Sunday, December 30, 2012

एक बात पूछू सच बतलाना 
सौंदर्य किसे कहते हो ?
दीवार के सिरहाने खड़े होकर उसने अचानक से पूछा 
अब तक कागजों में खोया हुआ मेरा चेहरा 
उसके अधरों के अनुकम्पनो को निहारने ल़ग़ा 
सौंदर्य सामंजयस्य है आकांक्षाओ और अनुभूतियो का 
मैंने इतना ही कहा
लेकिन आकांक्षाओ की तो सीमा ही नहीं 
फिर कैसा सामंजयस्य, वह बोली 
अनुभूतियाँ करती है सीमित विस्तार आकांक्षाओ का 
सौन्दर्य तो मात्र कल्पना है संतुष्टी की 
जिस विषय ने संतुष्ट कर दिया 
बस वही परख है सौन्दर्यता की 
यह सुनकर वो हस पड़ी 
मानो सौन्दर्य ने उसे सराबोर कर दिया 

कृते अंकेश

Saturday, December 29, 2012

कहने को तो बेहाल सा गया 
लेकिन कलेंडर से एक साल गया 
उड़ते रहे इरादे 
खिलते रहे थे सपने 
कानून के नुमाइन्दे 
क्यों बन गए दरिन्दे 
इनके जिस्म से उड़कर 
ईमान जाने कहा  बिखर गया 
इंसान हर एक रोया 
सपना  किधर गया 
लेकिन कलेंडर से एक साल निकल  गया 

कृते अंकेश 

Saturday, December 22, 2012

नन्हे से जीवन में भरती जो अपने प्राणों की सरगम 
जिसकी ऊँगली ने पकड़ दिखाया कदमो को सारा आँगन 
जिसके आँचल की छाव तले झटपट सो जाया करते थे 
अपनी टूटी फूटी बातो से हम जिसे सताया करते थे 

जिसने देखा हमको पल पल चलते बढते गिरते उठते 
जिसने खुद को भी लिया भिंगो अश्रु जब इन आँखों से बरसे 
जीवन के प्रतिशोध में भी जो जलकर रही सदा मधुरित 
जिसकी मुस्कानों ने घोला इन कर्णौ में बस अमृत 

वो मेरी माँ भगवान् है मेरी मेरे मंदिर में रहती है
आओगे अब कब घर बापिस बस इतना ही कहती है
में क्यों उस आँगन को इतना दूर मगर अब पाता हूँ
चाहकर भी न बार बार उस मंदिर में जा पाता हूँ

कृते अंकेश
बेरंग सा तार है 
जुड़ रहा हर बार है 
बारिशे ख्वाहिशे 
रूठना बेकार है 

जिंदगी अब कहा 
ले चली है मुझे 
देख मेरा यार 
मेरे साथ हर बार है 

ठोकरों में छूटना
छूट कर टूटना
टूट कर फूटना
फूट कर रूठना

रूठना ही तो
मिलाता बार बार है
बेरंग सा तार है
जुड़ रहा हर बार है

कृते अंकेश

Wednesday, December 19, 2012

मिटती रही आवाज़ फिर भी 
क्यों रहे तुम मौन थे 
लुटता रहा मेरा शहर 
जो लूटते वो कौन थे 

सपने उड़े पल में कही 
टूटी हसी उधडी ख़ुशी 
अब मौत से लडती जिंदगी 
फिर भी रहे क्यों मौन थे 

प्रश्न उठता है सदा 
क्यों मात्र नारी अस्मिता का 
दंश मिलता क्यों मुझे 
जब मेरा ही उत्पीडन हुआ

क्यों नहीं खुशिया मुझे 
मिल जाती है फिर लौट कर 
शायद हसू  खुलकर कभी 
जो साथ आये  लोग सब 

