Wednesday, November 26, 2014

मेरी मंगलमय मुस्कान
मेरा प्यारा हिन्दुस्तान
जा मंगल पर दूत यह अपना
ढूढ़ने लगा जीवन का निशान
बधाइयाँ
पथ कितने, रथ कितने, कितने महल बना लो
चाहो तो अगणित वैभव का अम्बार लगा लो
जब न्याय का शंख बजेगा लुटा हुआ पाओगे
देख फसे सारे मोहरे चेस्ट पैन ही लाओगे
अंकेश
मन के अक्षर तुमसे जुड़कर न जाने अब किस ओर चलेंगे
समझायें कोई इनको मतलब, रस्ते हैं बड़े, कदमो से चलेंगे
कृते अंकेश
मन चंचल सा एक कोना हैं
मन मेरा एक खिलौना हैं
मन दूर हुआ कब तुझसे था
मन को तुझमें ही आ खोना हैं
कृते अंकेश
मन किस प्रहर के गीत गाये अनसुने
मन इस शहर को छोड़ जाए बिन रुके
मन पक्षियो के पंख लेकर जा उड़े
मन तेरे घर की झुरमुटो में जा छिपे
मन ढूंढता वह शाम जिसमे थी तू रही
मन सोचता है रात वो थी क्यो ढली
मन उड़ता है फिर फिर उस पल के लिए
मन जुड़ता है जाकर वो सपना जिए

कृते अंकेश
तन तेरा पंझी
मन मेरा उड़ता
दूर गगन में बादल बनकर पास तेरे जुड़ता
तन तेरा पंझी
सपनो को लेकर अपने अंक में उड़ चल तू
रात अधेरी डरना कैसा
साथ में हर पल हूँ
तन तेरा पंझी
किसने देखा जग यह
कितना और बड़ा
साथ में तेरे चलू वहाँ पर, पथ जहाँ लिये चला
तन तेरा पंझी

कृते अंकेश
मन के बादल पंक्षियो ने रात की बारिश में उतारें
भींगे सारे सपने मेरे, अंखिया अंसुओ से सवारें
मन के बादल पंक्षियो ने रात की बारिश में उतारें
रूठकर चल दी दुपहरी, रात का आँगन घिरा है
तोड़कर खुशिया सुनहरी, कोई सपना ले गया है
मन पहर को ढूंढकर, कैसे समय वह बाँध डाले
मन के बादल पंक्षियो ने रात की बारिश में उतारें

उड़ रही बातें पुरानी या कोई उनको फिर कह रहा है
दर्द अंखियो से पिघलकर या कही फिर बह रहा है
तम के बहाने रात ने भी सम्बन्ध सारे तोड़ डालें
मन के बादल पंक्षियो ने रात की बारिश में उतारें
कृते अंकेश
देखा एक उफनता दड़बा
काठ की खटिया
हाड़ का पुतला
कागज, रद्दी, ढेर था सारा
गिरा कही न उठा दोबारा
स्याही के छीटो में छिपकर
मानव काया रही बिखरती
आज वहा पर अाकर दुनिया
कवि के घर को देखा करती

कृते अंकेश
टूटकर बहता था आंसू
रूठकर कहता था आंसू
रात ने मुझको अकेला आज जाने को कहा है
फिर से मुझको और थोड़ा मुस्कुराने को कहा है
कृते अंकेश
फिर कहाँ पग डाल भवरा
चल पड़ा नदियों के तीरे
रात उसकी हैं अधूरी
ख्वाब उसके हैं अधूरे
फिर कहाँ पग डाल भवरा
चल पड़ा नदियों के तीरे
जोड़कर फूलों की माला
उसने पथ को था सजाया
और परागो से चुराकर
सौरभ गंध भी डाल आया
फिर पथिक ने क्यों न आकर
थे कहे कुछ शब्द धीरे
फिर कहाँ पग डाल भवरा
चल पड़ा नदियों के तीरे

कृते अंकेश
रेतो में फसकर पैर से उलझे
बने किले हाथो से छलके
आसान था कितना पल
जब थे सारे सपने चंचल
बस हाथो को था फैलाना
और सपनो में जाकर उड़ जाना
उछल कूंद मस्ती वो सारी
होती बड़े बड़ो पर भारी
न जाने गया कब फिसल
मेरे जीवन से वो बचपन

कृते अंकेश
फिर क्यों न कहें परिजन वनिता
शब्दों के सहज अनुगामी विरल
अवधि होती हैं अल्प तरल
समता होती है अति सरल
बहते क्यों हैं संदेशों में
तकते क्यों हैं अनुदेशों में
रखते क्यों हैं स्वभाव विकल
जुड़ता हैं संशय बन विह्वल

कृते अंकेश

मौन अभिव्यक्ति है आँसू की
आँसू मौन की नही
कृते अंकेश
शर्म क्या है आंसुओ में
क्यो भला उनको छिपाना
मेरी कविता ने पिरोया
बदला है उनका ठिकाना
ढूंढती है दर्द को भी
यह कलम जाकर जड़ो में
टूट मुरझाया गिरा क्यो
फूल इनको खोज लाना

कृते अंकेश
दीपक बन जगमग जग कर दो
झोली सबकी खुशियों से भर दो
अन्धकार अज्ञान को हर कर
ज्ञान प्रकाश से जग को भर दो
तोड़ विषमता की दीवारे
समरस सरल यह जीवन कर दो
हर पीड़ा दुर्बल तन मन की
जग ज्योति को जगमग कर दो

कृते अंकेश
मेघ बरसे हो अभी क्यों
जग यहाँ सोया हुआ
कौन जाने ख्वाब में किस
अब यहाँ खोया हुआ
रात बनकर एक सहेली
करती रहीं बाते देर तक
पास आया जब सवेरा
चल पड़ी आँखें फेर कर
नीद ही बस अब ठिकाना
साथ इनका खोया हुआ
मेघ बरसे हो अभी क्यों
जग यहाँ सोया हुआ

कृते अंकेश
शहर की झोपड़िया सन्नाटे को समेट लेती है, इनमे लगी कंक्रीट बड़ी सख्त होती है जिसके आर पार रिश्ते बमुश्किल ही गुज़रते है (Ankesh)
मिलन अकस्मात् होता है लेकिन पहचान नहीं
पहचान अत्यत्न जटिल प्रक्रिया है
ऊहापोह मन की शब्दो में घुलती जाती है समय के साथ
लोग उभरते है मन पर
शीशे पर जमी हुई कोहरे की भाप की तरह
कोहरा हल्का या गहरा
पानी बनकर ऊँगली पर छा जाता है
चाहो तो सम्भालो और न चाहो तो बहा दो
वरना पहचानने के लिए तो उम्र भी कम है

कृते अंकेश
तुमसे प्यार करना स्वप्न से प्रणय करना था
जहा सिर्फ जीवन भर लम्बा इंतज़ार पनपता है
आज भी अँधेरा तुम्हारी अनुपस्थिति का एहसास नहीं कराता
Ankesh Jain
तुम्हारा प्रेम कांच की तरह था
स्पष्ट
जहा कुछ छिपाया नहीं जा सकता
लेकिन यह जब टूटा तो कांच की ही तरह टुकड़े बन बिखर गया
चुभते हुए यह टुकड़े दर्द देते है
हर एक टुकड़े में तुम्हारी ही तस्वीर लिए

