Thursday, March 04, 2010

कुछ सपनो को शायद
और सवारा जा सकता था
काले कागज पर स्याही को फिर बिखराया जा सकता था
मेरे मन को भी शायद  कुछ पल
ठहराया  जा सकता था
पर उन बिखरे पन्नो को नहीं छिपाया जा सकता था

अब तो कागज़ के टुकड़े ही बस इतिहास बताते है
जाने किन सदियों के किस्से थे
कब की याद दिलाते है
कही देख कर भी उनको
जब मैं खुद को यह बतलाता हूँ
उस कागज की कतरन को मैं खुद के सम्मुख पाता हूँ