Saturday, September 24, 2011

नहीं समझ पाती में इनको
इन शब्दों में होगे कई अर्थ भले
मेरा परिचय बस उन अधरों से है
जिसने शायद यह शब्द कहे 
नैनों की भाषा समझाना
क्या इतना मुश्किल  काम कोई
बन अर्थहीन मैं भटकी हूँ
इन शब्दों का न विराम कोई

है शब्द अर्थ  न अर्थ शब्द
जीवन एक विहंगम नृत्य बना
क्या पास दूर क्या दूर पास
स्वप्नों को क्या हुआ पता


था जिन नैनों को  मैंने जाना
वह बंद पलकों में खोये कही
अब तस्वीर निहारा करती हूँ
अधरों की हसी है सोयी कही
नहीं समझ पायी में इनको
इन शब्दों में होगे कई अर्थ भले
मेरा परिचय बस उन अधरों से है
जिसने शायद यह शब्द कहे
 कृते अंकेश 
 
 

Friday, September 23, 2011

नहीं समझ पाती में इनको
इन शब्दों  में होगे कई अर्थ भले
मेरा परिचय बस उन अधरों से है
जिसने शायद यह शब्द कहे

कृते अंकेश

"Millions of people never analyze themselves. Mentally they are mechanical products of the factory of their environment, preoccupied with breakfast, lunch, and dinner, working and sleeping, and going here and there to be entertained. They don't know what or why they are seeking, nor why they never realize complete happiness and lasting satisfaction. By evading self-analysis, people go on being robots, conditioned by their environment. True self-analysis is the greatest art of progress."
- Paramahansa Yoganana

My views on above lines -:
I do not have much experience with life and may be my perceptions are not correct, but I feels that there are three stages in this process of self evaluation, a normal individual, whose motive is just to survive is purely bounded by the conditions described above, this phase of human life can be described as struggle for the existence of the body, then with a little intelligence he may started thinking beyond this, and may found that life is useless without having big goals, and without striving for these goals, and this phase of human life can be defined as the struggle for the existence of mind, and finally If you started thinking a lot you may start realizing that ultimate happiness lies in satisfaction, here satisfaction does not mean that you left putting efforts, rather you were able to find the things which you likes, where you can spend whole of your life without being tired, Now you do things not for survival or for existence, rather you do it for fun, because it makes you happy, with a careful balance of efforts and fun, you start enjoying the life. I defines this phase of human life as the struggle for the existence of soul.

Thursday, September 22, 2011

And then when the day (virtue) and night (vice) were exactly equal, I came here, In this world..... and that may be the reason I could never become a good or a bad person , I remain as I was :P

Monday, September 19, 2011

है निमंत्रण क्या मुझे उस संसार का 
हो नहीं प्रतिबन्ध कोई जहा  किसी प्रकार का 


 

Sunday, September 18, 2011

आराम करो आराम करो
जीवन में बस आराम करो
आराम शब्द में राम बसा
तन मन से इसका ध्यान करो

यह जीवन पल भर की नैया
फिर और समय न पाओगे 
जो भी क्षण है विश्राम करो
वरना तकते रह जाओगे

देखो ऋषियों और मुनियों को
बस  ध्यान लगा सो जाते है
जो फसते लालच में मेहनत के
वह व्यर्थ समय गवाते है

सोकर सपनो में खो जाना
खुशियों के आँचल में सो जाना
यह जीवन सिर्फ तुम्हारा है
पहले  अपनी  इच्क्षाओ को पाना

 
कृते अंकेश 

Saturday, September 17, 2011

कही यादो के किस्से है 
कभी ख्वाबो में मिलते है 
कही खुशियों के पल गहरे
कभी  दुःख के भी है पहरे
यह डूबी शाम है कहती 
निशा अब पास ही रहती 
नहीं अब दूर तक जाना 
खयालो में न खो जाना  

चिरागों के उजाले है 
बड़ी मुश्किल संभाले है 
पवन की बासुरी बहती 
तिमिर के साथ थी रहती 
यह डूबी शाम का कहना 
घटा को है सदा बहना
नहीं अब भींग तुम जाना 
खयालो में न खो जाना 

उठी फिर रौशनी कैसी 
गगन में दूर तक ऐसी 
अगर यह चांदनी है तो 
चन्द्र को भी साथ था लाना 
यह डूबी शाम का आना 
घटाओ का यु छा जाना 
नहीं अब भींग तुम जाना 
खयालो में न खो जाना 

कृते अंकेश

Friday, September 16, 2011

ओस की बूंदों को सहेजे  है धरा 
गगन रात भर क्यों रोया 
मुस्कुराती थी चांदनी
चंद्रमा भी नहीं सोया 
निशा का आँचल 
समेटे था जग पटल को 
अन्धकार ने भी कहा कुछ देखा
कुछ आवाजे 
रात्रि के सन्नाटे में सुनाई दी होगी
पर किसे खबर जब सारा जग ही सोया

कृते अंकेश


Thursday, September 15, 2011

संध्या शायद स्वप्न को यू अधूरा न छोड़ दे 
ये घटा इस पथ से आकर मुख कही न मोड़ ले 
दूर तक थे जो चले तेरे और मेरे कदम 
इस अँधेरे में कही वो पथ नए न जोड़ ले