कृते अंकेश
कुछ शब्द बस इंतजार करते रह जाते है
होठो के बीच फसकर
यदा कदा आँखें उनमें से कुछ को बाहर निकालती तो है
लेकिन यह भाषा मुश्किल से ही किसी को समझ आती हैं
लोग यहाँ मौन को पढ़ना भूल चुके है
जीवन के शोर में
और कुछ शब्द बस इंतजार करते रह जाते है

कृते अंकेश
प्रेम कुछ ढाचो या कुछ शब्दो में सीमित रह जाने वाली चीज़ नही
न ही यह कुछ चिठ्ठियो में सिमट पाता हैं
कुछ शामे इसे अपने इर्द गिर्द पाती तो जरूर हैं
लेकिन रात के अंधेरे में बहकर यह कही दूर निकल जाता हैं
कृते अंकेश
कोई न छेड़े समय को
इसकी है उलझन निराली
ढूंढा मिला न कही पर
रहता था जहा वक़्त खाली
कृते अंकेश
हर ज़िंदगी तीन पहलुओ में बटी होती है
सोशल, पर्सनल और सीक्रेट
सोशल वह हिस्सा है
जिसे आप देख सकते है
पर्सनल वह हिस्सा है
जो आपको दिखाया जा सकता है
सीक्रेट इन हिस्सो से बचा हुआ वह अंश है
जिसमे पहुचना बेवजह आफत को मोल लेना है
यही तो वजह है कि इसको छिपाया है

कृते अंकेश
जिसे प्रदर्शन की आवश्यकता पड़े
वह प्रेम नहीं है
प्रेम मौन में भी हो सकता है
प्रेम विध्वंश में भी
प्रेम सभ्यता के साथ हो सकता है
प्रेम समाज के विरूद्ध भी
प्रेम अनोखा भी हो सकता है
प्रेम सरल भी
लेकिन जिसे प्रदर्शन की आवश्यकता पड़े
वह प्रेम नहीं है

कृते अंकेश
कहानी अधूरी ही रह जाती
अगर तुम छोड़ देते सपनो को सिरहाने
उबलते रहने के लिये हमेशा
मिट्टी में पड़े निशान
आवाज है तुम्हारे कदमो के जाने की
सुनता हू में आज भी
इनका सूनापन

कृते अंकेश
मन भ्रमर मत मान कहना
चंद्र चंचल चितवनो से
है भला बस चुप ही रहना
मन भ्रमर मत मान कहना
रश्मि किरणें भाल पर सज
बेधती जाती ह्रदय को
केश घुघराले घटा घिर
छेड़ती जाती प्रलय को
देख इनके जाल मे
अब नही तुझको है बहना
मन भ्रमर मत मान कहना

कृते अंकेश
भावनाए मनुष्य में जन्मजात होती है
हार्मोन्स का फ्लो इन्हे एपीटौम पर ले जाता है
बच्चे भावनाओ की क्षणभंगिमा एवं निश्छलता का सजीव उदहारण है
आँखो के आंसू कब मुस्कान में बदल जाये पता ही नहीं चलता
उनकी मेमोरी पूर्ण विकसित नहीं होती
इसलिए वह अपने से छल नहीं कर पाते
इसीलिए भावनाओ का प्रदर्शन सभ्य समाज में बचपने के नाम से जाना जाता है
विकास के क्रम में हम भावनाओ का दमन करते है
और एक निष्ठुर ह्रदय बन जाते है

कृते अंकेश

Thursday, September 18, 2014

अगर आसान ही हो ज़िंदगी, तो क्या मज़ा है जीने में
और भला क्या वो मोहब्बत, जहाँ दर्द मिले न सीने में

कृते अंकेश
कच्चे से धागे है
शाखो से जुड़ते है
लिखते है अपनी कहानी
कैसे शुरू होती
कोई न जाने
यारी हो कितनी पुरानी
लड़ते झगड़ते है
मिलते बिछुड़ते है
बनती सवरती निशानी
बचपन ही सजता
संग यारो में हसता
चाहे हो बीती जवानी

कृते अंकेश
बारात

बारात बस पहुचने ही वाली थी, सारे यार दोस्त जम के नाच रहे थे। पांच मीटर की दूरी एक आध घंटे में तय हो रही थी। बैंड भी अपनी पूरी शोहरत बिखेरने में लगा हुआ था । हुड़दंग अपनी चरम सीमा पर था। गानो की फरमाइशें की जा रही थी और बैंड वाला गायक एक साथ किशोर, रफ़ी, कुमार शानू बना हुआ एक ही सुर में सभी गानो को गाये जा रहा था। लोग इतने बेसुध थे कि कोई अगर मैयत का राग भी छेड़ दे, तो वह उस पर भी नाच दे। शादी के मंडप का दरवाजा अब सामने ही दिख रहा था। उधर की तरफ के कुछ लोग भी नृत्य दर्शन करने आ गए थे। भारतीय बारातो में होने वाला यह नृत्य दर्शन अभिनय की चरम सीमा होता है। नृत्य न जानने वाले भी भरे बाज़ार में असंख्य लोगो के बीच इतने विश्वास नृत्य करे, यह भला मज़ाक थोड़े ही है।

इन सब के बीच मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। माना नृत्य देखकर मुझे भी मजा आता है, मैंने भी कई शादियो में ऐसे ही नृत्य किया है, लेकिन जब खुद पर आती है, तब पता चलता है। आज यह नृत्य देख मुझे ऐसा लगने लगा मानो किसी ने व्यंजनो की दुकान के आगे खड़ा करके हाथ पैर बाँध दिए हो। लेकिन जब आदमी कुछ नहीं कर पाता है, तब वह परोपकारी बनने का प्रयत्न करता है। मैंने भी मान लिया कि दूसरो की ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी है। में भी दोस्तो के नृत्य को देखकर आनंद का अनुभव करने लगा।

गाने एक एक कर बदलते जा रहे थे, लोग नाच नाच कर पसीना हो गए थे, बारात लगभग थम ही गयी थी, घोड़ी भी अब स्थिर होकर नृत्य देख रही थी, कि तभी अचानक गाने की आवाज़ में ब्रेक लग गया। हेलो, टेस्टिंग, - बन, टू ,थ्री, शायद एम्पलीफायर में खराबी आ गयी थी। दोस्त लोग बैंड वाले पर भड़कने लगे, यह क्या बात हुई, अभी तो मूड में आने वाले थे और अभी गाना बंद कर दिया। बैंड वाला तुरंत जाकर वैद्युत उपकरणो को देखने लगा, लेकिन उसकी मनोदशा को देखकर पता चलता था कि उसे कुछ नहीं पता। लड़की के पिताजी भी आ पहुंचे थे और यह भानकर कि कुछ गड़बड़ हुई है, जायजा लेने में लगे हुए थे कि तभी किसी ने बोला, अरे मिंकू तो इलेक्ट्रिकल इंजीनियर है न, उधर घोड़ी पर क्या बैठे हो, इधर आओ और एम्पलीफायर सही करो।एक तो तुम्हारी शादी में फ्री में डांस कर रहे है और तुम मज़ा भी बिना मेहनत के वसूलना चाहते हो।

