Wednesday, January 30, 2013

उदास चेहरा लिए वह मेरे पास आया 
और बोला क्या सुना सकते हो कोई ऐसी कविता 
जिसमे छिपा हो दर्द मुझसे भी ज्यादा 
या छलकते हो आंसू जिन शब्दों से इन आँखों की तरह 
यह कह कर वो मुस्कुराया 
मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा
और इससे पहले की मैं कुछ कहता वो हँसा
खिलखिलाकर हँसा और बोला
आसान है सजाना शब्दों को और सुना देना दुनिया को
तुम्हारी छोटी सी कविता इनकी मुस्कुराहटो से कई ज्यादा हसेगी
लिख सकते हो तो लिखो कोई ऐसी कविता
जो इनके दर्द को भी पीछे छोड़ जाये
समेट ले आहे सभी की
कि रोने के लिए फिर से किसी के पास आंसू तक न बचे
कर सकते हो तो कर दो छंदबद्ध वह पंक्तिया
जो कर ले समाहित सभी दर्द को
और फिर भूल जाये हम वो पंक्तिया
भूल जाये हम की कैसे होता है रोना

कृते अंकेश

Tuesday, January 29, 2013

कितने परिचित तुम थे मुझसे 
कितना परिचित में था तुमसे 
कितने परिचित हम थे खुद से 
रहे अपरिचित परिचित बनके  

उधड़ी उधड़ी सी पहचाने 
लेकर फिरते रहे ज़माने 
तोल मोल के बोल बनाकर 
रटते गए बस वही तराने 

अभिमानो के व्यंग बहाकर 
जाना जीवन की विस्मृति को 
या पहचाना तुमसे खुद  को 
या खोया  तुझमे ही निज को 

कृते अंकेश 

Monday, January 28, 2013

वर्जित पुस्तक का आदर्श वाक्य 
फिर फिर दोहराता तेरे साथ 
उड़ते जाते यह  कैश कपाट 
लहराता तेरा वक्ष विशाल 
सजता जीवन का है उन्माद 
बहता योवन का रस अनायास 
आनंदमग्न हुए दोनों आज 
छलकर स्वप्नों को अपने साथ 

जीवन क्रीडा में मग्न रूप 
तेरे आँचल में सिमटी धूप 
तेरे अधरों के खुले पाश 
बंधित करते है मुझे आज 
फिर सिमट रही देह उलझ रही 
फिर एक रूप बन उभर रही 
फिर उभरा  चेहरों पर आनद भाव 
पाया मानो था स्वर्ग आज 

कृते अंकेश 

Saturday, January 26, 2013

The closet was  lying there since ages, Its keys has been lost and no one ever found it important to look out for the keys or for the space, It is an usual government office having bundle of files, arranged,tied and placed somewhere in the corner of similar closets not to be picked up again. Friday morning 10 am, few employees have been arrived, now busy with tea, remaining few may come in another hour and instead can  directly opt out for lunch. A long queue of people waiting for there chance in-front of a counter, counter having a wooden base and front top half made up of a glass plate having a half circular hole in between, which is normally found in banks to pass the papers or currency notes. A blue chair can be seen inside from the glass window which is yet to be occupied and bears the constant staring by many frustrated eyes. A pigeon, white in color,  having few black patches on its tail is silently sitting on a closet and watching the melodious drama of human behavior. the unclaimed closet now belongs to the pigeon, It has given an identity to the closet which has been lost long back along with the keys. The space is no more silent, It has became a playgrounds for pigeon but still remain unnoticed from the human eyes, which no longer look for it. 

