Sunday, June 26, 2011

परिवर्तन 

शहर उसके लिए नया नहीं था | शहर की ऐसी ही गलियों में खेलकर तो वह  बड़ा हुआ था | जाने कितने साल इस  मिटटी से वह खुद को रंगता रहा | लेकिन वह  उसका बचपन था, शायद ही कभी उसने चीजों के पीछे छिपी वास्तविकता को तलाशने की कोशिश की होगी,  उसे क्या पता वह जो करता था  उसका क्या परिणाम होगा ?  उसने यह शायद कभी सोचा ही नहीं |  उसने तो वही किया जो उसे अच्छा लगा | लेकिन आज वह उस बचपन से बहुत दूर है, शहर पहले  जैसा तो क्या आज वो बदल गया है |

कृते अंकेश

Friday, June 24, 2011

तेरी तमन्नाओ में वक़्त ही कहा गुजरा 
बस ये झुर्रिया  समय का एहसास  दिलाती है 
खयालो की खलिश  तो अभी तक ज़वा है 
तू ही है जो कभी नहीं आती है 
लगता है अब तो मौसम ने भी ओढ़ी है उदासी 
कहा गयी  बारिश की बूंदे 
खुले आसमान में भी छाया अँधेरा 
खो चुकी  है इंदु किरणे
चला तेरी यादो का मंथन मैं  करने 
हलाहल ही शायद मुझे मिल जाये 
बनू नील कंठ उन यादो से शायद 
मुझे मेरी मंजिल यु ही मिल जाये 


कृते अंकेश


Monday, June 20, 2011

सन्देश 

जो यदि वो बैठ जाते हाथ पर यु हाथ रख 
तो भला कैसे पहुचते चन्द्र पर मनु के यह पग 
जीत माना  आराध्य है लेकिन असाध्य है नहीं
हार से  कर मित्रता
है जीत का भी मार्ग यही 
राह यह दुर्गम तो क्या 
तूने सरल पथ कब चुना 
मुश्किलों से जूझना ही 
है तेरी फितरत सदा 
फिर भी न हो विश्वास तो 
इतिहास को  ही देख ले 
 थे रहे असंभव पथ 
लेकिन कदम बढते चले 
स्वप्न  के उन्माद में 
निज को भी त्याग दिया
हर घडी मनुपुत्र ने 
एक नया स्वप्न  साकार किया


कृते अंकेश 

Sunday, June 12, 2011

क्रांति की राह में प्राण का है  मोल क्या
या प्रश्न ही है यह अनोखा
इस मार्ग में भी तोल क्या
है समर्पण की भावना या चाह हो जो जीत की
जो दे सको यह जान भी बस चाह में स्वप्न संगीत की
भूल कर जो जा सको
बन्धनों  की दास्तान
जीत कर यदि  ला सको
बन्धनों से दास्तान 
जो चल सको पथ पर सदा न लक्ष्य से होकर विरत

सैकड़ो ठोकर तो क्या है कोशिशो में जय निहित
डूबती शामो में ढूँढती सुबह सदा
क्रांति का कारवा बस यु ही सदा चलता रहा

कृते अंकेश



Wednesday, June 08, 2011

मेरे झरोखे से समय का पता ही नहीं चलता 
 फूलो की खुशबू  भी नहीं आती 
बारिश आकर गुजर भी गयी 
मिटटी की खुशबू कहा मिल पाती 

अब तो अरसा हो गया 
जो भींगा था कभी 
क्या बारिश का पानी अभी भी फैला  है 
या उड़ा ले गयी धूप की तपिश 
 कौन यहाँ रुका  ये जीवन एक मेला है 

कितने रंगों को  समेटे
यह स्म्रतियो  के साये 
तू अभी तक  पलकों में है 
क्या तुझे भी तस्वीर नज़र आये 

यु ही गुजर जाएगी 
समय की यह सदिया 
कभी सम्मुख कभी सपनो में 
बस बनती  रहेगी यह  दुनिया 
   

  

   

Monday, June 06, 2011

अर्धसुप्त बैचैन सा था न्याय की वो आस में 
क्यों उसे उखेड डाला 
किस प्रलोभन विश्वास  में 
था यदि जो दोष कुछ तो 
न्याय का है मार्ग भी 
न पड़े वरना भुगतना
अन्याय की जो राह चली 


 

Wednesday, June 01, 2011

बारिश तेज़ थी, लेकिन घर पहुचने की जल्दी में था , छाते को हाथ में पकडे पैदल ही चल दिया | मानसून की बारिश का भी पता नहीं , आये तो महीनो नहीं आये और अब आई तो थमने का नाम ही नहीं ले रही है | सडको के गड्डे भी बारिश के पानी में उभर कर सामने आ गए है और भ्रष्टाचार की कलई खोल रहे है | आतें जातें वाहनों के पहिये गड्डो में फसकर फुहारों की ऐसी  धार छोड़ जातें है, जो कपड़ो पर अगर पड़ी, तो दाग बनकर आने वाले कई सालो तक इस मानसून की याद दिलाये | पानी भी तो  अनोखा होता है, जब मिलता है, तो हम कीमत नहीं समझते, जब नहीं मिलता, तब  तरसते है | छातें के कवच को चीरती हुई दो चार बूदें गालो तक  आ गयी | जो स्थान आंसूओ के लिए सुरक्षित  ह,ै  आज बारिशो कि बूदें वहा जश्न मना रही है  |  कहते ही है समय बड़ा बलवान | पक्षी भी अचानक आई वर्षा से आश्चर्यचकित है , पंखो को फडफड़ाते हुए कोलाहल मचा रहे है, उनके पंखो  से झरती हुई बूदो में सूर्य की अनेको आभाये देखि जा सकती है | धन्य  है सापेक्षिकतावाद, सत्य भी  द्रष्टिकोण पर आधारित होता है | वरना दो आखे, हजारो सूर्य, वो भी एक ही समय में, लेकिन पानी की उन बूंदों में यह भी संभव है | घर नजदीक आ गया, बारिश भी मंद हो गयी, जैसे  उसे एहसास हो गया हो  कि गंतव्य नज़दीक ही है |  

कृते अंकेश