अभी कुछ देर पहले तक जो निगाहे उस नृत्य मंडली पर थी, वो अचानक से मेरे ऊपर आ टिकी, मरता क्या न करता, में उतरने लगा कि तभी कोई बोला, हाँ हाँ, पता भी तो कर ले कि यह इलेक्ट्रिकल इंजीनियर है भी या नहीं, वरना बाद में पता चला ऐसे ही किसी को अपनी लड़की दे दी। मुझे गुस्सा तो बहुत आया, पर कहते है न, कि समझदारी इसी में है कि गुस्से पर काबू रखो, आखिर शादी तो मेरी ही है न, उनका क्या बिगड़ेगा अगर कुछ उल्टा सीधा हो गया, यह सोचकर में बैंड के उपकरणो की तरफ चलने लगा।

सभी लोग मेरी ओर देख रहे थे, मेरे माता पिता उम्मीदो के साथ, भाई होसला बढ़ाते हुए, पडोसी कपटी मुस्कान के साथ और लड़की के पिता शक भरी निगाहो से। एक तो यह एम्पलीफायर न जाने किस कबाड़ से निकाला हुआ था, किसी पुराने उपकरण को जोड़कर गाने वाली मशीन बना दी और अब मुझे थमाकर बोला जा रहा है, या तो मशीन को पहले जैसा करो वरना बोलो की तुम इंजीनियर नहीं हो और शादी, उसके बारे में तो में सोच ही नहीं पा रहा था।

मैंने वहा तारो को देखना शुरू किया, मैंने बैंड वाले से पूछा, मल्टीमीटर है? वह आश्चर्य से मेरी ओर देखकर बोला, नहीं हम पियानो से ही काम चला लेते है। तभी कोई रिश्तेदार बोला, अरे अब तुम जो है उसी को सही कर दो न, क्या इजूल फिजूल की चीज़े मांगने में लगे हो।

कहते है जब मुसीबत आती है, छप्पर फाड़ के आती है। बीच सड़क पर आपकी क्वालिफिकेशन का परिक्षण आपको ऐसे लोगो को देना है, जिन्हे कुछ ज्ञान नहीं और आपका इंजीनियर होना या न होना बस अब एम्पलीफायर के बापिस बजने तक सीमित है।

मुझे ज्ञान का महत्व पता है लेकिन ज्ञान को प्रमाणित करने का गुर शायद मेरे गुरु मुझे सिखाना भूल गए थे।

तभी अचानक से बूंदाबांदी शुरू हुई और देखते ही देखते बारिश होने लगी। सभी लोग दौड़कर मंडप की ओर जाने लगे। मेरे होने वाले ससुर मुझे चलने का इशारा कर रहे थे। में तो उम्मीद ही छोड़ बैठा था लेकिन लगता है भगवान ने मेरी इज़्ज़त रख ली।

कृते अंकेश।

© सर्वाधिकार सुरक्षित
कुछ उखड़े पंख सही
कुछ बिखरे रंग सही
कुछ ही सांसें काफी है
मन में उम्मीद जो बाकी हैं

कृते अंकेश
तुम्हारी घड़ी में
समय की सुईया कसी हुई है एक केंद्र में
फिर से आ जाता है वही समय बार बार तुम्हारे पास
मेरी घड़ी टूट चुकी है
समय मुक्त बहता है मेरे लिए
में नहीं रो सकता बीते हुए समय के लिए
वह नहीं आएगा लौटकर मेरे पास
मेरा भविष्य मेरे वर्तमान से पूर्णतया मुक्त है
मेरा समय आज़ाद है

कृते अंकेश
मेघ जरा अपनी अखियो को
जल में थोड़ा और उतारो
मन के सारे भेद निकालो
जग को तुम जल से भर डालो

सुबह तुमसे पूछ रही है
रात अधेरी किधर गयी है
लेकर किसका खत यह अधूरा
रवि की किरणें बरस रही हैं

तोड़ कर इन रस्मो की चादर
मन को थोड़ा और उतारो
मेघ जरा अपनी अखियो को
जल में थोड़ा और उतारो

कृते अंकेश
मायूसी तुम्हें किसका इंतजार हैं
चेहरे तुम्हें ओढ़कर बिखरे हुए है
फिर किसके लिए तुम्हारा दिल बेकरार हैं
मेरी मुस्कान तुम्हारी इज्जत करती हैं
इसीलिए यदा कदा वो चेहरे पर सवरती हैं
छोड़कर तुम्हारी संगत अब तो यह काया भी सांस न लिया करती है
लगता हैं जैसे इसको तुमसे ही प्यार हैं
मायूसी सच कहो तुम्हें किसका इंतजार हैं

कृते अंकेश
यु तो मौन भी एक बड़ी स्वीकृति है
विरोध में निहित सांकेतिक प्रवृत्ति है
स्वर लेकिन सजाते है विषय मौन का
वाणी से पिरोते है विस्तार व्योम सा
निकली ध्वनि जो मुख से थी पहली
भाषा वो मेरी है सर्वप्रिय सहेली
अब तन चाहे कितने ही गोते लगाये
मर्म मन का मातृ भाषा में ही आए

कृते अंकेश
प्रियवर मेरा श्रृंगार कहाँ  है
जीने का अधिकार कहाँ  है
नाच रही बस काया मेरी
बोलो इसका सत्कार कहाँ है

मेरा खोया प्यार कहाँ है
खुशियो का संसार कहाँ है
ढूंढ रही है अँखियाँ जिसको
वो जीवन का आधार कहाँ है

प्रियवर मेरा श्रृंगार कहाँ  है

में बावरी बनकर भटकी
जीवन स्थिरता को खोजा
चंचल मन था रहा भटकता
मिला न कोई जिसने रोका

कह दूँ अंतर्मन की पीड़ा
ऐसे पल का व्यापार कहाँ है
रख दूँ अपने मर्म का हीरा
बोलो ऐसा संसार कहाँ है

प्रियवर मेरा श्रृंगार कहाँ  है

कृते अंकेश

Wednesday, July 02, 2014

रात भर जला शहर यू अपनी आग में
ढूंढती थी फिर सुबह क्या बचा है राख में
बनकर हवा थी उड़ गयी, रुप, वैभव और छवि
कोयलों के ढेर में आखो की नमी शायद बची
संभोग मे रत अस्थिया, गिद्दो की चौचो की नौकपर
क्षण में बदला हैं शहर, क्षणभंगुरता को छोड़कर

कृते अंकेश
"पीजा" एक बहुतायत से मिलने वाला एवं आसानी से खाया जा सकने वाला भोज्य पदार्थ है, पीज़ा आलसियो के लिए सर्वोचित भोज्य पदार्थ है, जहा समस्त भोज्य सामग्रियो को एक साथ पका कर दे दिया जाता है ताकि आपको अनुचित प्रयत्न नहीं करने पड़े , वैसे पीज़ा को इसके नाम के अनुरूप पीया नहीं वरन खाया जाता है, यह विरोधाभास इसके विदेशी नाम को यथावत हिंदी भाषा में सम्मिलित करने के कारण हुआ है , वैसे भी इससे खाने वालो को क्या फर्क पड़ता है कि नाम क्या है? और रही बात इसे खाने वालो की, तो आलसी लोग खाने का प्रयत्न कर रहे है, वही काफी है, हालाँकि बहुत से लोग इसे गले से नीचे उतारने के लिए शीत पेय पदार्थो का सहारा लेते है, जिसे देखकर संदेह होता है की कही वह इसके नाम पाश में तो नहीं फस गए है?