कृते अंकेश

Saturday, September 10, 2011

वो सुप्त है, मैं हूँ  जगा 
खामोश वो, मैं हूँ ठगा 
वो जीतती, मैं हारता
वो भींगती, मैं भागता 
वो खिल रही, मैं मिल रहा 
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा

है दूर पास क्या पता 
कैसी आस क्या खता 
किसे खबर है रंग की 
किसे फिकर है ढंग की
है सिलसिला बस बढ रहा
अब हार का किसे गिला 
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा

छिपे हुए से रंग है
जो आज संग संग है
मुस्कुरा रही धरा 
छिड़े जो यह प्रसंग है
हर स्वर खिला खिला
मन की इस तरंग का
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा

कृते अंकेश 

Friday, September 09, 2011

Hint story written by me, words highlighted in yellow color are words given to us, rest is imagination, :) (To read article properly, click over article and it will open in another window, where it can be zoomed again)

Thursday, September 08, 2011

                             लहरें समुद्र में बार बार उभर कर आती ही जा रही है , लहरों के आते हुए  क्रम को एवं उनके  जोश को देखकर ऐसा प्रतीत  होता है मानो  किसी  राजा की सेना कही पूरे  जोर शोर  से चढाई करने  जा रही हो, तात्पर्य  यह है कि उनका उत्साह  देखते ही  बनता है |   चंद्रमा की  रौशनी  में लहरों का  जल  चमकते हुए ऐसा दिख  रहा है मानो प्रिय के  आलिंगन में बद्ध  प्रेमिका मुस्कुरा  रही हो | यह देख कर  प्रथ्वी  को  लगता है की वह तो  अकेली ही रह गयी , जबकि  वास्तविकता यह है की लहरों का जल  अंत में धरा  पर  ही आना  है एवं चांदनी तो  सदा ही उसके   पास भी है लेकिन यहाँ  महत्वपूर्ण  द्रश्य चांदनी का लहरों से  मिलन है जो धरा के  सानिध्य में न  होकर  सिन्धु में हुआ, जिसका उसे  दुःख है |
सिन्धु वक्ष स्थल पर उभरती   लहरें  इस  आवेग  से 
मानो  चली  हो  सेन्य  शक्ति जैसे संपूर्ण  संवेग से
 नहला  रही है चांदनी वारि के कण कण को यहाँ 
तक रही फिर भी धरा,  क्यों मेरा मिलन अधूरा  रहा 

कृते अंकेश 
  
 
फिर दहला है कोई शहर
फिर से हलचल सी आई है 
जागो अब तो संभलो  जानो 
की लेनी अब अंगड़ाई है

 कृते अंकेश 

Tuesday, September 06, 2011

रेतसे घर मैं बनाता
फिर पवन से था बचाता
टूटकर गिरना ही था
आ जमी में मिलना ही था

मैं नहीं पर हार पाता
फिर से मिट्टी को उठाता
रंग सपनो के लगाता
उस घडी चलना ही था
आ जमी में मिलना ही था

ओ पवन यह कारवा
मेरा नहीं पर रुक सकेगा
हार भी यहाँ जश्न है
यह सफ़र अब न थमेगा
मौत से भी कह देना ठहेरे
उस घडी ही बात होगी
जब जीत मेरे साथ होगी
जब जीत मेरे साथ होगी

कृते अंकेश 

Monday, September 05, 2011

जो देकर अपने सपनो को 
यह विश्वास दिलाते है 
है खेल मात्र यह जीवन रण
पत्थर भी यहाँ तर जाते  है

है मधुर ज्ञान की वाणी वह
कटु शब्द पिरोये हुए कभी
उनसे ही बना व्यक्तित्व सरल 
है जीवन का श्रृंगार वही 

जिनके उर में बस सदा रहे 
अपने कल  की तस्वीर कही 
जो जीतें है इस आशा में
बिखरे खुशबू इन सपनो की

हम जीत गए कभी हार गए
जो नहीं हार कभी पाते है
ऐसे शिक्षक तुल्य प्रभु के है
हम उनको शीश झुकाते है

कृते अंकेश
 

Friday, September 02, 2011


 रात को अब जाना ही होगा 
 
 कह दो उनसे जो सोये है
 सपनो के बादल में खोये है
निशा के मद में डूब कही
 जो जीवन रंगों में खोये है

 इस प्रहर को अब ढल जाना होगा
 रात को अब जाना ही होगा

ओ चंचल चन्द्र चांदनी
चातक चिंता में है डूबा
इन  किरणों के भ्रम में शायद
स्वाति तेरा मोह भी छूटा

उन किरणों को लेकिन अब ढल जाना होगा
रात को अब जाना ही होगा

कृते अंकेश 

खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है
किसी नयी मंजिल  से जुड़ जाने का मन करता है
यहाँ तलाशे कितने रस्ते
टेढ़ी  मेढ़ी गलिया भी
अब इन गलियों से बाहर जाने का मन करता है
खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है

 नहीं थका हूँ नहीं थकूंगा
 मुझको है विश्राम कहा
 लेकिन  जीवन में कभी कभी मनमानी को मन करता है
खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है

 खिलते चेहरे मुस्कानों में घुला हुआ संगीत कहा
 मुश्किल से थे कभी समेटे वो सारे तेरे गीत कहा
 आज उसी संगीत में जा  मिल जाने का मन करता है
खोकर अपनी सीमाओ को कुछ पाने का मन करता है
किसी नयी मंजिल  से जुड़ जाने का मन करता है

कृते अंकेश