मिटती रहेगी वरना सदा 
आवाज जो यह  मौन थी 
शायद रखेगा याद कोई 
टूटी कहानी कौन थी 

कृते अंकेश 

Monday, December 17, 2012

जा महको उस बेताब इश्क में जो में तुमसे करता आया 
जा चहको उस प्रणय गान में जिसको मैंने है गाया 
जा बहको उस आनंद मान में जो लिए तुम्हारे सजवाया 
जा झूमो उस जीवन प्राण में जहा सुख का रहा सदा साया 

मेरी आहो को नज़र अंदाज़ करो , यह नहीं तुम्हारे हिस्से है 
खुशियों के साए से गुजरो, दुःख नहीं तुम्हारे किस्से है
आज़ाद उड़ो उन्मुक्त गगन में, में बंधन भी सह जाऊंगा 
तुम जीत सको सारी दुनिया, मैं हार तुम्हे भी जाऊंगा 

कृते अंकेश

पंखो के परदे
उड़ते गिरते चलते फिरते
ढलते बुझते, फिर फिर खिलते
खिल कर मिलते, मिल कर खिलते
पंखो के संग संग थे हिलते
उम्मीदों ने पंख लगाकर
पर्दों को आकाश दिखाया
जीवन ने सपनो को पाकर
मुस्कानों को पास बुलाया
अहसासो के आवाहन में
शामिल जीवन का सूनापन
पंखो के पर्दों में खोया
यह तन यह मन सारा जीवन

कृते अंकेश
वो उलझता रहा 
तारीफे करता रहा 
सुन्दर फीतों की 
में भी चुपचाप सुनता रहा 
प्रत्युत्तर में सिर हिलाता रहा 
इंतज़ार करता रहा उसके जाने का 
अपने नंगे कदमो को आगे बढाने का 

कृते अंकेश
विरह या मिलन 
सोये हुए दोनों अकेले 
परस्पर नजदीक 
शून्य स्वप्न 
आत्म चिंतन 
या मात्र बंधन 
जीवन 
क्या छल है जीवन 
ढकता रहा अन्धकार 
करता रहा पुकार 
या शायद निवेदन

कृते अंकेश

Sunday, December 09, 2012

तुमको जिद थी मिलने की 
मुझको जिद थी चलने की 
दोनों ने बस जिद को पकड़ा 
साथ हमारा टूट गया 
कोई साथी छूट गया 

बारिश भी तो रूठी थी 
पुरवैया भी छूटी थी 
मौसम ने बस जिद को पकड़ा 
फिर से सावन रूठ गया 
कोई साथी छूट गया 

लहरें अब भी चलती है 
शामे अब भी ढलती है 
लोगो ने बस जिद को पकड़ा
और किनारा रूठ गया 
कोई साथी छूट गया 

कृते अंकेश

Wednesday, December 05, 2012

कैक्टस ये दुनिया है अनजान 
इसे सच की है क्या पहचान 
सजाती है गुलाबो को गले में यह लगा नादान
कैक्टस ये दुनिया है अनजान 

इरादे नेक इनके कब 
दिखावे करते है बस सब
नहीं अचरज मुझे होता 
जो मिलता तुम्हे कौने में स्थान 
कैक्टस ये दुनिया है अनजान 

यह आरामो में है खेले
हसीं है इनके सब मेले
पता इनको क्या दुःख तुमने झेले
बनायीं रेत में पहचान
कैक्टस ये दुनिया है अनजान

कृते अंकेश
में हर एक पल में जीता हूँ 
में हर एक पल में मरता हूँ 
हर पल मेरा एक सपना है 
में सपना पूरा करता हूँ 

में पंखो को फैलाता हूँ
में आसमान में उड़ता हूँ
में दूर गगन तक जाता हूँ
में तारो से भी मिलता हूँ

में जीता हूँ मुस्कानों में
में अश्को में भी घुलता हूँ
में चलता हूँ खुशियों के संग भी
में अफसोसो में पलता हूँ