अंकेश जैन
Time is like a diode,
which restricts its flow in one direction
but like a real diode,
which however good it is
can allow some current to flow in the reverse direction
Similarly time for some of its entity
however strong they are
can sometime travels back through memories

Ankesh Jain



समय एक डायोड की तरह है
जो केवल एक दिशा में चलता है
पर जैसे एक वास्तविक डायोड में कुछ न कुछ रिवर्स करेंट बहती है
उसी तरह यादें हमें समय की धुरी पर फिर से अतीत में ले जाती है
हालांकि यह कमज़ोर होती है
और कभी कभी ही अपना प्रभाव दिखाती है

कृते अंकेश
गम की हिफाजत करो
यह हुनर बन कर छा जायेगा
पिघल आँसू बहा दोगे जो इसे
यह जीना भी व्यर्थ चला जाएगा

कृते अंकेश
इश्क अगर मुझको तुम तक ले जाये, तो अच्छा है
इश्क़ मगर अश्को में बहकर न आये, तो अच्छा है

कृते अंकेश
If the mountains are the biggest slice on earth's cake
Rivers are the nature's knife cutting its cake
And taking the soils to the plain
So that people can grow their grain
This feat is enjoyed by all
Sharing is a joy afterall

Ankesh
घनन घनन घिर घुमड़ घुमड़ घर घाट घने घुमड़त घुमड़त
बदरा बदलो बदकिस्मत, बेहकत बैचैन बना बालक बरवस
पवन प्यार पाती पत्तर, पत्तो पर पड़ता पानी पट पट
झड़ झंझावत झाड़ी झुरमुट झड़ झील झड़त झटपट झटपट

कृते अंकेश
कभी उलझकर मुझमे, कभी बिखरकर मेरे बिस्तर पर
कभी समेटकर मेरी पहचान को खुद में
मेरी आत्मा का निशान हो तुम
मेरे तन के प्रेमी ओ मेरे कपडे
मेरी भी जान हो तुम
तुमने ही जाना है मुझको
इतनी नजदीकी से
बिखरे हो तुम आकर मुझ पर
जब बिखरा में जिंदगी से
भूल थी मेरी जो ठुकराया तुमको
फिर भी तुमने अपनाया
झूमे थे तुम साथ ख़ुशी में
दुःख में आ अपनी बाहो में छिपाया
तुझ में छिपकर ही अब मेरी पहचान यहाँ है
ओ प्रिय नग्न मेरी देह तुझ बिन
इसका अभिमान कहा है

कृते अंकेश
हर बीता हुआ पल कुछ कह देता है
और छूटा हुआ प्रेम भय देता है
सपने अक्सर उलझते है, टूटते है
छूटते है रूठते है
रूठे हुए सपनो को जग सह लेता है
लेकिन छूटा हुआ प्रेम भय देता है
संगीत के तरानो पर
समय के फसानो पर
दोस्ती के अफसानो पर
मन अपनी उलझनो को कह देता है
लेकिन छूटा हुआ प्रेम भय देता है

कृते अंकेश
कविता लयबध्द हो
जरूरी नहीं तोड़कर बढ़ सकती है अक्षरो एवं मात्राओ की गिनती
एक विषय पर ही रहे जरूरी नहीं
बदल सकती है अचानक
जैसे प्रेमिका का इंतज़ार करता प्रेमी कल्पना करता है
उसके आने की, न आने की
यह कल्पना ही उसकी कविता है
बीतता हुआ समय उसके शब्द है
विश्व एक मंच और आते जाते लोग श्रोतागण
कविता तो स्वरो की साधना है
प्रार्थना है यह लेखक की
पूजा है कवि की
है कुछ अक्षरो का क्रम उसके लिए
जिसने नहीं जानी कभी इसकी हस्ती

कृते अंकेश
आँखे जिसे देखती है
परखती है, अपनाती है
उसकी ही होकर रह जाती है

कृते अंकेश
नीद अमीरो की दुनिया की जागीर नहीं होती
मिलती उसको भी जिसके सर छत नहीं होती
क्यो न भूख को भी हम ऐसी आज़ादी दिलवाएं
बिना भेद भाव के भोजन सब तक पहुचाएं
मनुज नहीं पाता है जीवन केवल क्षुदा को हरने को
खो देता है लेकिन जीवन भूख से लड़ने को
इस अनियंत्रित क्रम पर क्यो न कुछ तो रोक लगाये
बिना भेद भाव के भोजन सब तक पहुचाएं

कृते अंकेश
प्यार भी एक खेल है

प्यार भी फुटबाल की तरह होता है
एग्रेसिव स्ट्राइकर तुरंत स्ट्राइक लेते है
गोल करते हैं, चले जाते है
डिफेंडर या गोलकीपर जो खेल को बचाने की कोशिश में लगे रहते है
आखिर में गोल खा ही जाते है
और नासमझ दुनिया सिर्फ गोलो को गिनती है

कृते अंकेश

Sunday, June 01, 2014


हम न जाने कब बड़े हुए, आ दूर घरो से खडे हुए
माँ तेरे आंचल सा लेकिन, नभ मैं है विस्तार कहा
मिलती होगी दौलत और शोहरत, पर तेरे जैसा प्यार कहा

कृते अंकेश

शब्द बिखरते रहे
गिरते रहे जमीन पर
बेसुध, बेहोश
भीड़ से भरे भवन में कवि के निशान मिटते गए
दूर वीराने में
कोई लिखता है
शब्दो को चुन कर
पिरोता है अक्षर से मोती छंदो में बुनकर
सजती है कविता उन पन्नो पर

कृते अंकेश
जल गया इश्क़
यादो की राख रह गयी

कृते अंकेश
युद्द एक आतिथ्य है
दुश्मन के सम्मान का
है एक प्रयोजन यह
भोज्य विषपान का
प्रेमवश योद्धा अरि स्वागत
करे अस्त्र शस्त्र से
मृत्यु भी आज हुई व्यस्त
जीवन के इस नृत्य से

कृते अंकेश

मौन सदा था तेरा उत्तर
लिखते थे तुम इंतजार
मुझे सिखाया समय ने लेकिन
तुमको बस करना ही प्यार

कृते अंकेश
जाओ तुम, ले जा सके जहा, तुमको यह आकाश
मुझको है विश्वास
मिलूंगा कही वहा ही पास
जहा होगा तेरा आवास
समय सजा ले अब चाहे फिर कितने ही वनवास
रहोगे तुम्ही सदा ही ख़ास
रहो चाहे जिसके भी पास

कृते अंकेश
लोकतंत्र का पहरेदार
अब मोदी अपना सरदार
सभी पडोसी देश साथ में
बजा रहे है ताल से ताल

नहीं जोड़ तोड़ का धंधा
नहीं खरीद फरोख्त व्यापार
सीधे सीधे अपने दम पर
लो आ गयी अपनी सरकार

कृते अंकेश
लोग भूल जाते है
रिश्तो के धागो की उलझन खुल ही जाती है
घनघोर घटा हो काली सुबह फिर भी आती है
पल के आवेशो में अखिया व्यर्थ भिंगाते है
लोग भूल जाते है

कृते अंकेश
दर्द कवि को पाला करता
प्यार उसे बहकाता है
कवि को खुशिया कभी न देना
इनसे कवि मर जाता है

कृते अंकेश

"Why the decision has been made in this way"...

