Saturday, November 26, 2011

नीड़ तुम कितने घने हो
है सघन मेरा भी मन
बढ रहा हूँ में भी प्रतिक्षण
चाहता हूँ में भी पाना
आकाश की ऊंचाइयों को
लेकिन नहीं में जान पता
यह नहीं पहचान पाता
इस बदलते परिवेश में
कैसे अडिग तुम खड़े हो
नीड़ तुम कितने घने हो

कितने बसाये घोसले हो
फूल और फल से लदे हो
ग्रीष्म,शीत और शिशिर में
एक से ही बस  खड़े हो
काश में पहचान पाता
राज़ यह में  जान पाता
इन गुणो से जीवन में अपने 
तेरे सद्रश सम्मान पाता 
नीड़ तुम कितने घने हो

 कृते अंकेश

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