Sunday, February 23, 2014


सुन्दर छवि या मोहक चेहरा या मुस्कान निराली
तेरे इन रूपो पर कवियो ने कितनी कविता लिख डाली
आज नहीं पर मेरी कविता तेरे रूप के गुण गायेगी
नहीं आज यह फिर से तेरी मोहकता पर इठलाएगी

आज समर्पित कविता उनको जो नहीं रूप को गाती
सौम्य, चातुर्य और चरित्र से जिनकी सुंदरता आती
संघर्षो का जीवन जीती जो रह दूर  किसी स्वप्न महल से
दुःख के सायो में भी चलती बिन हारे अपने कल से

उनके जीवन की  करुणा में जग का  सौन्दर्य छिपा है
उनके जीवन के आवेशो में जग का जोश छिपा है
उठकर आती अपने दम पर, अपना अस्तित्व है रखती
इस कविता की नायिका है वह , नहीं किसी पत्रिका की युवती

कृते अंकेश

Sunday, February 16, 2014

तुम तक पहुचना 
जितना आसान है 
उससे कही ज्यादा मुश्किल भी 
में हर एक बार तुम तक पहुचने से पहले 
न जाने खुद से कितनी बार गुज़रता हूँ 
लेकिन जब पंहुचा हूँ आखिर में तुम्हारे पास 
तुम कितनी आसानी से मुझे अपने साथ ले गयी हो 

कृते अंकेश

मैं लालायित तुम्हारे रूप, तुम्हारे बालो का
क्या भेजोगे उत्तर मेरे अनगिनत सवालो का
में प्रेम के विस्तार में संकीर्ण कितना हो गया
पल जिसे तुमने  बताया एक युग ही  खो गया
दे सकोगे क्या मुझे उपहार अब इंतज़ार का
आ सकेगा अंत क्या इस चीड़ के विस्तार का

मौन ही भाषा मेरी पर क्या तुम्हारे बोल है
अंकित छवि नयनो में मेरे शेष यह अनमोल है
कितनी ही लिखता रात उनसे बनकर बस यु अजनबी
शायद सुबह तुम सुन सकोगे क्या कमी मुझको खली
अब जबकि हम है खो चुके तुम आज भी फिर पास हो
न मिट सकेगा जो कभी भी वो आखिरी अहसास हो

कृते अंकेश

Saturday, February 15, 2014


जो लोग भीड़ में खड़े होते है
वो भीड़ से उतने ही दूर होते है
भीड़ हमेशा एकांत को तलाशती है
यह प्रकृति का विरोधाभास ही है
कि हम  हर उस चीज़ की कल्पना करते है
जो हमारी पहुच से कोसो दूर है
उड़ना मनुष्य ने सहज ही नहीं सीखा
यही विरोधाभास हमेशा उससे प्रश्न करता  रहा
कि क्या है आखिर वह जिसकी खोज में चले जाते है अनगिनत पक्षी
यही जिज्ञासा ले गयी उसे
असीमित ज्ञान के भण्डार के पास
उसने पंखो को कागज़ पर उकेरा
मष्तिष्क से परिष्कृत किया
और तकनीक के उपयोग से स्व्प्न को वास्तविकता  में बदला
बस कुछ इसी तरह भीड़ ढूंढती रहती है अनगिनत प्रश्न और उनके हल
इसी विरोधाभास के दम पर

कृते अंकेश

सुन रही हो क्या वो तुम
जो कहती खामोशी मेरी
मौन बनकर ढूढ़ती यह
बात दिल की अनकही
ला सकोगी क्या मुझे फिर
पास तुम दिल के मेरे
कह सकोगी शब्द क्या वह
अब तक रहे जो अनकहे
यू इस अधूरे गीत का
प्रस्ताव तुम तक बुन रहा
इक ध्वनि की आस में
फिर से खामोशी चुन रहा

कृते अंकेश

तुम तक पहुचाये ख़त कितने
कितनी रात गुज़री उन तक
कुछ शब्दो में, कुछ अश्को में
भींगे ख़त जो पहुचे तुम तक
न जाने क्या तुमने पाया
इंतज़ार में बीते पल फिर
इंतज़ार न खत्म, लिखा ख़त
चलता फिर से, फिर फिर यह क्रम

कृते अंकेश

Thursday, February 13, 2014


यह खिड़की ही मुझे जोड़ती है
उस हक़ीक़त से
जिसमे एक सुबह होती है
दिन निकलता है
शाम ढलती है
चहल कदमी, लोगो के आने जाने के स्वर
बस का हॉर्न, गाडियो की आवाज़
साईकिल की घंटी
लोगो की भीड़ का एकत्रित स्वर
सब कुछ
बता सकता हूँ
बिलकुल ठीक ठीक
कितने पल, घंटो, दिन और वर्षो से बैठा हूँ
इस खिड़की के इस तरफ