When I reached there, she was lying on the bed. Her eyes were closed. A long plastic tube carrying medicine and glucose was going all over her chest and injecting everything into a tiny blood vessel of her left hand.

Not every time those blood vessels can be seen so clearly, part of it had swollen and making itself more visible.

"I do not want to be here, will you please take me away", her voice was shivering with pain or fever but she was directly looking into my eyes.

Before I could say anything, doctor came and asked me to move out as they were going to do some more investigation. I saw her and came out.

I met her two years before in an art exhibition, though she was not a participant yet she was carrying an album. Its cover page was a portrait of a woman holding an umbrella which was closed and she was looking at the drops of rain falling over her body. I went to her and asked if I could see the album. She happily gave it to me. Her all sketches were centered around a person and as if asking why the decision had been made in this manner. I too showed her my work, It was a piece of glass carved into a shape of a woman holding a child in one hand and a mudpot in another hand. Suddenly the same question popped up in my mind, "why the decision has been made in this way". After this we have met few more times and shared our works and contact details. Since last one year she never came to any exhibition. I thought of calling her some times but the idea used to get slipped from my mind due to some or other reasons. It was today when I got a call from the hospitals that shruti one of their patient is wishing to see me.

Ankesh Jain

नेताजी क्या हाल हुआ है
देखो इस स्टेट का
बना हुआ है अड्डा यह क्यो
मर्डर और रपे का

कहा बनेगा उत्तम प्रदेश
क्या उत्तम मतलब उजड़ा है
देखो समय अभी भी बाकी
गणित अभी न बिगड़ा है

कुछ तो सोचो, कुछ तो समझो
जनता को न बहलाओ
लल्लू अगर नहीं है काबिल
खुद ही कुछ कर दिखलाओ

कृते अंकेश
खिड़किया समय के परदे होती है, यह बिना समय गवाए बाहरी दुनिया तक पहुचने का एक माध्यम है, खिड़कियो के सहारे ही हम अपने अपने घरो अथवा कार्यालयो में बैठे रहकर ही बाहरी दुनिया से सम्बन्ध स्थापित कर लेते है, खिड़किया हमें वह दिखाती है जो हम देखना चाहते है। यह द्वार नहीं है जिससे बाहर जाने पर आप पूरी तरह से एक दूसरी दुनिया में आ जाते है, खिड़कियाँ आपको दूसरी दुनिया तक लेकर तो जाती है, लेकिन बिलकुल चुपचाप, एकदम गोपनीय तरीके से, आप चाहे तो किसी भी समय खुद को एक झटके में फिर से पहली दुनिया में खीच सकते है , वस्तुत: आप कभी शारीरिक रूप से दूसरी दुनिया में जाते ही नहीं है बल्कि आपके दृश्य पटल पर दूसरी दुनिया के अभिदृश्यो को उकेरा जाता है, शायद इसीलिए खिड़कियो का खुलना ज्ञान की अभिवृद्वि का प्रतीक माना जाता है । खिड़किया चाहे दीवारो में हो, तन में हो अथवा मन में हो, इनका खुलना हमारे ज्ञान क्षेत्र को विस्तृत बनाता है । समय के साथ साथ यह खिड़कियाँ भी विकसित होती गयी, रेडियो, चलचित्र, दूरदर्शन, इंटरनेट आदि खिड़कियो के आधुनिक रूप है जो हमें विभिन्न प्रकारो से दूसरी, तीसरी एक अनेको दुनियाओं से जोड़ते रहते है

कृते अंकेश

मुझे पत्तो में खुशबुओ को बटोरने की आदत है, पत्ते स्वभाभिकत: खुशबू को नहीं संजोते है लेकिन पुष्प के सानिध्य में रहकर वह खुशबू के भी साथी हो जाते है, वैसे जरूरी भी तो नहीं पुष्प सभी के हिस्से में आये। इन पत्तो की महक पुष्प के मिलने से कही अधिक मादक होती है क्यूंकि पत्ते पुष्प की तरह क्षणभंगुर नहीं होते, यह एक लम्बा जीवन जीते है

कृते अंकेश

Wednesday, May 14, 2014



यह कविता अभी कुछ  पंक्तियो तक और चलेगी
जब तक कवि को नही मिलता एक शीर्षक
जिस पर लिख सके वह एक कविता
वैसे ऐसा नही है कि  कविताएँ शीर्षक  मिलने पर ही लिखी जाती हो
और वास्तविकता तो यह है की अधिकांशत: कवितायेँ शीर्षकविहीन ही होती है
जीवन की तरह
कौन जानता है अपने जीवन का शीर्षक
या अगर हम कुछ मान  भी लेते है तो कितना सटीक उतरता है वह शीर्षक जीवन पर
जीवन  तो जिया जाता है स्वछंद, अपनी ही धुन और अपने ही हिलोरो मैं
ठीक उसी तरह कवितायेँ भी बहती है  विचारो की गंगा में
शीर्षक के बंधनो  से परे
एक अन्त की ओर

कृते अंकेश

Tuesday, May 06, 2014


I equally enjoy conversation and silence
and feels as if both are my friends
conversations takes me to the world of others
while silence brings me to of my own

Ankesh

Friday, May 02, 2014

क्यों उदासी से भरी तेरी खुशी, तेरी हसी
क्यों हैं गुमसुम सी पड़ी, रंगीन तेरी जिंदगी
क्यो खिला चेहरा तेरा, है आँसूऔ से भीगता
यह निशब्द वाचाल मन, आवाज किसकी खीचता
क्या रूके है पग कभी, जिंदगी के शमशान से
है सफल वो जिसने देखें, सुख और दुख मेहमान से
ठोकरो में जो चला है, जिंदगी के हर कदम
छीन ही लाया है सपना, था सहेजे उसका जो मन

कृते अंकेश
मन सरगम है, दिल छूटा क्यों
क्यों रुठ गया सपना मन का
अपना न सका जीवन जिसको
वो पंझी पनघट छोड़ गया
रात अधेरी अब किसे पुकारे
अपना कौन यहाँ होगा
उड़ता बादल कहाँ को बरसे
सूना आगन फिर से होगा

कृते अंकेश

सोचकर देखो क्या बसंत आएगा
अभी तो गिरा था लहू
जमीन से उसका निशान भी नहीं मिटा
क्या इन घाटियो में फूल फिर से खिल पायेगा
सोचकर देखो क्या बसंत आएगा
वो डाल रहे है परदे आखो पर अनगिनत
पर क्या इस मन को भी कोई ढक पायेगा
सोचकर देखो क्या बसंत आएगा
मुझे नहीं पसंद है उदासी और रक्तरंजित तस्वीरें
पर क्या जेहन में जो बसा जो जा पायेगा
सोचकर देखो क्या बसंत आएगा

