी 
निज अस्तित्व भी खोती है

Sunday, May 22, 2011

कहते है विकास एक सतत प्रक्रिया है | प्रत्येक जाति अपने विकास के लिए प्रयत्नशील रहती है | किन्तु विकास एक सापेक्षिक मापदंड है | विश्व परिद्रश्य में सीमित प्राकृतिक एवं मानवीय अर्जित संपदाओ ने सदैव जातियों को प्रतिद्वंदता के लिए प्रेरित किया है | चाहे वह आर्यों का भारतभूमि  में प्रवेश हो अथवा मुगलों का आक्रमण , ब्रिटिश साम्राज्य ने इसी लोभ के चलते विश्व भूमि  को अपनी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा | किन्तु एक बात स्पष्ट  है,  इस प्रतिद्वंदता के अंत में जो पक्ष  स्थायी रहा, वह विकसित होने के लिए शेष रहा, जबकि  दूसरा पक्ष इतिहास के पन्नो में सिमट कर रह गया | अतएव  विकास में स्थायित्व का होना अति  आवश्यक है | स्थायित्व  के भी अनेक पक्ष  हो सकते है  |  सामरिक एवं आर्थिक पक्ष  इनमे सबसे प्रमुख है  |  किन्तु आज के दौर में  यह सभी पक्ष  एक  मुख्य बिंदु कि  ओर संकेद्रित हो गए है और वह है तकनीक, यु तो विकास कि प्रक्रिया में तकनीक ने सदेव अहम् भूमिका निभाई है, किन्तु समय के साथ साथ इसकी भूमिका में अत्यधिक परिवर्तन आया है | यदि हमें अपने विकास को स्थायी बनाना है तो हमें तकनीको के आयाम में सर्वोपरि होना होगा | यह तभी संभव है जब हम अपने शैक्षिक एवं शोध प्रबंध को अतििविकसित बनाये |  किन्तु यहाँ एक प्रश्न  यह है कि हम अपने शोध को संकेद्रित करे या विकेन्द्रित , यहाँ संकेंद्रित से मेरा अभिप्राय लक्ष्य आधारित शोध से है , जो स्वभाभिक्त: हमारे विकास को स्थायी रख सकता है, किन्तु वही हो सकता है कि कुछ महत्वपूर्ण शोध हमारे आयाम से बाहर ही रह जाये | अत: हमें अपने संसाधनों को ध्यान  में रखते हुए  अपनी नीतिया निर्धारित करनी होगी | व्यावसायिक  संस्थानों कि  भागीदारी से यह प्रक्रिया ओर  भी  आसान बनायीं जा सकती है | आशा है हम अपने मिशन में सफल होंगे |

अंकेश
जीवन के पन्ने जो खोले कभी थे 
उन्हें रंग चला समय का यह साया 
खयालो में शायद जमे अब ये महफ़िल 
जो किस्सा कभी कोई याद आया 

कृते  अंकेश



Thursday, May 19, 2011

दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित
लगता यह विचित्र
है स्वभाभिक
है आदि अनंत
यह काल भ्रमन्त
अपराधिक मन
समुचित संकुचित
दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित
व्याधि ग्रसित
नर मन विचलित
क्षण भंगुर तन
अस्थिर अस्मित
यह जीव तरन्ग
वह नग्न बदन
है सूर्य किरण
अर्जित अर्पित 
दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित
समसार व्यथा
संसार कथा
सर्वत्र यहाँ
दर्शित हर्षित
वह  विद्व यहाँ
जो जान सका
सापेक्ष समर
सब कुछ निर्भर
दुःख
चिर परिचित समुचित अनुचित

Sunday, May 08, 2011

 माँ

खो रही है श्वास  भी, जो बस इसी विश्वास  में 
कर सकू में कुछ बड़ा, है वो सदा इस आस  में 
सेकड़ो  दुविधा रही, फिर भी सदा हँस कर सहा
माँ तेरी हिम्मत से ही मुझको मिली दुनिया यहाँ 
 
दूर तुझसे हूँ तो क्या, साँसे मुझे तुझसे मिली 
दिख रही है जो छवि , थी तेरी ही काया कभी 
आपसे, पापा से ही, सीखा था चलना बोलना 
आज रचता हूँ स्वरों को, जो कभी सिखला दिया

 तेरी आँखों की नमी में है छिपी ममता सदा 
तेरे चरणों से मिली आशीष की धारा   सदा 
आज में जो हूँ जहा हूँ तेरा ही में अंश हूँ 
माँ तेरे  इस अंश में रखना छवि अपनी सदा

