Sunday, July 31, 2011

अधिकार
सत्य बोलो
क्या यहाँ अधिकार कोई छीनता
था हमारा स्वप्न जो
आज़ाद संसार कोई छीनता
दे दिए थे प्राण भी  
बस जिसकी आस में
वो ख्वाब जो बन सकी हकीकत
वह ख्वाब कोई छीनता


क्यों उठी आवाज़ फिर है
क्या यहाँ कोई जस्न है
आक्रोश से क्यों है भरे कंठ
आँखे  दिखी क्यों  नम है
सोचते क्यों अलग हम
जो चले कल साथ थे
या भूले यहाँ कुछ हाथ कि कल
हम सभी एक हाथ थे

देखो नहीं खो जाये
जो पाया बहाकर था लहू
थे शीश भी हसकर कटाए
निज प्राण की आहुति दी
समझो संभालो कर लो प्रयत्न
न खो सके अधिकार यह
ऐसा न हो हम हार जाये
व्यर्थ हो जाये सारी विजय


 कृते अंकेश

Wednesday, July 27, 2011


 Knowledge vs Money: My views

I belongs to a family where knowledge always overshadowed the money, and I always try to inherit this property. In my opinion, the quest for knowledge should be the goal of life as it will teach you what you want from life. In fact knowledge can tells you the way to get anything from life even money but vice versa is not true. Actually you can get education through money, but getting knowledge is something different. It cannot be quantified in degrees or certificate which education can provide. In fact knowledge is the essence of education which can be obtained through education but cannot be guaranteed by it. It comes through the willingness of delving deeper into the subject and by extracting and exploring the hidden truth of your arena. It may be time consuming but it leads to ecstasy, where you enjoy your presence.    

Ankesh Jain





Tuesday, July 26, 2011





जूतों का महत्त्व 

जूता वैसे तो साधारण सी  दिखने वाली एक सामान्य प्रयोग की वस्तु है| लेकिन जूतों की गरिमा मनुष्य के चरित्र में विशेष भूमिका रखती है | सेना से लेकर सेवा तक, जूतों का  अपना एक अलग  ही स्थान है | मनुष्य के इतिहास में भी  जूतों की एक अलग ही पहचान है, जब भगवान राम राजा दशरथ के आदेश पर वनवास गए थे, तो उनके लघुभ्राता भरत ने इन्ही जूतों के वंशज "खडाऊओ" को उनका प्रतीक मानकर शासन  चलाया|   कुछ लोगो का तो यह तक मानना है की आदमी के जूतों को देखकर उसके चरित्र का अनुमान लगाया जा सकता है| इसी के चलते इंटरव्यू हो या कोई बड़ी मीटिंग, हर कोई अपने जूतों को चमकाने मैं लगा रहता है | यहाँ तक की सिने-क्षेत्र में राजकुमार जैसी  हस्तियों  को लोग  उनके जूतों को देखकर ही पहचानते है |

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो जूतों की जरूरत और भी बड गयी है| अकुशल राजनीतिज्ञों एवं  बडबोले  लोगो को प्रत्युतर देने में इनका उपयोग तीव्र गति से बड रहा है |   कुछ सेन्य विशेषज्ञो का मत है, कि जूता वह अनोखी कृति है, जिसे अस्त्र एवं शस्त्र दोनों वर्गों में रखा जा सकता है | सामान्यत: अस्त्र वह हथियार होते है जिन्हें  हाथ  में रखकर वार किया जाता है , जबकि  शस्त्र वह हथियार होते है, जिन्हें फेककर मारा जाता है | लेकिन जूतों की बहुमुखी प्रतिभा  के चलते वह इन दोनों परिभाषाओ में खरे उतरते है |  यदि मनुष्य को सफलता प्राप्त  करनी  है तो आवश्यकता है इस प्रतिष्ठित कृति को भली-भाती समझने की |