कृते अंकेश

Sunday, April 27, 2014


इस अंधियारे युग में तुम जिसे प्रकाश समझते हो
वह तो एक दावानल है
अभी तुम्हे जगमगाहट दे रही है
लेकिन दूर नहीं दिन
जब वो सब कुछ जला जाएगी
जो लोग तुम्हे इससे दूर जाने को कहते है
समझो कि  वो तुम्हारे शुभचिंतक है
वैसे इतना आसान भी नहीं है
प्रकाश को छोड़कर अन्धकार में जाना
लेकिन जो प्रकाश तुम्हे अनायास मिला है
वह तुम्हारा कैसे हो सकता है
समझो की यह मात्र भ्रम है
चेतो इससे पहले कि तुम्हारी चेतना शून्य  हो जाए

कृते अंकेश

Tuesday, April 22, 2014


इस कोरे  कागज़ पर लिख सकते हो रहस्य अंतरिक्ष के
सुलझा सकते हो सभी  समस्याएं विज्ञानं की
अंकित कर सकते हो गणनाएं जटिल से जटिलतम

या लिख सकते हो एक कविता किसी के अनुभावो की
अथवा कोई कहानी वास्तविक या काल्पनिक
भरना चाहो तो भर सकते हो  इसको रंगो से
सजा सकते हो अपने सम्पूर्ण सपनो को इस पृष्ठ में

 दे रहा है समय तुम्हे मौका
 इस पन्नें से होकर बार बार इस दुनिया में गुजरने का

कृते अंकेश

Saturday, April 19, 2014


लल्ला चो रे
को जीतेगो जा बेर
टोपी कि मोदी
का कहतु है
अरे चचा पंजा ए काए भूल गए
तुमन्ने तो वइये जितायो  है हर बेर
अरे लल्लू का बताये
ससुर जो हाथ सर पे समझत रहे
वो गलो दबा के निकल लओ
अबे तो तू बता
काइको बटन दवाएगो
टोपी कि  मोदी

कृते अंकेश

हाथ में लेना तिरंगे को अगर अभिमान है
इसके रंगो की अगर तुमको फिर पहचान है
देखना न रंग कोई फिर तुम्हारे माथे चढ़े
जो चढ़े तो बस तिरंगा ही हमारी मृत देह पर चढ़े

कृते अंकेश
वो थी बात पुरानी जब नर होता था नारी पर भारी
आज की नारी डायटिग करती, होती खुद ही न भारी
मनुष्य को देवता न बनाओ
सर्वत्र उसके गुण न गाओ
वह इस भूमि के अपराधो का भागी है
उसे स्वर्ग में न लेकर जाओ

कृते अंकेश
फागुन की रिमझिम की झिम झिम
भींझ रही गलियन, गलियन के जन
पोखर बन गयी सिगरी गलिया
बाल चलावे नावन की नदिया
लगो की आयो फिर से सावन
छाड़ लाज़ भींजत है जन मन
फागुन की रिमझिम की झिम झिम

फिर फिर आवत जाड़े की कपकप
होली जले तो आवे राहत 
त्योहारन को लगो महीना
जमके सबको भंग है पीना
करत रहे सब बस यह बतिया ठोरे
फागुन कि कछु बातही औरे

फागुन की रिमझिम की झिम झिम

कृते अंकेश
कहू किसे यो मन की बात
सभी सखी कान्हा के साथ
क्या कान्हा रूठे है मुझसे
कौन बतावे मुझको आज
बंसी आज तुझे नहीं कोसू
तू ही श्याम का ध्यान बटा
इन गोपियो के जमघट से तू
मेरे कान्हा को मुक्त करा
फिर चाहे तू ही कर लेना
उसके अधरो पर अधिकार 
व्याकुल मन की पीड़ा को पर
हर ले ओ मुरली तू आज

कृते अंकेश
मनमोहक ग्वाला नन्द का लाला, वो ब्रजवाला गया कहा
बंशी को छाडे, गइयन को ठारे, राधा का प्यारा गया कहा
श्यामल अखिया, धावल बतिया, मोर मुकुट, कटि कमर कसे
ग्वाल बाल संग आवे जावे, मुख माखन तस्वीर सजे
कहा ओ मैया तेरा कन्हैया, किस बंसी के साथ फिरे
सूनी गलिया तीर है यमुना, ब्रज अब किसके संग हसे

कृते अंकेश
मन मोहक मुस्काती मुरली, मुख माखन मस्तक मोरपंखी
मृदुल मनोहर मणिकर मध्ये, माधव मन मंदिर में मिलते
माटी मथुरा माथे मंजुल, मानस मांगे मिलना मधुकर
मिटतो मन मेरो मोह में माधो, मेरी मन मझधार मिटादो

कृते अंकेश
बोलो किसकी यह तैयारी है
जब साथ में भ्रष्टाचारी है
दल बदलू इससे उससे
क्यो हुई दोस्ती प्यारी है
है सत्ता तो दूर अभी
माना तुम मशहूर अभी
पर प्यारे न यु चाल चलो
जीती बाज़ी न हार पड़ो

कृते अंकेश
कौन बताऔ जग में ऐसा
जिसने खेली है न होली
कोई खेला इसके रंगो से
और किसी की रंगी है चौली
यह न पूछो रंग यहा पर
किसने किस पर कैसा डाला
सभी हुए रंगीन यहा पर
रंगो का यह खेल है सारा
आऔ खोकर सुधबुध अपनी
इन रंगो में ही खो जाए
रंगो से ही अपने जीवन को
इन रंगो सा रंगीन बनाए

कृते अंकेश

इक मन तन्हा
इक मन सूना
इक मन ख़ामोशी में गुमसुम
कितने टुकड़े, कितने जीवन
कितने पल और कितनी उलझन

कृते अंकेश

हैं मनोहर नग्न पीड़ा
आसुंओ का आघात भी
विष के प्याले है सुखोदर
और घृणा का साथ भी

हार में भी है मजा और
मूल्य तिरस्कार में
मिलते है अनुभव अनोखे
हुए दुर्व्यवहार में

लेकिन रहे है जो अभी तक
सीमा में स्नेह और प्यार की
जानते है क्या वो सीमा
इस अनोखे संसार की

कृते अंकेश

कुछ नटखट सा कुछ चंचल सा
ऐसा ही होता है बचपन
माँ की गोदी से पापा के हाथो में
होकर गुज़रना होता है बचपन
अपनी सारी मांगो को बेहिचक मनवाने का
अधिकार होता है बचपन
और सभी लोगो से ले लेना
ढेर सारा प्यार, होता है बचपन

अपनी शैतानियो से लोगो को 
हँसा देना होता है बचपन
बस यु ही किसी भी बात पर
आंसू बहा देना होता है बचपन
चीज़ो को सीखने की असीमित
और अटूट लगन होती है बचपन
मनुष्य के जीवन की
सुनहरी किरण होती है बचपन

कृते अंकेश
मुझको डुबो कर गया है समय जितनी बार
निखर गया है यह चेहरा उतनी ही बार
धुल गयी है शंकाए मेरे मन की
बह गयी है कश्मकश जीवन की
नहीं दिखें इस चेहरे पर फिर चिंताओ के तार
मुझको डुबो कर गया है समय जितनी भी बार