मेरे साए में जीत छिपी
मैं हारा भी तो करता हूँ
लेकिन उठता फिर फिर चलता
में नहीं कभी भी डरता हूँ

कृते अंकेश

Thursday, November 29, 2012

कितनी धूल उड़ाओगे 
तुम कितना आगे जाओगे  
टूटे घर से जाती सडको पर क्या लोट कभी तुम आओगे 
बिखरे बालो में घूम रहे 
ले हाथो में सपनो को झूम रहे 
इन नादाँ हाथो से कितनी और पतंग कटवाओगे 
तुम कितना आगे जाओगे 
बेचा मिटटी को सपनो को 
लूटा किसको है  अपनों को 
इन पैसो की खातिर कब तक इंसानियत ठुकराओगे 
तुम कितना आगे जाओगे 

कृते अंकेश 

Wednesday, November 28, 2012

सतरंगी बारिशो मे में तन्हा सा जी गया 
हुश्न की बूंदों को बेधड़क हो पी गया 
बरसते थे जज्बात इरादे ख़यालात भी 
मैं बेफिक्र इनसे हर इक रात सीं गया 

अश्को के  तराजू तबस्सुम को तोलते 
हिज़ ए दस्तूर तरन्नुम  टटोलते
महफ़िलो में तेरी बन  कायनात जी गया   
शोख ए हुश्न में हर एक रात पी गया 

कृते अंकेश 

Tuesday, November 27, 2012

चेहरे पहचाने  लगते है 
रिश्ते अनजाने लगते है 
इस भीड़ में कितनो को देखा 
अपने बेगाने लगते है 

टूटे घर  रिश्ते छूटे भी 
कितने वादे थे झूठे ही 
यादो के मंजर रहे इधर 
बस अब  अफसाने लगते है 

ख्वाइश आँखों में पलती है 
यह सांस अभी भी चलती है 
में  लिख जाता हूँ  आंसू को 
बहने में  ज़माने लगते है

चेहरे पहचाने  लगते है 
रिश्ते अनजाने लगते है 

कृते अंकेश 

Saturday, November 24, 2012

पंख पसारे चला परिंदा 
आसमान में उड़ता सपना 
आँखों में तस्वीर है कल की 
साया लगता जैसे अपना 

सीमा उसकी नहीं बंधी है 
आँखे उसकी कहा झुकी  है 
उसकी तो बस प्यास एक है 
मंजिल उसकी अभी शेष है 

सूरज की किरणों में तकता 
गीत सुनहरे सपने कल के 
चन्द्र किरण की  शीतलता में 
जुड़ते अंक स्वप्न के पहरे 

बस मुस्कानों से  पा  जाता 
 ऊर्जा फिर  फिर चलने भर की  
उस मानस के मस्तक पट पर 
रहती सदा तेज़ की लहरी 

कृते अंकेश 

Friday, November 23, 2012

देखकर मुस्कान अधरों में कही वो खो गए 
सेकड़ो की भीड़ से ऐसे अलग वो हो गए 
महफिले सजती गयी, लोग भी बढते गए 
बेखबर इनसे कही वो, बस अकेले हो गए 

मिट रही थी दूरियां घट रहे थे फासले
फिर जुड़े जो नयन, नैनो को इशारे फिर मिले
और फिर न जाने क्यों, आँखों ने शर्म ओढ़ ली
देखकर उन आँखों को, आँखे कही फिर खिल उठी

और बस नैनों से ऐसे इशारे चलते रहे
बिन कहे और बिन सुने ख्वाब ही पलते रहे
थी कहानी भीड़ की, थी कहानी एकांत की
लेकिन कहानी थी मधुर, थी रही जो शांत ही