Friday, January 25, 2013

उलझे कैशो को रही निहार 
कैसा फैला सम्मुख यह जाल 
आते जाते नाविक अनेक 
छेड़े सागर की गति विवेक 
उड़ते रहते उनके है  पाल 
जाते चीर लहरें विशाल 
तूफानो  से अब  भय किसे
वो चलते है निर्भय डटे  

अधरों के कम्पन यहाँ 
छेड़े नाविक की गति वहा 
इन आँखों का इंद्र जाल 
निर्धारित करता उनकी चाल 
आँचल में उडती रही लटें 
सागर में जैसे लहर उठें 
फिर फिर उभरी वो छवि विशाल 
नाविक ने ज्यो लहराया पाल 

वो उठी कही फिर चली यु ही 
नावो ने भी एक  राह चुनी 
सागर ने समझा एक रात 
छिपकर बीतेगा प्रणय विषाद 
उसने फिर देखा था नभ को 
नभ ने फिर देखा था जग को 
जग ने पाया था खुद को 
लहरों के  मध्य अग्रसरित प्रयास 

फिर फिर उठते मन में विचार 
नाविक भी सोचे बार बार 
क्यों मिलता है यह इंतज़ार 
क्यों तट को छोडा अबकी बार 
कानो में ध्वनि थी गूँज रही 
आँखों में छवि थी घूम रही 
लहरों ने फिर दस्तक सी दी 
उन आँखों ने निद्रा चुनी 

इंदु भी आया क्षितिज पार 
था चमक रहा सुन्दर वो भाल 
लहरें भी उडती बन के ज्वार 
स्रष्टि का सौन्दर्य हुआ विशाल 
उस सागर में सिमटा विवेक 
लहरों में उलझा था जो शेष 
पवने करती थी मधुर पान 
उस सौन्दर्य को फिर सुप्त जान 

क्रीडा करती रही विशाल 
सागर ने भी लहराया भाल 
नावो ने फिर छोडा जो पाल 
लहरों ने किया रूप विकराल 
ये स्वप्न नहीं उसका कोई 
उसका न कोई अपना है 
वो जीती है बस इस तट पर 
सागर में जाना  न उसका सपना है 

कृते अंकेश 
चाह नहीं है मुझे बसंतो के क्रम देखने की
या खो जाने की पतझड़ो की श्रंखला में 
लक्ष्य  नहीं है मेरा समय के साथ बहना 
या जाते देखना कोई सपना सुनहरा 
मैं तो बस एक मौका परस्त हूँ 
तलाश है उड़ान की 
उड़ना है ऊँचा बहुत ऊँचा 
फैला पंखो को जहा खो जाये जग समूचा 
चाहे फिर मुह के बल ही क्यों न गिरे 
क्यूंकि तब आने वाली पीड़ी यह तो जान सकेगी की क्या न करे 

कृते अंकेश 

Sunday, January 20, 2013

मेरे शब्द तो तुम्हारे प्रेम में रंगे है 
अंतहीन माला कर जाते है फिर दूर कही 
सिमटे है मेरे गीत नहीं 
उलझे कैशो की लटो सरीखे 
माना उलझे है छंद अभी 
लेकिन जाते है अधरों तक 
कहने को जैसे बात नयी 
छिपी हुई मुस्कानों सी 
इनकी भी एक परिभाषा है 
बस नैनो को तकते रहते 
शायद इतनी ही आशा है
उड़ते है तेरे आँचल के संग
तेरी मुस्कानों में घुलते है
तू रहती है जो पास तो रहते
जाने पर तेरे न मिलते है

कृते अंकेश

Wednesday, January 16, 2013

क्या सचमुच तुमने यह दुनिया बनायीं 
संभोगरत इंसान सारे 
मौत ने नींदे उड़ाई 
दे रही दस्तक समय पर 
एक प्रलय इनकी सजाई 
सच बताओ क्या तुमने यह दुनिया बनायीं 
या कहो दुर्घटना थी यह 
न विकल्प कोई शेष था 
किसी स्वर्गिक अन्वेषण का 
यह परिणाम विशेष था 
फलस्वरूप उस शोध की तुमने भी एक ट्राफी सजाई 
क्या सचमुच तुमने यह दुनिया बनायीं 