Saturday, July 23, 2011

पिघलती देह से टपके पसीने का भला क्या मोल 
यहाँ तो जिंदगी भी कुछ  कागज़ के टुकडो में बिखर जाती 
नुमाइश क्यों लगाते हो अपनी कामयाबी की
यह  बस्ती आज भी रातें वही खाली पेट गुजारती
मुझे  खलिश नहीं तेरी चमक से धमक से
बस खयालो को यह सूरत नहीं भाती
कही बहती है नदिया न पीने वाला
यहाँ प्यासों को मरीचिका भी नज़र नहीं आती


कृते अंकेश





Wednesday, July 20, 2011

मुद्दे और संवेदनशीलता

भारत एक लोकतंत्र है एवं लोकतंत्र में सभी को अपने मत व्यक्त करने की संपूर्ण स्वतंत्रता है|  लेकिन समाज के कुछ ही लोग विचारो के सृजन से पहले प्रश्न के सभी पहलूओ को महत्व देते है | समाज का एक बड़ा हिस्सा शायद ही अपनी कोई राय रखता है, उसके विचार मुख्यत: सामाजिक
गतिविधियों से प्रभावित होते है | यहाँ सामाजिक गतिविधियों से मेरा तात्पर्य समाज के कुछ चुनिदा लोगो द्वारा दिए स्वतंत्र विचार एवं अन्य लोगो द्वारा उन पर की प्रतिक्रिया से है|  वैसे देखा जाये तो यह प्रक्रिया पूर्णत: वैज्ञानिक है यदि सुचारू रूप से की जाये | लेकिन वही यदि विचारो के सृजन एवं प्रतिक्रिया में लोग अपने स्वार्थ के लिए यदि किसी पक्ष विशेष का समर्थन करने लगे, तो यह प्रक्रिया न केवल हानिकारक अपितु विनाशक भी है | अब चाहे वो मीडिया द्वारा अपनी टी.आर.पी. को बढाने का स्वार्थ हो या राजनीतिक हस्तियों द्वारा अपनी वोटो की रोटियों को सकने का स्वार्थ हो| लेकिन इसका दुष्प्रभाव तब प्रदर्शित होता है जब समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने विचारो  के सृजन में उन पक्ष विशेष के मत को सत्य मान कर अपनी राय बना लेता है| यहाँ लोकतंत्र समाज के सृजक  के स्थान पर विनाशक की भूमिका अपना लेता है क्योकि दुष्प्रभाव के चलते बड़े तबके की असत्य राय चुनिदा लोगो के सत्य को दबा देती है|  यहाँ आवश्यकता है विचारको  को एक निष्पक्ष मंच बनाने की, जहा उनका कार्य केवल अपनी स्वतंत्र राय देने के साथ ही नहीं ख़त्म होता, अपितु उन्हें अपनी राय को दबने से बचाना भी होगा| समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके मत को समझ सके इसके लिए उन्हें मीडिया से भी जुड़ना पड़ सकता है, लेकिन उन्हें किसी भी राजनीतिक स्वार्थ से पूर्णत: दूर रहना होगा| उन्हें अपने कुछ चंद लोगो के साथ को छोड़ कर आम जनता के मध्य सरल भाषा में अपने विचारो  को समझाना होगा|  कहने में यह बात मात्र आदर्श कथन लगती है, लेकिन  यह आवश्यक है, क्योंकि समाज के प्रत्येक मत का प्रभाव सभी पर पड़ता है, वह चाहे कुछ चंद विचारक हो, जो मुद्दों को समझ सकते है अपनी राय रख सकते है अथवा समाज का एक बड़ा हिस्सा हो जिसे  आसानी से गुमराह किया जा  सकता है|







Tuesday, July 19, 2011

वो हरी दूब पैरो के नीचे
मखमल सा एहसास कहा मिलता
इस मिटटी इस पानी में
तेरा सा स्वाद कहा मिलता
खो जाता था में खुशबू में
वो आँगन तेरे हवा थी बहती
अब भूल गया वो खुशबू भी
बस कुछ धुंधली यादें है तेरी