कृते अंकेश

Tuesday, November 20, 2012

उषा की लालिमा के पदचिन्ह शेष थे 
खुले खुले से कैश थे 
तलाशती रही धरा 
वो भाव ही विशेष थे 
अन्तरंग था छिपा 
व्योम था खिला हुआ 
योवन की श्रेष्टता में 
सज रहे श्रृंगार थे 
नेत्र भाव थे विमुख 
मुक्त अधर दीप्ति युक्त 
भाव भंगिमा में रहे
सर्व कर ताल थे
ढूंढता था शेष को
योवन विशेष को
यदा कदा भटक रहे
सौन्दर्य पद जाल थे

कृते अंकेश

Sunday, November 18, 2012

पनघट से फिर चले क्यों सपने 
कहा रहा वो तेरा वादा
में जुड़ता ही रहा था प्रतिपल 
कहा रही फिर तुम ओ राधा 

वंशी मेरी रही बुलाती 
तेरे सपने रही सजाती 
खोकर चाँद हुआ फिर आधा 
कहा रहा वो तेरा वादा

देखो चले पवन के डेरे 
पक्षियों ने पंख है फेरे 
रवि किरणों ने किया उजाला 
कहा रही फिर तुम ओ राधा 

कहता श्याम मुझे जग सारा 
श्याम ही श्यामल जग में हारा 
राधा श्याम रूप रच आकर 
निशा ने किया क्या तेरा वादा 

कृते अंकेश 

Saturday, November 17, 2012

ला सकते हो तो ला देना
मुस्काने चेहरों पर
या अर्पण कर देना इस तन को 
इस राष्ट्र के पहरों पर 

पा सको यदि जो मौका
दूर विषमता को कर देना
रहे शेष जो समय यदि तो
स्वप्न समाज में भर देना

आँखों के तुम दीप हो जिनकी
उन आँखों का तेज़ बनो
जिस साँसों ने जन्म दिया
कुछ पल उनके भी साथ हसो

बचा सको जो फिर भी कुछ पल
वो पल शेष तुम्हारे है
जैसे चाहो उनको जीना
स्वप्न सजे जब सारे है

कृते अंकेश
श्रम के मोलो में है डूबी 
रात भी कैसी विचित्र 
सेकड़ो काया जगी है 
क्षुब्ध क्षुधा में संक्षिप्त 

है महल में खोजती 
स्वप्न योवन की कहानी 
रास्ते में मिट रही है 
सेकड़ो बस यु ही जवानी 

स्वर विषमता के सजे है
अब कहा संग्राम है
आपका क्या फिर हसोगे
आपको आराम है

मेरे घर की छत है सूरज
बस पिघलते दिन रात है
बारिशे ले जाती बहा
जो कुछ भी पास है

में नहीं हूँ मांगता
महल की एक साख हूँ
हूँ श्रमिक श्रम धर्म मेरा
शोषण के खिलाफ हूँ

कृते अंकेश

Thursday, November 15, 2012

लहरों ने कब छोड़ा था नाद
बढता जाता सागर विशाल 
टकराती हिम खंडो को रोक 
ले जाती भू खंडो को सोख 

उतरे जाते कितने थे पाल 
बड़ते जाते नावो के जाल 
सीमाओ का  अंत छोड़ 
बड़ते जाते सागर को मोड़ 

ऐसे ही उमड़े मन के भाव 
होते जाते कितने विशाल 
ले जाये किसको जोड़ तोड़ 
किसको  मिलता इनका है  छोर

कृते अंकेश  


Saturday, November 10, 2012

प्रीत मुझे समझाए कोई अब 
भूल गया में सपने कबके 
रंग है मेरे बरसे नैना 
नैनो में खोये है सपने 
प्रीत मुझे समझाए  कोई अब 

अधरों की मुस्कान ने खोयी 
बीते कल की मधुरिम यादें 
 नैनों में बस रही पिघलती 
छिपी कही थी जो बरसातें
भींगे  इस तन को फिर कैसे 
बोलो अब में शुष्क बनाऊ
प्रीत मुझे समझाए कोई अब 
प्रीत मुझे समझाए कोई अब 

कहते है कुछ चल दो फिर से
छोड़ो दुविधा रच लो सपने 
कैसे खुद को मैं समझाऊ 
सपनो को जब पास बुलाऊ 
फिर फिर से में उसको पाऊ 
छोड़ जिसे में पथ तक आऊ
प्रीत मुझे समझाए कोई अब 
 
कृते अंकेश 
श्याम तेरी बंसी के सुर से नाचे जाने कितने दिल थे
में तो  थी  बस बनी बावरी  इस मौसम में भी सावन थे
श्याम तेरी बंसी के सुर से ........