कृते अंकेश 

Monday, January 14, 2013

नंग धड़ंगी अति भयावह भीषण काया 
किट्ट काला कर्कश कुबड़ा सा वह साया 
बोझ तले उसके निरीह जानवर भागता 
अपनी तलवारों से नरमुंडो को काटता  
थर थर काप रहे थे लोग जहा वो जाये 
हर ओर छोर से रक्तो की नदिया रहा बहाए 

देख राज का राजतिलक भू में जा बिखरा 
उसकी हूकारो से आसमान तक फिकरा 
बस उड़ता वो चला पवन के साथ यु आगे 
मानो स्वय शिवा दोड रहे प्रलय मचाके 
बस एक रहा वो  और न कोई नज़र था आता 
क्या सचमुच था वो इस सृष्टि का भाग्य विधाता 

कृते अंकेश 

Sunday, January 13, 2013

तलाशता एक अनमोल हीरा 
इस रात में 
सस्ती टूयूब लाइट के प्रकाश में 
देखता धूल धुसरित लकीरों को 
अपनी तकदीरो को 
सुना छिपा रखती है धरा
गर्भ में उन कीमती पत्थरों को 
लेकिन प्रयत्न करने वाले 
खोज ही  लाते  है
एक न एक दिन 
असंभव से दिखने वाले हर एक लक्ष्य को 

कृते अंकेश 

Saturday, January 12, 2013

उड़ाने 
होंगी आसमान के पार 
नन्हे ही सही 
पंख सीख रहे है उड़ने की हर रफ़्तार 
देखो सपने इन खुली आँखों से 
वक़्त आएगा हकीकत में बदलने का इस बार 
उड़ाने होंगी आसमान के पार 
संजौओ ख्वाब सराहो इनको 
चलो अब मादो से आ निकलो 
देखो मैंने पंखो को कर लिया तैयार 
चलेंगे आसमान के पार
रहो तैयार
उड़ाने
होंगी आसमान के पार

कृते अंकेश
आप तो न ही करो मुझसे अमरता की बातें 
नहीं झेल सकता में इन्हें 
जब तय ही कर चुके मेरा भविष्य 
तो फिर कैसा भय नश्वरता का 

प्रेम भला क्या है 
चुम्बक की तरह क्यों खीच लाता है यह बार बार 
नाचते हुए इन सर्पो को अलग करने का साहस नहीं है मुझमे 
इसीलिए देखता हूँ तुम्हारे चेहरे की और हर बार 

कृते अंकेश
औरत जन्म देती है पुरुष को 
पालती है गर्भ में नौ महीने उस भ्रूण को 
रचती है भाग्य और विधान उसके कल का 
सहती है फिर भी दंश उनके छल का 

कृते अंकेश
रात अगर पूछे मुझ से
मागो जो कोई हो सपना
मांगूगा में फिर रात से यह
आँसू न मिले किसी आँख में अपना
सीमाओं के सब भेद मिटे
लोगो में परस्पर प्रेम बड़े
फूटपाथो पर न भूख लुटे
जीवन ऋतू की न मार मिटे
जो देने का वादा कर दो
इतना तो देते जाना
आँखों में सभी की विश्वास मिले
चेहरे पर मुस्कान सजा जाना

कृते अंकेश

Wednesday, January 09, 2013

सूअर तुम तो विष्ठा खाते 
धरती को  स्वच्छ  बनाते हो 
फिर  क्यों  अपमानित जीवो की 
श्रेणी  में  गिनती  पाते  हो  

काग चुना करते तुम मैला 
पितरो तक  उड़के जाते हो 
फिर क्यों हर  मुंडेर से तुम 
बस यु ही भगाये  जाते हो 

कर्मी तुम तो कचरा ढोते 
गंदगी दूर हटाते हो 
फिर भी क्यों इस सभ्य समाज में 
नहीं खुलकर सराहे जाते हो 

