Tuesday, March 15, 2011

क्षण भर के कम्पन ने फिर से 
एक नयी त्रासदी ढा दी 
कितनी सूक्ष्म असहाय जिन्दगी 
 जल तरंग ने पल में बहा दी 
असंभव घटनाओ का
यह कैसा क्रम है छाया
नाभिकीय विस्फोटो  से
विकिरण  निकल बाहर है आया
ढूढ़ रहे है दूर दूर से
आये  नयन मनुज के तन को
अपने स्वप्नो के मलवे में
छिपे हुए मानव के मन को
स्वयं झूझती सीमाओ से
आज अर्ध्सुप्त सी काया
सकल विश्व हुआ एक है
यह संकट मानव पर आया

  
 
 
 


   

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