पनघट पर थी  मटकी  छोड़ी
तेरी बंसी ने   राह मोड़ी
भूल    गए हम सारे किनारे
चले जहा  बस बंसी पुकारे
 श्याम तेरी बंसी के सुर से ........

ओ नटखट  ओ नन्द के लाला
तेरी चाह  में ढला उजाला
तेरे रंग  निराले कितने
श्याम को देखू  श्यामल जग में

फिर फिर ढलता जाये अँधेरा
मनमोहक है कहा बसेरा
तेरी खोज में रतिया बीते
बढती  जाये फिर भी प्रीते

श्याम तेरी बंसी के सुर से नाचे जाने कितने दिल थे
में तो  थी  बस बनी बावरी  इस मौसम में भी सावन थे

कृते  अंकेश

Tuesday, November 06, 2012

चेहरे   के पीछे  चेहरे छुपकर जाने किस चेहरे को देखा करते है 

चेहरे  अपने ही चेहरे में एक चेहरा   बन सोचा करते है 
चेहरों की यह  साजिश है जो चेहरे  ही सुलझाते है 
चेहरे  चेहरों के बीच कही एक उलझा चेहरा पाते है 
ख्वाइश एक ऐसा चेहरा है जो हर चेहरे में मिलता है 
खामोश कभी यह छिपता है मदहोश कभी यह दिखता है 
चेहरों की इस रिमझिम से हम जाने कितने चेहरे ले जाते है 
लेकिन जब एक तेरा चेहरा पाते है हर चेहरा भूल हम जाते है ...

कृते अंकेश 

Sunday, November 04, 2012

सच की कोई आवाज़  नहीं  होती  
सच तो स्वत: बया होता है 
कहने दो लाखो को झूठ ही सही 
सच कहने के लिए एक इंसा ही बहुत होता है 
आसान  नहीं होता भीड़  में अपनी आवाज़ को सुनाना
लेकिन आसान नहीं है सच को भी दबाना 
देर से ही सही लोगो को इसका  एहसास  तो होता है 
कुम्भकर्ण  भी ज्यादा से ज्यादा छ: मास  तक   ही सोता   है  
रास्ते आपके है चयन भी आपका होता है 
लेकिन सच के साये में इंसान शायद ही कभी खोता है 

कृते अंकेश  

Saturday, November 03, 2012

विकास


एक अनसुलझी अनजान प्रक्रिया, शायद इसी से  जीवन की शुरुआत  हुई. समय के साथ साथ विकास के चक्र में घूमते  हुए,  जीवन परिष्कृत होता चला गया. मनुष्य पृथ्वी की सर्व विकसित प्रजाति बन गया. ज्ञान का संग्रह होने लगा. छिपी हुई संपत्तियों  की खोज शुरु हुई. प्रकृति को झकझोरा जाने लगा. अर्थ की उत्पत्ति  हुई और सामाजिक जीवन में आर्थिक तत्त्व का समावेश  हो गया. आर्थिक संग्रह बढने लगा, विषमताए  भी बढने लगी, और कब यह संग्रह की प्रक्रिया संघर्ष में बदल गयी,  पता ही नहीं चला. विचारों के साथ साथ  मतभेद भी जन्म लेने  लगे.  ये खेल प्रकृति का रचा हुआ था या मनुष्य के विकास की कमी, यह तो कहना मुश्किल है.



