Wednesday, May 25, 2011

कितने प्रयत्नों से आती है यह लहरें 
कितनी ठोकर खाती है लहरें 
फिर भी उठती जाती यह लहरें 
तट  के समीप किनारे पर बैठा 
ध्यानमग्न पुरुष 
उसकी  समाधी को शीतलता 
पहुचाती यह लहरें
समेटे ऊर्जा  का असीम संसार 
नहीं करती हाहाकार 
यद्यपि  स्वर है उग्र
प्रबोधक है  उस द्रढइक्छा का
समाहित है जो जलकण में
सागर की तृष्णा ने घोली है इसमें
लक्ष्य तक जाने की शक्ति
चल दिया  वो धीर पुरुष
दूर सागर तट से
खोयी  लहर की तलाश में


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