Friday, December 31, 2010

पलको से ओझल होने को अब  चार कदम ही बाकी है
ढलने वाली है रात अभी
एक  नयी सुबह की  तैय्यारी है
उधडे से कपड़ो में बीता
यह साल रहा घोटालो  का
किसने किसको कितना लूटा
बिखरे संदेशो के हवाले का
न्याय क्षेत्र  भी शक की संज्ञा से बच न पाए यहाँ
लूटमार के अंतर्द्वद में विलुप्त हुआ है सत्य यहाँ
अर्थजगत की तस्वीरो में मेरा भारत उभरा है
खेलजगत की भूमि में  एक नया पेज सा निखरा हैं
आज विश्व की सर्वशक्तिया भारत में आकर टिकती है
अपने बाजारो  के दम पर उनकी अर्थव्यवस्था सुधरती हैं
बन स्वतंत्र ओर न्यायपूर्ण नीति से चलते जायेगे
उम्मीद हैं आने वाले कल  में विकसित भारत बन जायेगे
इससे पहले मेरे क्रम में एक नया वर्ष जुड़ पाए
धन्यवाद करता हूँ सबका
इस  आशा से,
उस कल में हम अपना सर्वत्र परचम लहराये

Saturday, December 25, 2010


कुछ पनघट से लाकर छोड़ा
कुछ अंखियो से पाकर जोड़ा
देख श्याम की राह में व्याकुल
गोपी का जल हुआ न थोडा
डूब गया दिन हुई है रतिया
लौट चली अब सारी सखिया
बोलो मेरे श्याम सलोने
ओर करू  में कितनी बतिया
कही बावरी रात का घूघट
मुझको अपने अंक न ले ले
नटखट हुई चांदनी देखो
अपने सारे भेद न खोले

इन बिखरी आँखो का काजल
अर्धविप्त नयनो   से बोले
बनी  श्याम की राह में व्याकुल
इन नैनो से श्याम न खो दे
चली बावरी पवन भी देखो
मंद सौम्य सी ध्वनि सुनाती  
कही श्याम की बंसी पाकर
मुझ पर तो न रोब जमाती
उठी दिवा सी स्वेत किरण जो
इंदु छवि है मेरे उर की
आलंगन अधिकार अधूरा
आकर्षित अमृत अनुभेरी 

नयन ताकते तेरी सीमा 
निशा चली अब अपने डेरे
देख रवि कि किरण क्षितिज  पर
भंवरो ने भी पंख है खोले 
बनी विरह कि बेधक ज्वाला
उषा का आह्वान कराती
अंधियारे से ढके विश्व को
अपनी लाली से नहलाती
कही श्याम कि चंचल लीला
निशा नीर सी  आई हो 
सम्मुख होकर भी गोपी से 
वह तस्वीर छिपाई हो
उठी सुप्त सी कोई छाया
चली कही वो अपने डेरे
छिपी लालिमा अधर में जाके
यमुनाजल रवि किरणो से खेले

 

क्रमश:
कृते अंकेश

Wednesday, December 22, 2010

प्रश्न


अपनो की हरकतो ने
गैरो का घर बसाया
जो आबो हवा दी थी मैंने
उसमे जहर  मिलाया
 कैसे कहू में सपना
 मेरा कभी न यह था
आज़ादी को मेरी
बंधन बनाया उसने
बिखरे  हजारो रंगो में
में रंग बस यह भूला
मेरी सदी का सपना
पल में भुलाया उसने  
कैसे बताऊ उनको
तुम भी हो मेरे अपने
उन अपने ही शब्दो  ने
जिन्दा जलाया मुझको

Tuesday, December 14, 2010

अखबारो की सुर्खियो में
कोई भ्रष्ट नेता न पाया
 जाग चुका या अभी स्वप्न है
 यह कैसा कलयुग है आया
समाचार की भाषा में अब
भ्रस्टाचार  पर्याय बन गया
जीवन की परिभाषा में
सत्य न्याय कही दूर छिप गया
आनंदित असुरो की सेना 
अपने कर्मो का न्याय  तोलती
संविधान को रखे ताक पर
स्वाभिमान से सदा बोलती
राज्य हमारे पितृ  सौप गए
 बच्चे को राजा बनवायेगे
 जनता का क्या वो जी लेगी
हम देश  बेच कर खायेगे 

Friday, December 03, 2010

स्मृति

अधूरी सी रही  जो ख्वाइश कभी 
वो आज जीने की ख्वाइश हुई
छिपे रंग बीते समय के तले
तस्वीरो को रंगी बनाने की ख्वाइश हुई