शोक संतृप्त  भर दृगो में नीर  को 
शोभता है नहीं इस धरा के वीर को
बढ चलो पथ  सामने है
 शत्रु  का संहार कर
पार्थ अपने देख सामने न कर्त्तव्य से इनकार कर

कृते  अंकेश  
  

क्या प्रश्न तुम्हारा परिचित था
या  उत्तर मेरा अनुचित था
या सीमाओ से घिरे हुए
सन्दर्भों से विचलित था

कृते अंकेश

उस पर मेरा अधिकार कहा था 
मुझको यह स्वीकार कहा था 
अलग अलग थे अपने रस्ते 
फिर भी मेरा इनकार कहा था

कृते अंकेश 


नयन बेपलक कापते रहे
उन परिंदों के पर नापते रहे
उड़ते रहे  आसमानी रंग  में
बेफिक्र  उनके संग में

समय भी बहता रहा
हसते  हसते  कहता रहा
रंगीन  शामें   सजती गयी
खामोशिया कुछ और बदती गयी

 मुलाकातों के दौर न थमें
 बस हम साथ साथ  चले
  गलत  होगा अगर हम कहे
 हमने कुछ न पाया

यह उनका ही तो साथ है
जिसने इतना कुछ सिखाया   
छोड़ सब चल दिया में उस जहा मैं 
बहती है बस तेरी खुशबु जहा आसमा में 
सितारा बन चमकते हो तुम जिस गगन के 
स्वर्ग के सामीप्य रहते हो दमकते 




सजती सभा स्वाधीनता
सम्राट सा सम्मान है
सम्पूर्ण सृष्टि सार सरिता
सज रहा सुरधाम है
स्वतंत्र स्वयंभू स्वराज्य का
हो रहा उदघोष  है
लहरा रहा  तिरंगा
हर साँस में अब जोश है 

इस तिरंगे में छिपे है 
सेकड़ो तप त्याग के 
छोड़ वैभव को गए जो 
हसते  इस संसार से 
ढूंढता योवन जिन्हें था
दे रहे थे आहुति 
शूलिया थी थक गयी 
उनकी  कहानी न रुकी 

ओज के वो पुष्प थे 
थे इस धरा के पुत्र वो 
रच  गए इतिहास  स्वर्णिम   
मृत्यु से अभिरुद्द हो
देखती थी स्वप्न जो
आँखे हमेशा वो रही 
है  हकीकत  सामने  
उपहार उनकी देन ही 

नाद मस्तक ताल हृदय 
बढ  रहे  अविराम है 
प्रेरणा उनसे मिली 
जीवन नहीं विश्राम है 
स्वप्न है बस अब सजाना 
बाकि क्या जिए और क्या मरे 
और क्या वह जिंदगी 
जो न हुई राष्ट्र  के लिए 

न मुझे यु  सता बंधू न मुझे यु सता 
न मुझे है पता तेरे दिल में है क्या 
मेने देखा नहीं ख्वाब  कोई यहाँ 
जो  रहा था रहा तेरे दिल में रहा 
न मुझे यु सता बंधू न मुझे यु सता 


खेलते खेलते ही कहा छोड़ दिया तुम्हे 
मुझे याद ही नहीं 
ओ बचपन
खेल ही खेल मैं न जाने कितने आंसुओ को हम हँसा जाते थे 
शरारतो से हमारी घर गूंजा करता था 
छोटे बड़े सभी तो हमसे खिलखिला कर हसते थे 
आसमा तक जाने के सपने सजते थे 
वो खिलोने आज भी इंतज़ार में है 
की शायद फिर से कोई खेलने आएगा 
शायद खामोशियो को फिर से तोडा जायेगा 
तेरे जाने के बाद एक भीड़ में छिप गए है हम 
भीड़ जो बस बदती ही जाती है 
भीड़ जो अँधेरे के गर्द तक जाती है 
सिरहानो को लिए पीता  हूँ 
अब तो बस तेरी यादो में जीता हूँ 
क्या तुम कभी आओगे ओ बचपन 
क्या मुझे फिर से अपने साथ ले जाओगे ओ बचपन 