कृते  अंकेश 

Monday, January 07, 2013

स्वप्नों के बोझिल दाग कही जब हलके हलके हटते है
पलकों के साए छिपे रहे ख्वाब उड़ाने भरते है 
स्वर्णिम किरणों का जाल लिए सूरज छत पर आ जाता है
पंखो में उड़ने को ठान लिए पंक्षी मधुरिम स्वर में गाता है 
नव उर्जा का संचार किये ऐसी सुबह जब आती है 
स्वप्नों को सत्य बनाने को यह दुनिया फिर से लग जाती है 
मोल लगाती है श्रम का, आनद को तोला करती है 
एक सुखद कल की आशा में जीवन का सौदा करती है 
लिखती है अपने रक्तो से अपने प्रियजन की खुशियों को
उडती है उन्मादों में मोहित स्वप्नों का सत्य सजोने को
नव उर्जा का संचार किये ऐसी सुबह जब आती है
स्वप्नों को सत्य बनाने को यह दुनिया फिर से लग जाती है

कृते अंकेश

Saturday, January 05, 2013

कहते है लोग मिले उनको अब फासी 
अपराधी है मानवता के वो सत्यानाशी 
पीड़ित है उनसे यह जीवन कोप भवन है 
उन दुश्क्रत्यो के चर्चो से रोष बहुत है 
लेकिन बढती ही जाती उन अंको की सीमा 
हतप्रभ हूँ में सोच क्या इंसानों ने छोड़ा जीना 
क्या कत्लेआम ही सचमुच इसका हल है 
क्या सचमुच यह समस्या इतनी सरल है 
कानून के दम से क्या सच में अपराध रुकेंगे 
पैशाचिक मानव के दंभ झुकेंगे 
अगर प्रयत्न करना है तो पहले पालो मानव को
करो हतोत्साहित जीवन के हर एक दानव को

कृते अंकेश

Friday, January 04, 2013

एक गतिमान जीभ 
शब्द बोलने को आतुर 
में लिखता गया किताबो पर पंक्तिया 
बिना अर्थ समझे और  जाने 
अन्धकार में खीचता गया चित्र 
लकीरों के उन्मादों में फसे भाव विचित्र 
उभरते रहे पन्नो पर बनकर यादें 
खोदा गया समय  जिनके ऊपर 
और दफना दिया गया 
इतिहास के भवन में कही 
इति श्री के लिए ....

कृते अंकेश 

Wednesday, January 02, 2013


मेघ अभी पतझड़ है मेरा
आंसू मेरे अभी झरे है 
तेरे आँचल से भी ज्यादा 
जलकण इन नैनों से निकले है 

यही गिरी थी जल की धारा
शुष्क अधर थे रहे बिखरते
इन अंखियो के सावन में फिर
मिले यहाँ पर सभी बिछड़ते

उम्र तेरे जीवन के सपने
यादें बनकर रहे तरसते
सूनी अंखिया सूना सावन
अधर रहे थे फिर भी हसते

कृते अंकेश

Tuesday, January 01, 2013

दिनकर प्रखर है अनुभव तेरा 
स्वर्णिम तेरा रहा बसेरा 
रहा जलाता ज्योति दिवस की 
स्मृति बनती विगत स्वप्न की 

तेरे आधारों से जीता 
तेरे पैमानों से सीता 
तेरा तेज़ ही संचित मस्तक पर 
उन्मादों में उठता उड़ता 

में  आभास  हूँ एक पल भर का 
जैसे सपना उठता मिटता 
मेरी यादें मेरी साँसे 
ठोकर में  उड़ता धूल का रेला 

हसता  खिलता फिर भी मिलता 
हर पल हर क्षण नव गति भरता 
इंसानों का  अदभुत मेला 
क्या खेल है ऐसा किसी ने खेला 

हम अपने स्वर में है जीते 
जाने कितने बरस है बीते 
फिर से एक नव वर्ष है आया 
हमने फिर उल्लास मनाया 

कृते अंकेश