कहते है लेकिन लोग यहाँ पर
मुझमे तेरा ही साया है
तेरे आँचल की छाव मिली
तूने ही साँची काया है
यह रंग रूप सब तेरा है
मेरी तो बस कुछ यादें
जो तेरे सायें में बीती
वो चंद सुहानी सी रातें 

कृते अंकेश






Wednesday, July 13, 2011

श्रदांजलि

एक शहर
उम्मीदों का घर
बसते है जाने कितने दिल
कैसे सकता कोई उजाड़
क्या  उसको न आई  लाज
क्या मजहब का वास्ता
कैसा है यह रास्ता
नहीं सिखाता धर्म कोई भी
दानवता की दास्ता
मासूम मृतक चेहरों से  कैसे
नए सृजन  का  ख्वाब सजोगे
क्या जानो तुम सृजन की सीमा
कभी कही यही मौत मरोगे 
न समझो हम झुक जाते है
बड़े कदम यह रुक जाते है
लेकिन दिल इंसानी ही है
आँखों में आंसू भर आते है


कृते अंकेश






Tuesday, July 12, 2011

उड़ चला रे मन कहा तू
देख छायी  काली घटा
मादक पवन बिखरी सयानी
जाल यह कैसा  बुना
रंग धुंधले  से हुए
आगोश में रवि को लिया
ढूढने खामोशिया 
अब  तू  कहा यु  चल दिया
खो चुकी मै दिन को पहले
अब भिंगोती  बरसात हैं
बह गए सब रंग दिल के
आस ही एक  पास है
पर  तिमिर का क्या भरोसा
कब  कहा वो घात दे
तरसे  नयन तुझको तकेंगे
उस घडी  तू साथ दे
देखती धारा समय की  
भींग तन यह बह गया
है बची जो श्वास  तुझमे 
बस यही मेरा बचा
देख घिरती कालिमा
है भेद जीवन का मिटा
 दे  बता क्या मन में तेरे
ले मुझे कहा चल दिया

कृते अंकेश





Saturday, July 09, 2011

छूटी
कुछ मुस्कानें
चल दिए फिर भी हम
माना असंभव है
कि सभी मुस्कुराएं
पर क्या यह संभव नहीं
हम कुछ और मुस्कानों को ले आये

Tuesday, July 05, 2011

 प्रस्ताव 


चंचलता है इन आँखों में 
कैसे होठो पर ले आऊं 
तुम तो इतने नादान नहीं 
क्या तुमको भी अब समझाऊं

या शायद है यह कोई 
तेरी तरकीब पुरानी सी 
नादान बनी तकती मुझको 
करती हरकत बेगानी  सी 

इस  छिपी हुई सूरत में  अब 
खुद को ओझल में कर जाऊं 
कुछ और शरारत  में डूबू
इन रंगों से मै रंग जाऊं 

या ढकी हुई इन तस्वीरों में 
अपने रंगों को भर जाऊं 
या इन नयनों से जीवन के 
सपनो में तुझको रंग जाऊं  


कृते अंकेश

बचपन की वह शाम मधुर 
सपनो में खेला करते थे 
थी किसे खबर है रात निकट 
बेखोफ ठिठोला करते थे 

लेकिन डूबी यह  संध्या भी 
अंधियारे ने आगोश लिया 
बचपन का छोटा पुष्प कही 
जीवन की दोड़ में छूट गया 


लेकिन  चंचल था मन अब  भी 
पल भर पहचान नहीं पाया 
 ठोकर खाकर संभला जाना 
वह बचपन छोड़ कही आया  


अब सीखा करते है हम भी 
कैसे सपनो को है बुनना 
लेकिन शायद कुछ छूट रहा 
बन बादल  उड़ने का सपना 

जो उड़ता है अपनी लय में 
जग को मुस्कान दिलाता है
कुछ छोटी कागज की नावो में 
सपनो को सैर कराता है

बस अब ढलती धीरे धीरे
अंधियारे की रात विकल
सपनो से खेल रहा होगा
मेरा सोया बचपन कही इधर

 कृते अंकेश