Monday, August 29, 2011

चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी 

जब घटा ने ओढ ली चादर कोई श्यामल पुरानी
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी 
था कभी  अपना सरोवर, तीर भी अपना ही था
दर्द से तपकर यह जल बाष्प बन उड़ता गया 
अब यहाँ सूखे अधर है
और है कुछ लुटी कहानी 
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी

दर्द से यु है नहीं कोई नया अपना यह नाता
ग्रीष्म में है स्वेद त्यागा उस घटा का बल बढाया
लेकिन तरसती आँख को अब नहीं आता रास
बहता रहे मेरा लहू  न मिटे उनकी प्यास
तरसे नयन है ढूंढते 
किसने है छीनी यह कहानी
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी

गर्जन है करती जो घटाए कह दो उनका बल हमसे ही है
है जो बैठी वह गगन में उनके अगन में हम ही है
फिर भी यदि न मानती वह सत्य की इतनी कहानी
तो चलो भरकर लहू ही आँख में जो न हो  पानी
जीतनी है अब हमें
अपनी खोयी किस्मत पुरानी
चल पड़ी यह मेघ सेना ले गगन में आज पानी

कृते अंकेश

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