कृते अंकेश
दोहा

मोदी आगे बढ़ रहे, खीचे केजरिवाल
मैडम फ़ौरन से कही, लेट्स मेक सरकार

कृते अंकेश

जो कहते है
इन इंसानो को
आता ही नहीं चलना, उड़ना
जाना ही क्या है, उनने अभी
सपना इंसा का है अपना
उड़ता है वो, बहता है वो
रहता है वो, अपने में मगन
यह दुनिया अभी इस काबिल न
समझे जो उस इंसा का मन
रंगता है वो, लिखता है वो 
छेड़ा करता है धुन भी नयी
माना कुछ शब्द है मिले नहीं
पर यु कविता रही न अधूरी कभी
उसको इन सपनो को चुनकर
है रंग हकीकत में ढल जाना
चेहरे बदलेंगे सपने भी
पर हर सपने को सच कर जाना

कृते अंकेश
मोदी विकास पुरुष नहीं विनाश पुरुष है
शादी न कर वंशवाद का विनाश किया
इतने सालो में एक अच्छा सा घोटाला न कर
पूजीवाद का विनाश किया
गुजरात को औद्योगिक बनाकर
साम्यवाद का विनाश किया
सदभावना रैली करवा कर
धार्मिक भेदभाव का विनाश किया
नादान है वो जो कहते है की
मोदी विकास पुरुष है

कृते अंकेश
लैपटॉप पर कोडिंग करती
की बोर्ड चलाती माँ
में जाकर हेल्प कराऊँ
तो मुझे दूर भगाती माँ
ए इ आई बोल समझाऊ
फिर भी हेल्प नहीं लेती माँ
जब तक में गुस्से से न चिल्लाऊ
लैपटॉप नहीं छोड़ती माँ
 
थी वो छोटी सी बमुश्किल साल भर की ही रही
में नया था उस शहर में
वो थी दुनिया में नयी
दूर से देखा मुझे और दूर से निकली गयी
खींचती रेखा अनोखी
मानो कहती हो
सोचना इसमें आने का भी नहीं
था वो मेरी मौसी का घर
धर्म की नगरी प्रयाग
डाला था मैंने वहा
अपनी शिक्षा का पड़ाव
और फिर दिन कैसे गुज़रे
था समय भी दौड़ता
उस दौड़ के ही बीच में
कुछ समय मौसी के घर में भी गुज़रता
और वो नन्ही सी लड़की
कब मेरी गोद तक आने लगी
कुछ सुने और कुछ अनसुने अपने मन के किस्से सुनाने लगी
और भी बच्चे वहा थे पर वो उनमे सबसे छोटी रही
अपनी बातो से सदा वो ध्यान मेरा मोहती रही
कहती मुझको अंकेश वो
भइया भी थी जोड़ती
बाक़ी बच्चो से अलग पर वो नाम मेरा बोलती
मुझको यु तो उसने सिखाया काफी कुछ था उन दिनो
पर में बड़ा था सीख न सकता था सब उसकी तरह
पूछती मुझसे थी क्यो स्कूल में रहते हो तुम
मैंने बोला सब बड़े रहते है तो हो जाती गुमसुम
और फिर अगले ही पल बोली की होगे आप भी
में हँसा तो हसने लगी फिर वो मेरे साथ ही
खेलती थी खेल सारे वो मेरे साथ ही
हार कर भी जीतता में
उसकी हसी नादान थी
मुसकराती थी वो हमेशा
खेल से अनजान सी
लाती ठहाको का भी डेरा
सोचती हैरान सी
और फिर पूरा हुआ
मेरा भी शिक्षा का यह क्रम
बोला उसको फिर मिलेंगे
आप पड़ना लिखना फिर आ जाना स्कूल में मेरे ही संग
वो मगर अचरज में थी
था उसे न यह पता
में नहीं हिस्सा वहा का
चल भी दूंगा इस तरह
उसके बचपन ने हमेशा देखा मुझको था वहा
और अचानक छोड़ना मुझको भी अच्छा न लगा

कृते अंकेश

कितनी रातें थक कर मुझसे यु ही चुपके से निकल गयी
सुबह की किरणे उनके जाने का सन्देश लिए ही खड़ी रही

कृते अंकेश
वो हसे
और हस कर इनकार कर दिया
थी वही हसी
जिस पर हमने सब कुछ इजहार कर दिया
है कायदे यह वक़्त के
और मौसम के मिजाज़
मिलते है अब भी
लेकिन अब हम भी हसते है उनके साथ

कृते अंकेश
क्या सुन सकोगे गीत मेरा
ला नहीं पाया संगीत निरा
मांगू कैसे यहाँ मधुरता
जब फैली है निष्ठुरता

कह दे कोई उपवन है मेरा
सीचा इसको बस प्रेम से था
उजड़ा कैसे फिर घर यह मेरा
शत्रु परिचित उपवन में ही था

में आज भी लेकिन गाऊंगा
फिर गीत नयी उम्मीदो का
है सीखा मैंने जग से इतना
मुस्कानो को मिलने दो मौका

कृते अंकेश

थे कहा तुम
दूर पलके
थी निहारा करती प्रतिदिन

थे कहा तुम
मेघ आते
और बरसते यु ही रिमझिम

थे कहा तुम
यह पवन भी 
शोर करती थी सारा दिन

थे कहा तुम
रात बीती
जैसे बीता हो यह जीवन

कृते अंकेश

कितने शब्द बिखेरू आज
कुछ शब्दो में छिपा के राज़
केह जाऊ क्या सारी बात
कितने शब्द बिखेरू आज

सुनने वाले तोल रहे है
मेरे शब्दो के आगाज़
सुनने से ही पहले लगते
उनके है बदले अंदाज़
कितने शब्द बिखेरू आज 

मेरे शब्द बहुत है थोड़े
यहाँ वहा से लाकर जोड़े
कर सकता बस सीधी बात
नहीं छिपा सकता कुछ राज
कितने शब्द बिखेरू आज

कृते अंकेश

छोड़ न साथी साथ अभी
लम्बी है यह रात अभी
अधियारे मे कौन कहाँ
जाए बिछुड़ न चले पता
कुछ सभ्हले जो रात अगर
बनती हो जो बात अगर
फिर सुन लेना मुझको भी
कह देना जो दिल में थी
शायद हम जिद छोड़ भी दे
सपनो का रूख मोड़ भी दे 
तब तक आ खामोशी पी
यह पल भी मैरे साथ ही जी

कृते अंकेश
भौर भयी मन
खोल रे अखिया
आती किरण भी
जगती है सखियाँ
लाये नये रंग
दिन का उजाला
कोई सजायें
सपनो का प्याला
खेले कोई
पलको के किनारे 
करता रहे कोई
बस यू इशारे
सपनो की धुन में
कोई है जाता
पवनो का झोका
हमे भी झुलाता
मन मेरा जैसे
वासुंदी खाये
आकर हमे भी
कोई जगाये

कृते अंकेश

माँ एक किताब लिखी जो तूने
उसका पन्ना आ उड़ यहाँ गिरा
लोग जरूरत पड़ने पर है पढ़ते
तुझ सा इसे न कोई समझा

यहाँ किताबे इतनी सारी
क्या तुझको में बतलाऊ
तेरा आँचल भी तो नहीं है
बोल कहा अब छिप पाऊ

