Friday, December 31, 2010

पलको से ओझल होने को अब  चार कदम ही बाकी है
ढलने वाली है रात अभी
एक  नयी सुबह की  तैय्यारी है
उधडे से कपड़ो में बीता
यह साल रहा घोटालो  का
किसने किसको कितना लूटा
बिखरे संदेशो के हवाले का
न्याय क्षेत्र  भी शक की संज्ञा से बच न पाए यहाँ
लूटमार के अंतर्द्वद में विलुप्त हुआ है सत्य यहाँ
अर्थजगत की तस्वीरो में मेरा भारत उभरा है
खेलजगत की भूमि में  एक नया पेज सा निखरा हैं
आज विश्व की सर्वशक्तिया भारत में आकर टिकती है
अपने बाजारो  के दम पर उनकी अर्थव्यवस्था सुधरती हैं
बन स्वतंत्र ओर न्यायपूर्ण नीति से चलते जायेगे
उम्मीद हैं आने वाले कल  में विकसित भारत बन जायेगे
इससे पहले मेरे क्रम में एक नया वर्ष जुड़ पाए
धन्यवाद करता हूँ सबका
इस  आशा से,
उस कल में हम अपना सर्वत्र परचम लहराये

Saturday, December 25, 2010


कुछ पनघट से लाकर छोड़ा
कुछ अंखियो से पाकर जोड़ा
देख श्याम की राह में व्याकुल
गोपी का जल हुआ न थोडा
डूब गया दिन हुई है रतिया
लौट चली अब सारी सखिया
बोलो मेरे श्याम सलोने
ओर करू  में कितनी बतिया
कही बावरी रात का घूघट
मुझको अपने अंक न ले ले
नटखट हुई चांदनी देखो
अपने सारे भेद न खोले

इन बिखरी आँखो का काजल
अर्धविप्त नयनो   से बोले
बनी  श्याम की राह में व्याकुल
इन नैनो से श्याम न खो दे
चली बावरी पवन भी देखो
मंद सौम्य सी ध्वनि सुनाती  
कही श्याम की बंसी पाकर
मुझ पर तो न रोब जमाती
उठी दिवा सी स्वेत किरण जो
इंदु छवि है मेरे उर की
आलंगन अधिकार अधूरा
आकर्षित अमृत अनुभेरी 

नयन ताकते तेरी सीमा 
निशा चली अब अपने डेरे
देख रवि कि किरण क्षितिज  पर
भंवरो ने भी पंख है खोले 
बनी विरह कि बेधक ज्वाला
उषा का आह्वान कराती
अंधियारे से ढके विश्व को
अपनी लाली से नहलाती
कही श्याम कि चंचल लीला
निशा नीर सी  आई हो 
सम्मुख होकर भी गोपी से 
वह तस्वीर छिपाई हो
उठी सुप्त सी कोई छाया
चली कही वो अपने डेरे
छिपी लालिमा अधर में जाके
यमुनाजल रवि किरणो से खेले

 

क्रमश:
कृते अंकेश

Wednesday, December 22, 2010

प्रश्न


अपनो की हरकतो ने
गैरो का घर बसाया
जो आबो हवा दी थी मैंने
उसमे जहर  मिलाया
 कैसे कहू में सपना
 मेरा कभी न यह था
आज़ादी को मेरी
बंधन बनाया उसने
बिखरे  हजारो रंगो में
में रंग बस यह भूला
मेरी सदी का सपना
पल में भुलाया उसने  
कैसे बताऊ उनको
तुम भी हो मेरे अपने
उन अपने ही शब्दो  ने
जिन्दा जलाया मुझको

Tuesday, December 14, 2010

अखबारो की सुर्खियो में
कोई भ्रष्ट नेता न पाया
 जाग चुका या अभी स्वप्न है
 यह कैसा कलयुग है आया
समाचार की भाषा में अब
भ्रस्टाचार  पर्याय बन गया
जीवन की परिभाषा में
सत्य न्याय कही दूर छिप गया
आनंदित असुरो की सेना 
अपने कर्मो का न्याय  तोलती
संविधान को रखे ताक पर
स्वाभिमान से सदा बोलती
राज्य हमारे पितृ  सौप गए
 बच्चे को राजा बनवायेगे
 जनता का क्या वो जी लेगी
हम देश  बेच कर खायेगे 

Friday, December 03, 2010

स्मृति

अधूरी सी रही  जो ख्वाइश कभी 
वो आज जीने की ख्वाइश हुई
छिपे रंग बीते समय के तले
तस्वीरो को रंगी बनाने की ख्वाइश हुई

ढूँढो  बीता समय वो गुजरा सा कल
कहा बिखरे वो चंचल से पल
वो तेरी हसी अधूरी पज़ल
में भूला बेरंग मौसम की ग़ज़ल

तराशे से मोती वो साथी पुराने
नुक्कड़ की मस्ती कई अफसाने
अधूरी सी ख्वाइश अधूरी सी हस्ती
हकीकत की दुनिया में सपनो की बस्ती

चले संग बहते समय के तराने
किस मोड़ मिलते यहाँ कौन जाने
ख्वाइश ही संजोये चले जा रहे है
अधूरे से सपने पले जा रहे है