कृते अंकेश  

Thursday, November 01, 2012




ख्वाइश न मेरी सुलझ पाती
सपने न मेरे उलझ पाते
कितने सारे रस्ते जुड़ते 
मिलते, आते और मिट जाते 

 उम्मीदों को में  अपनी 
फिर तोडा करता जोड़ा करता 
कागज पर लकीरे खिची हुई 
फिर फिर  उनको मोड़ा करता 

जाना मैंने तुमको जितना 
तुम दूर हुए मुझसे उतना 
ख्वाबो की हकीकत रही छिपी 
सिमटा सा रहा बस कोई सपना 

कृते अंकेश 

Sunday, October 28, 2012

एक आहट साँसों के स्वर से 
मिटती गयी तवस्सुर से  जुड़ के
 बरबस अनायास आ निकली 
अंखियो  से मणिको की टोली 
खेल रहे हम उससे होली 

रंग भी अपने रहे निराले 
तोड़ तोड़ कर सपने डाले 
और जला दी उनकी होली 
साँसों ने आवाज़ न खोली 

उड़ता धुआ रहा चिल्लाता 
कब तक छाएगा सन्नाटा 
गयी नहीं पर  ख़ामोशी खोली 
रहे खेलते बस हम होली 

कृते अंकेश 
तोड़ लकीरों को  आ लिख ले 
सपनो की फरियाद नहीं 
रिश्ते जाति देश दीवारे
कुछ रह मुझको याद नहीं 
एक आँगन में साँसे ले 
और एक गगन में भरे उड़ान 
एक उम्मीद ही रहे सर्वोपरि 
खुशिया पाए हर इंसान 

कृते अंकेश 

Friday, October 26, 2012

जूते खा कुर्सी मिली, कुर्सी से धनवान 
जो न जूते खाए वो, रहे आम इंसान ||   
इज्ज़त थी तब धन नहीं, अब धन  है इज्ज़त नाही
इज्ज़त की किसको पड़ी, जब बेईज्ज़त पूछा जाये ||   कृते अंकेश 

गहन वेदना 
अवलंबन है अपरिचित अनुभूतियो की 
अविस्मित अनजान अनकही 
स्वरविहीन जीवित बस मध्य रही 
पूर्ण हो तुम आज भी 
जब ढूंढते विश्राम हो
ठोकरे ही प्रेयसी
जिनसे गिरे हर शाम हो
स्वच्छता या सरलता
बस यही आभूषण तेरे
दिव्य है वो पुष्प जो
थे रहे तुझको घेरे
चेतना तुझको लिए जाती रही अस्माक में
पूर्णता ही बस रही सदा तेरे साथ में

कृते अंकेश

Monday, October 22, 2012

पत्ते पतझड़ को रहे ताक 
टूटे डाली से हो अवाक् 
ठोकर में उड़ते इधर उधर 
अब इनकी किसको रही फिकर 

छूटी डाली और भ्रम टूटा
बस पल भर में ही घर छूटा
अब तो एक झोके का एहसान
ले चले कहा बना मेहमान

ऐसे सपने बस रहे टूट
हर पल जाते वो कही छूट
और में इन सबसे हो अनजान
रचता फिर से स्वप्न एक नादान

कृते अंकेश
बर्तन चाँदी के खनक रहे 
जेवर सोने के भड़क रहे 
मिटटी के प्याले रहे सुप्त 
तप क्रोधानल में बने युक्त 

आ उमड़े है मेघो के झुण्ड
हो गयी कालिमा छाया है धुंध
बरसे नैना कुछ अविस्तार
थे रहे कहा जब की पुकार

लहरें टकरा कर गयी टूट
सागर से भी वो गयी छूट
लेकिन छोड़े तट पर निशान
नयी लहरें जिसे रही पहचान

कृते अंकेश