तूने रखा संभाले जिसको
वो अब धूल में उड़ता है
पन्ना है यह लेकिन तेरा
अपनी लेखनी से टिकता है

कृते अंकेश
यहाँ भूख से अकुलाते बच्चे की छाती अड़ी रही
और वहा उस थाली में रोटी बेसुध सी पड़ी रही

कृते अंकेश

बस साध लीजिये बात
जुड़े फिर  जाने किससे
कितने होगे हाथ
आएंगे किसके हिस्से

यह दुनिया है  घर
कि बेघर ढूंढें ठिकाना
आये गए है कितने
कितनो ने पहचाना

में समझा  कुछ बात
की पाया खुद को भ्रम में
बीत जाये यह रात
चले जायेंगे नभ में

कृते  अंकेश

Friday, April 11, 2014


पेट भरा जो हिन्दू का
जपे राम का नाम
मुस्लिम भरे पेट से करता
अल्लाह ही का ध्यान
जो खाली रह जाये फिर
हिन्दू मुस्लिम का पेट
आती दोनो के ध्यान में
चीज़ वही फिर एक
मिले कैसे न कैसे
खाना कही भरपेट

कृते अंकेश

Tuesday, April 08, 2014


कुछ कविताये छोड़ कर गया था
आकर देखा तो स्वीपर ने फेक दिया था कूड़े में
बेकार का समझकर
उसने तो गिनी भी नहीं होगी
कितनी कवितायेँ है
मेरे कहने पर बोला
सर आप कहे तो कुछ कविता लाकर दूंगा में
मेरी बस्ती में भी एक आदमी कवितायेँ लिखता है
फेक देता है कभी कभी मेरे कूड़े में
आपके जैसे ही पेज होते है कुछ खाली कुछ भरे 
मुझे उसका प्रस्ताव अच्छा लगा
सोचा इसी बहाने कुछ नयी कवितायेँ पड़ने को मिलेंगी
और कूड़े में जा चुकी कवितायेँ अपनी किस्मत पर पछतावा नहीं करेंगी

कृते अंकेश

Saturday, March 08, 2014

यह आंसू उम्मीद का द्योतक
सपनो की यह शेष है स्याही
जिनकी पलके गीली अब तक
उनकी उम्मीदो ने हार न पायी

कृते अंकेश
मुझे कोई गिटार दो
बजाऊंगा में सरगमें
छेड़ कोई तार दो
जुड़ी हो जिससे धड़कने
गीत कोई दे मुझे
सजा रखी है ख़ामोशी
मुस्कुरा भी दे कोई
कहा छिपी हुई हसीं

कृते अंकेश
तुम तक पहुचे तो कह देना
वरना बहने देना इन शब्दो को
न जाने किसकी प्यास बुझाये
कहते जो कहने देना इन शब्दो को

मैंने तो बस कलम चुनी है
स्याही कागज़ पर बिखराई
न जाने किसने हाथो को मोड़ा
कागज़ पर कविता उभरी आयी

यह प्रश्न है जिसका भी लेकिन
हो उत्तर पास तो कह देना
न जाने किसकी प्यास बुझे
जो कुछ है सीधे कह देना

कृते अंकेश
लोग अपने आसूओ को पौछते थे बार बार
मैने सोचा क्यो न मैं खुलकर नहाऊ इनसे यार
रोकना क्यो निकला है जब आज अंदर का गुबार
देखे कहा ले जायेगी फिर, बहती हुयी यह जल की धार
कृते अंकेश
रात अँधेरे को लिए
लहरो पर सवार पास चली आ रही थी
और रेत के किनारे पर बैठी शाम हमें छोड़ कर जा रही थी
लोग इस सबसे अनभिज्ञ अपनी धुन में मदमस्त थे
रौशनी के पहरेदार चुपचाप परदे को बदलने में व्यस्त थे
कितनी आसानी से सब कुछ बदल जाता है
और यह जग फिर भी यु ही मुस्कुराता है

कृते अंकेश
इन कंक्रीट के जंगलो में
आदमी ही आदमी का शिकार करता है
गगनचुम्बी इन इमारतो के अंदर
एक गहरी खाई है
जिसमे सपनो का प्रतिबिम्ब दिखता है
जैसे जैसे आप ऊचाइयो को पाते है
वह प्रतिबिम्ब आपसे उतना ही दूर होता जाता है
हवा, रौशनी , हॅसी , मुस्कराहट सब अपनी है इस जंगल की
उतनी ही कृत्रिम जितनी की यह इमारत

कृते अंकेश
एक ठहरन ही तो है जो मुझको तुमसे दूर लिए जाती
वरना कितने अवसादो के बाद कहा रूक पाया में
मन के पंख उड़ा लेते थे कब के पास तुम्हारे फिर
ख़ामोशी, इनकारो से भी, कब कब था रुक पाया में

कृते अंकेश
एक आसू आखो से छूटा
पंखो में आ उलझा फिर
जो लगा सहेजे गिरा धरातल
जाने दे तू उड़ता चल
यह है बीज अगर बोएगा
आसू ही उपजाएगा
उड़ता चल तू अपनी धुन में
अभी बहुत कुछ पायेगा

कृते अंकेश
इंसान ने जब इंसानो से इंसानो को इंसानो की तरह जीने देने की प्रार्थना की है
उसे जानवरो की तरह ठुकरा दिया गया है
रेत दिया गया उसके गले को ताकि नहीं सुना जा सके कोई भी अक्षर
जला दिया गया उसकी लाशो को शहर से दूर ले जाकर
लेकिन मरने से पहले उन कापते गलो से निकले फिर भी कुछ अक्षर
जिन्हे नहीं समझ सकी सत्ता और मौत के सौदागर
हवा से बहकर फैल गए वह मीलो दूर जाकर
और सुनने लगे उसे सभी शहरो के कापते हुए मन

कृते अंकेश

Sunday, February 23, 2014


सुन्दर छवि या मोहक चेहरा या मुस्कान निराली
तेरे इन रूपो पर कवियो ने कितनी कविता लिख डाली
आज नहीं पर मेरी कविता तेरे रूप के गुण गायेगी
नहीं आज यह फिर से तेरी मोहकता पर इठलाएगी

आज समर्पित कविता उनको जो नहीं रूप को गाती
सौम्य, चातुर्य और चरित्र से जिनकी सुंदरता आती
संघर्षो का जीवन जीती जो रह दूर  किसी स्वप्न महल से
दुःख के सायो में भी चलती बिन हारे अपने कल से

उनके जीवन की  करुणा में जग का  सौन्दर्य छिपा है
उनके जीवन के आवेशो में जग का जोश छिपा है
उठकर आती अपने दम पर, अपना अस्तित्व है रखती
इस कविता की नायिका है वह , नहीं किसी पत्रिका की युवती

कृते अंकेश

Sunday, February 16, 2014

तुम तक पहुचना 
जितना आसान है 
उससे कही ज्यादा मुश्किल भी 
में हर एक बार तुम तक पहुचने से पहले 
न जाने खुद से कितनी बार गुज़रता हूँ 
लेकिन जब पंहुचा हूँ आखिर में तुम्हारे पास 
तुम कितनी आसानी से मुझे अपने साथ ले गयी हो 

कृते अंकेश