कृते अंकेश

Wednesday, February 12, 2014


प्रेम खोलता है सपनो को
प्रेम जोड़ता है अपनो को
प्रेम सुबह प्यारी सी लाता
प्रेम रात्रि शुभ कहता जाता
प्रेम हँसा करता होठो पर
प्रेम खिला करता चेहरो पर
प्रेम नहीं वैचारिक पुस्तक
प्रेम नहीं अनजानी दस्तक
प्रेम नहीं है व्याधि भारी
प्रेम नहीं है जिम्मेदारी
प्रेम का केवल परिचय इतना
मैंने तुमको समझा अपना

कृते अंकेश

Monday, February 10, 2014


बताइये यह क्या बात हुई
भ्रष्टाचार कूड़ा है
तो अगर वह कूड़े को खत्म कर देंगे
तो इन सुअरो को खाना कोन देगा
अच्छा तो क्या फिर वो सुअरो को ख़त्म करेंगे
तो फिर कूड़े का क्या होगा
वैसे भी  कूड़ा तो केवल सूअर नहीं फैलाते
कूड़ा तो सभी ने फैलाया है
तो सभी क्यो नहीं बंद कर देते कूड़े को फैलाना

कृते अंकेश


श्यामल तेरे केशो सी लगती आती हुई  काली घटा
इनकी घुंघराली छवि में कौन सा जादू बसा
है  नयन तेरे सरीखे कोई न पाया यहाँ
पलको ने तेरी सदा इनको छिपाये है रखा
ढूँढता है नभ जिसे वो चांदनी तुझमे छिपी
है अधूरा गीत इसकी रागिनी तुम हो कही
बढ़ रहा यादो से तेरी वक़्त का यह काफिला
उम्र ढल जाए मगर न ढल सकेगा  सिलसिला

कृते अंकेश

Friday, February 07, 2014


आप सभी के प्रेम एवं प्रेरणा से मेरी 400 वी रचना......

चाहे जिसका समर्थन करो 
जिसके विचारो से सहमत हो 
उसको बेहिचक अपना लो 
पहले ही बहुत समय खो चुके है हम
इस आपसी छींटाकशी में
शर्त बस इतनी सी है
जो भी मार्ग चुनना
तुम्हे बनाना होगा बेहतर भारत को

कृते अंकेश
बस इक बार कहो तुम मेरी हो
मैंने जीवन की राह चुनीं 
उस पनघट की ही छॅाह चुनी
जिस पर लगती तेरी फेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो

मैंने शब्दों को बहलाया 
सब कुछ हैं उनको समझाया 
पहुचे जो तुम तक अगर कभी
कह देना फिर न देरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो

कृते अंकेश
श्यामल केश, सजी मुस्कान
लटे घुघराली खींचें ध्यान 
छिपाये मन में कितने राज
छवि स्पष्ट नयन के पास 

कृते अंकेश

मैं तुम्हारी हू चमक
या कि मैं अपनी खनक
या जुड़ी तुझसे कही
या कि तेरा सार हू
लोग कहते हैं मुझे
तेरा अधूरा प्यार हूँ
तुम मुझे देखा करो
या कभी सोचा करो
जोड़कर मुझको कभी
खुद को जो मोड़ा करो
बस उसी पल तक तुम्हारे
साथ मैं हर बार हूँ
लोग कहते हैं मुझे
तेरा अधूरा प्यार हूँ

कृते अंकेश

कहने को तो सड़क जोड़ती इस मिट्टी को उस मिट्टी से
पर कितने ही खेत तोड़ती इस मिट्टी से उस मिट्टी के
इन्ही रास्तो से जाता है उन शहरो का माल तमाम
लूट खसोट या साम दाम हो बिकता है बस यही किसान
फिर भी सींच रहा वो मिट्टी अपने श्रम के पानी से
मिल पायेगा उसको क्या कुछ अबकी इस राजधानी से

कृते अंकेश

कभी कभी स्पष्टता दुखो को बढ़ाती है
इसीलिए कुछ चीज़े अस्पष्ट ही बेहतर है
जैसे कि बेहतर है कुछ लोगो का मानना कि
ईश्वर है, स्वर्ग है और पुनर्जन्म की अवधारणा
और इस बहाने गरीबी के सारे दुखो को भूल जाना

कृते अंकेश
हैं कोई जिसे यह दिल 
चाहता है हर घड़ी 
दूर पास न पता 
हैं कहाँ वो अजनबी 
बस अधूरी याद ले
बढ़ रही हैं जिन्दगी 
इंतजार है इसे 
फासला मिटे कभी 

कृते अंकेश