ढूँढो  बीता समय वो गुजरा सा कल
कहा बिखरे वो चंचल से पल
वो तेरी हसी अधूरी पज़ल
में भूला बेरंग मौसम की ग़ज़ल

तराशे से मोती वो साथी पुराने
नुक्कड़ की मस्ती कई अफसाने
अधूरी सी ख्वाइश अधूरी सी हस्ती
हकीकत की दुनिया में सपनो की बस्ती

चले संग बहते समय के तराने
किस मोड़ मिलते यहाँ कौन जाने
ख्वाइश ही संजोये चले जा रहे है
अधूरे से सपने पले जा रहे है

Thursday, November 25, 2010

पलको को आराम कहा
सारी रातें   वो जगती है
जब किरण भोर की आती है
थकती सी अखियो पर गिरती है


बैचैन बनी बावरी सी
बस तस्वीरो को तकती  है
बिखरी सी रातो में खोयी
यादो में डूबी ठगती  हैं 



अनजान बने दुनिया सारी
नादान बनी यह हसती है
जब किरण भोर की आती है
थकती सी अखियो पर गिरती है

Sunday, November 07, 2010

Humanoid Robo

Use your mind to mould my shape

bring a little brain in its place.

I will tune the problems around 

will make life more profound

I will do whatever you command

I can serve whenever you want 

I will bring your presence everywhere 

I will do whatever you care
 

I will go far in space

I will explore extreme estate 

I will die before you live 

will make sure you have no fear 

I will take tears from you 

I will cry in place of you

Sensing emotions , tuning hearts

together we can resonates the world

Ankesh

Sunday, October 31, 2010

 स्मृति

वो चिर परिचित प्रतिबिम्ब था
फिर क्यो में हैरान हुआ
उन  अधरो का वक्र मुझे
क्यो इतना अनजान लगा

इतनी ख़ामोशी क्यो मेरे
अधरो पर छायी है बैठी
 जीवन के अर्ध शतक बीते
 यह धुंधली घटा छायी कैसी

वह विगत स्वप्न वह विगत घडी
वह विस्मित सी बेचैन बड़ी
वह बारबार व्याकुल करती
वह बेखोफ बड़ी, वह बेखोफ बड़ी

फिर धुंधले से साये में
कुछ परिचित रेखाओ को पाया
पलको को बंद किये बैठा
भूल गया क्या छोड़ आया

कृते अंकेश

Friday, October 08, 2010

स्याह छवि को बना दे उजाला
चिरागो को इतनी फुरसत कहा है

Sunday, October 03, 2010

अभिनव बिंद्रा लिए तिरंगा
मेजबान दल आया है
करतल अभिनन्दन हर्षनाद से
खेल जगत मुस्काया है
विभिन्न विधाए,  भिन्न अदाए
जंग जीत की तैयारी है
सुदूर देश से  भिन्न भेष में
हर्षित यह नर नारी है

Wednesday, September 29, 2010

शब्दो को ताली मिलती है
पर जैबे खाली मिलती है

Tuesday, September 28, 2010

नन्ही सी आँखो में  पानी भरते देखा हैं
भरी दुपहरी में जीवन को नादानी करते देखा है
चोराहे पर पलता जीवन
कितना आगे जायेगा
बचपन का यह सौम्य पत्र कितने शीत शिशिर  सह पायेगा
रोटी के आगे जीवन से बेईमानी करते देखा है
नन्ही सी आँखो में  पानी भरते देखा हैं

