Wednesday, May 14, 2014



यह कविता अभी कुछ  पंक्तियो तक और चलेगी
जब तक कवि को नही मिलता एक शीर्षक
जिस पर लिख सके वह एक कविता
वैसे ऐसा नही है कि  कविताएँ शीर्षक  मिलने पर ही लिखी जाती हो
और वास्तविकता तो यह है की अधिकांशत: कवितायेँ शीर्षकविहीन ही होती है
जीवन की तरह
कौन जानता है अपने जीवन का शीर्षक
या अगर हम कुछ मान  भी लेते है तो कितना सटीक उतरता है वह शीर्षक जीवन पर
जीवन  तो जिया जाता है स्वछंद, अपनी ही धुन और अपने ही हिलोरो मैं
ठीक उसी तरह कवितायेँ भी बहती है  विचारो की गंगा में
शीर्षक के बंधनो  से परे
एक अन्त की ओर

कृते अंकेश

Tuesday, May 06, 2014


I equally enjoy conversation and silence
and feels as if both are my friends
conversations takes me to the world of others
while silence brings me to of my own

Ankesh

Friday, May 02, 2014

क्यों उदासी से भरी तेरी खुशी, तेरी हसी
क्यों हैं गुमसुम सी पड़ी, रंगीन तेरी जिंदगी
क्यो खिला चेहरा तेरा, है आँसूऔ से भीगता
यह निशब्द वाचाल मन, आवाज किसकी खीचता
क्या रूके है पग कभी, जिंदगी के शमशान से
है सफल वो जिसने देखें, सुख और दुख मेहमान से
ठोकरो में जो चला है, जिंदगी के हर कदम
छीन ही लाया है सपना, था सहेजे उसका जो मन

कृते अंकेश
मन सरगम है, दिल छूटा क्यों
क्यों रुठ गया सपना मन का
अपना न सका जीवन जिसको
वो पंझी पनघट छोड़ गया
रात अधेरी अब किसे पुकारे
अपना कौन यहाँ होगा
उड़ता बादल कहाँ को बरसे
सूना आगन फिर से होगा

कृते अंकेश

सोचकर देखो क्या बसंत आएगा
अभी तो गिरा था लहू
जमीन से उसका निशान भी नहीं मिटा
क्या इन घाटियो में फूल फिर से खिल पायेगा
सोचकर देखो क्या बसंत आएगा
वो डाल रहे है परदे आखो पर अनगिनत
पर क्या इस मन को भी कोई ढक पायेगा
सोचकर देखो क्या बसंत आएगा
मुझे नहीं पसंद है उदासी और रक्तरंजित तस्वीरें
पर क्या जेहन में जो बसा जो जा पायेगा
सोचकर देखो क्या बसंत आएगा

कृते अंकेश