Tuesday, May 29, 2012

Commit the SIN and take the SHOWER

Life is full of surprises, every next moment of it can be a wonder, a nightmare or an usual second. It starts from a bed, ends to a bed and during the course goes through a number of beds, some of them are comfortable, some are not, but each one of them leaves an impression which is long lasting. Most of us takes the life as it comes to us unaware of its right and wrong. In true sense, saying something as right and wrong is very  vague and most of the time is limited by the extent of our knowledge. So it is highly probable to do wrong things and many times without even knowing it. But then committing the sin should not be such a serious issue as most of the times its an outcome of a probabilistic decision among the random choices which life offers to you. In fact a sin is not a sin until you realizes that you have committed the sin and this is the reason why people says, "Ignorance is the bliss". But even realization of committing such a sin does not make you a sinner unless you yourself endorse it. In fact its always a good choice to go and take a shower and hope that water will take away all the sin and make your soul clean. Random problems can have only random solutions and its not something new... the idea is well advertised and proclaimed in mythology too.. taking a dip in the holy river of ganga is no different from taking a shower, the true holiness comes from the realization and not the water. The ganga flows in every shower if you can realize it.

Wednesday, May 23, 2012

विषयों का आस्वादन हो 
लेकिन न हो जीवन की लय 
नहीं चाहिए देव मुझे 
खुशियों का ऐसा परिचय 
विभा कही हो पथिक कही हो 
सुगम  मार्ग हो रहा विरल 
दे देना इससे बेहतर तो 
पथ कोई मुझको दुष्कर 
क्षणिक रहे आभास कोई 
जीवन के इस संग्राम में  जो 
उचित ही होगा रहू  अपिरिचित 
नहीं सरल की चाह मुझे 
या कितनी ही व्याधि हो 
अथवा मार्ग हो रहा विकल 
बस देना मुझको इतनी शक्ति 
रहू  निर्णयों पर सदा अटल 

कृते अंकेश  


Monday, May 21, 2012

सत्यमेव जयते, समाज की जटिल समस्याओ को सिनेपटल के माध्यम से उठाने का एक बेहद सराहनीय प्रयास, धारावाहिक  के नवीनतम  अंक  में  दहेज़ की समस्या को दर्शाया गया हैं| दहेज़ कम  से कम भारतवर्ष के लिए एक नया शब्द नहीं है, यह कुरीति समाज में एक अरसे से विद्यमान है और ऐसा नहीं है की इस समस्या को उठाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया | बचपन में एक कहानी पड़ी थी जहा विवाहिता का भाई जब उसको सावन के महीने में बुलाने के लिए जाता है तो वहा  उसको काफी बेईज्ज़ती  सहनी पड़ती है |  उसको ताने दिए जाते है कि तुमने अपनी बहिन को कुछ दिया भी या ऐसे ही कोरी शादी कर डाली | बेचारा भाई सब कुछ सुनकर उनकी मांगो को मानने को तैयार हो जाता है, लेकिन विवाहिता की सास यह कहकर उसे लौटने को कहती है की पहले हमारी मांगे पूरी करो तब बहिन को लेकर जाना | भाई जाने ही वाला था,  कि सामने से अपने जीजाजी को आते हुए देखा, वह कुछ उदास दिखते थे| सास मन में  शंकित होकर पूछती है ... पूजा कहा है? .... अकेले क्यों आ गया?... जीजाजी दुखी होकर बोले.... उन्होंने कहा है पहले हमारी कही हुई चीज़े भेजो,  फिर लड़की को लेकर जाना.... चंद शब्दों में कहानी काफी कुछ कह जाती है, कहानी का सार था .... क्यों हम  भूल जाते है कि जो हमारे लिए कष्ठदायक   है वह दूसरो के लिए भी कष्ठदायक  होगा .... लेकिन दुर्भाग्य आज भी यह कुरीति समाज में विद्यमान है |

शिक्षा  एवं आत्मनिर्भरता इस समस्या से निबटने का एक महत्वपूर्ण साधन हो सकता  है | लेकिन नेतिक मूल्यों के बिना  इस लक्ष्य को प्राप्त करना उतना आसान नहीं है | अतएव मेरा व्यक्तिगत मत है कि इस समस्या से निबटने के लिए युवा वर्ग को जाग्रत करना सर्वश्रेष्ठ   विकल्प है | जिसमे शायद आमिर  जी का यह प्रयास  मददगार साबित होगा | 

Sunday, May 13, 2012

हुई रात मेरे तात भी आते 
देखो पंक्षी घर को जाते 
छोड़ो हाथ मुझे जाना है 
वापिस कल भी तो आना है 

अभी कहा है चाँद भी निकला 
रवि किरणों का रंग न बदला 
क्या है जल्दी कहा है जाना 
बना रहे हो व्यर्थ बहाना 

देखो रात घनी है घिरती 
तुमको सूझ रही बस मस्ती 
छाए मेघ है भींग न जाना  
 ऊपर से है पथ अनजाना

नहीं मिलेगा ऐसा मौका
छलकेगा जल जब अम्बर का 
तेरे चेहरे से मोती बनके 
उसका मुझको दर्श है पाना 

क्या है जल्दी कहा है जाना 
बना रहे हो व्यर्थ बहाना ।।


कृते अंकेश   
माँ मेरा परिचय तुमसे है 
में तो अंश तुम्हारा हूँ 
तुमने सिखलाया जिनको चलना 
उन कदमो से बढता आया हूँ
तेरी ममता की छाव सदा 
मेरा श्रृंगार रही हरदम 
इस जीवन की हर अभिलाषा 
तेरे कदमो में है अर्पण 

अंकेश 

Wednesday, May 09, 2012


ब्यूटी इन द एज ऑफ़ करप्सन 

इतनी सुन्दरता को कैसे एक चेहरे में ढाला होगा
शक है मुझको इसमें भी हुआ कोई घोटाला होगा

अंकेश 

Tuesday, May 01, 2012

है अप्रतिम सौंदर्य तुम्हारा
मानता हूँ इसके सम्मुख में यहाँ हारा

कर दिया खुद को समर्पित मैंने यहाँ कब का प्रिये
अब तो बस हूँ मुस्कुराता आस एक मन में लिए

शायद कभी निर्णय करोगे
तुम इस दिन और रात का
है पला जो ख्वाब दिल में
उस मुलाक़ात का

है अप्रतिम सौंदर्य तुम्हारा
मानता हूँ इसके सम्मुख में यहाँ हारा

मानता हूँ सौंदर्य में  तुम श्रेष्ठ हो   जग में प्रिये
में भी नहीं लेकिन बुरा हूँ
उस रात के स्वागत के लिए
तेरी विभा में जब लगेगा इंदु भी बस मात्र तारा
मानता हूँ इसके सम्मुख में यहाँ हारा

है अप्रतिम सौंदर्य तुम्हारा

क्या उडोगे साथ मेरे बनके पक्षी इस गगन में
है सदा से थी रही जो, आरजू  मेरे इस मन में
जानते हो उचाईयों से भी नहीं अब तक में हारा
है अप्रतिम सौंदर्य तुम्हारा
मानता हूँ इसके सम्मुख में यहाँ हारा

अंकेश