कृते अंकेश

Thursday, May 05, 2011


 अनकही 

तेज़ी से अपने कदमो को बढ़ाते हुए ऑटो की और दोडा | "तिलक नगर चलेगा" ऑटो वाले से पूछा , हा चलेंगे, ऑटो वाला बोला | कितना लेगा?  मैंने कुछ अकड़ कर कहा  | २०० रूपया, ऑटो वाले ने अपनी गर्दन ऑटो से बाहर  निकालते  हुए बोला | . "अरे पर वहा का तो सौ रुपया ही लगता है |" में  आश्चर्य की मुद्रा में आकर बोला |  . लगता तो १० रुपया भी है जाओ बस के धक्के खाओ और चले जाओ , यह  कहता हुआ ऑटो वाला आगे की और बढने लगा | शाम का सात बज चुका था और दूर दूर तक किसी सवारी का नामोनिशान भी नहीं दिख रहा था.  भागते भूत की लगोटी ही भली |  यह सोचकर मैंने  आखिरी पासा फैका | अच्छा १५० लेगा. मेरे इस प्रसताव को ऑटो वाले ने  इतनी निर्ममता के साथ ठुकराया, मानो बहुमत से चुनी गयी सर्कार  विपक्षी  पार्टी की मांगो को ठुकरा रही हो |  अब तो मुझे  अपनी मोलभाव की क्षमता    पर शक होने लगा | पर मरते क्या न करते दलबदलू नेता की तरह तुरंत से ऑटो में घुसे और बोला चलो | अगले ही कुछ पलो में ऑटो दिल्ली की व्यस्त सडको से गुजरने लगा . सड़क के दोनों और विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों में बनी हुई दुकाने कृत्रिम रौशनी से जगमगा रही थी | ऐसा लग रहा था मानो निशा के आगमन के लिए  पूरा शहर सजा हुआ बैठा हो | रोशनियों की कटती पिटती परछाई में चेहरे की झुर्रिया साफ़ देखी जा सकती थी .  कहने को तो पिछले २५ सालो से दिल्ली में ही रह रहा हूँ , लेकिन हर दिन लगता है, जैसे अनजानों की तरह एक नए शहर में भटक रहा हूँ | सुबह के साथ शहर की गलियों से पहचान बनती है ,तो रात के अंधियारे में यह अनजान मोड़ की तरह मुझे भटकाने लगती  है | वैसे भी मैंने इनको समय ही कितना दिया परिचय लेने या देने का | जीवन की व्यस्तता में कहा घूमा, कुछ पता ही नहीं | अब तो इतना सोचने का समय भी नहीं मिलता |  विचारो  में मग्न ही थे कि  ऑटो वाले ने बोला, साहब तिलक नगर | अगर ओर आगे  जाना है तो ५० रुपया एक्स्ट्रा लगेगा | गुस्सा तो बहुत आई पर सोचा खामख्वाह क्यों अपना वक़्त जाया करे| उसे २०० रूपये दिए और घर की और चल दिया |


Wednesday, May 04, 2011

 चिंतन

क्यों टूटे यह  सपने 
उड़ने  की ही तो तयारी थी 
रंग भरे थे तस्वीरो में 
स्याही  अभी सवारी थी 

उलझन में डूबा मन 
जाने कौन राह पर भटक गया
मेरे  नयनो से झर कर 
एक  आंसू फिर से निकल गया 

उम्मीदों की दुनिया ने
 हिम्मत क्यों अब  हारी थी
गूँज रही मेरे दामन में 
उसकी ही किलकारी थी
 

क्यों टूटे यह  सपने 
उड़ने  की ही तो तयारी थी

 
 

Sunday, May 01, 2011

तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 

 जा जीत ले तू जिन्दगी 
हर  लक्ष्य को तू प्राप्त कर 
तेरी विजय की रात में 
मैं कामिनी बन जाऊंगी 

तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 

आखेट सा मेरा गमन 
यह जिंदगी है अनुसरण 
हर अधूरी  प्रतिज्ञा का 
मोल  मैं अज्माऊंगी 

तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 

बन विरागी  जीव सा 
मेरा वियोगी अंतर्मन 
कर रहा है साधना 
उस स्वप्न सुख का चिंतन 
उस अधूरी रात की 
मैं  रागिनी बन जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी 
 
तुझ से पुकारी जाऊंगी 
तुझ से सवारी जाऊंगी 
मैं साँझ हूँ तेरी सखे 
तुझ में कही ढल जाऊंगी