कृते अंकेश

Tuesday, September 21, 2010

 जब चिड़िया चुग गयी खेत

.बारिश होते होते काफी देर हो चुकी थी .....कहने को तो शाम के सात ही बजे थे, लेकिन लग रहा था मानो रात की बेला भी ढलने को आ गयी हो . पापा भी कितनी बार बोले थे बेटा कल  चले जाना ..... आज मौसम कुछ ठीक नहीं है. पर जवान जोश के आगे उम्र का रौब कहा टिकता है.  हम भी डट कर बोले, कोई लड़की थोड़े ही है, जो कोई उठा कर ले जायेगा ....... अब भुगतो, उठाने का तो पता नहीं, लेकिन  अगर बारिश न रुकी तो यह  पानी तो पक्का हमें  बहा कर  ही छोड़ेगा. यहाँ आस पास कोई घर या ठोर ठिकाना भी तो नज़र नहीं आ रहा है . हे  इन्द्र देवता कुछ तो रहम करो, में सारे जीवन आपके उपकारो   को नहीं भूलूंगा  , अरे यहाँ तक की इतनी गारंटी  भी देने को तैयार हू कि मेरी बस्ती में किसी को आपकी गद्दी की और आँख तक उठाने नहीं  दूंगा, भगवन बस यह बारिश रोक लो.  यह क्या, प्रार्थना का असर तो कुछ उल्टा ही मालूम होता है ...... बारिश की तीव्रता समय के साथ  बढती ही जा रही है . छोटे छोटे  गड्डे भी सागर को पछाड़ने के लिए जोर शोर से लगे हुए है, नालियो की सीमा विजयी दल की भाति  परिवर्तित होती जा रही है.  यहाँ तक की कुछ नालिया  तो नयी नवेली दुल्हन की तरह इठलाती हुई चलने लगी है . कचरे की भी आज उड़ कर लगी है , मुफ्त में नदी की  सैर  जो कर रहा है. अब तक सुरक्षित बची मेरी सैन्य  चौकी भी अब बारिश के बहाव का शिकार होने के कगार पर आ गयी. कहा जाता है दुश्मन को अगर तोडना है तो सबसे पहले उसकी जड़ो को तलाशो. एक बार अगर जड़ हाथ में आ गयी, फ़तेह तो खुद बखुद हो जाएगी . काल देवता भी आज समूल विनाश के इरादे से ही आये है. पानी के जोर से मेरे आस पास की मिट्टी भी तेरती हुई सागर से मिलने निकल पड़ी. अब तो अतीत  के चित्र आँखो के सामने से गुजरने लगे. जब में छटवे  दर्जे में था, मुझे तैराकी  सीखने की  बड़ी इच्छा होती थी. लेकिन मन की इच्छाओ को प्रधानता मिलती ही कहा है , कभी साल दो साल में अगर कही जिक्र छिड गया तो याद आ उठता था, वर्ना फिर से यह आशा मन के किसी कौने में दब कर बैठ जाती थी. लेकिन आज वाकई खुद पर अफ़सोस हो रहा है, अगर कभी अपनी इच्छाओ को जरा भी प्रधानता दी होती तो आज जान पर बन आने की नौबत तो नहीं आती. लेकिन अब पछताए क्या होत जब चिड़िया चुग गयी खेत.

Thursday, September 16, 2010

बिखरता हूँ  , बिछुड़ता हू,  बहारो से विसरता हूँ
बना व्याकुल बिना वारि भटकता हूँ तरसता हू
वो बेखुद  सा  बना  बैठा  बरसते बादलो के  बीच
विरह की वेधती ज्वाला सहजता हूँ सहजता हूँ 

Saturday, September 11, 2010

अंत

ढूंढ  रहा अपनी परछाई
खुद से भी अनजान हुआ
बीत गए सुख दुःख के साए
गम भी अब वीरान हुआ


भटक रहा हूँ अंधियारे में
आशाएं भी  लुप्त हुई
जीवन की यह शेष स्वांस भी
अंतपूर्व ही मुक्त हुई


योग वियोग सीमाएं छूटी
काल विकाल रची वसी
शून्य सरोवर में बहती यह
काया ही  अब शेष बची


किसी रोज़ और किसी मोड़ पर
जो पैगाम मिले कोई
कह   देना  यह रात  गयी
लाने  एक प्यारी सुबह नयी..........

कृते अंकेश 

Sunday, September 05, 2010

सत्य 

आज गगन को देखा मैंने
कुछ बदला सा पाया है
धुंधलापन  गायब  है
हर दृश्य  उभर कर आया है

झूम रहे तरुपत्र सामने 
पक्षी सुर में गाते है 
सावन बीत गया है फिर भी 
बादल  गीत सुनाते  है

बहती मादक  पवन सयानी 
शीतलता को चूम  रही  
फुटपाथो  पर बिखरी  छाया 
आज खुशी से कूद रही 

रहने दो बस यही छवि 
क्या परिवर्तन स्थायी  है 
छाया धुंधलापन आँख खुली 
यह सपना भी अस्थायी  है  



  

Saturday, August 28, 2010

प्रवाह 

जलमग्न होती धरा और डूबती मनुष्य काया 
सेकड़ो घर ले समेटे काल बन संकट है छाया
आंसूओ की क्या कमी थी 
जल का यह सागर बहाया 
या सचमुच मनुष्य ने प्रकृति  को इतना रुलाया

तीव्र विस्तार से   जल  की धारा जो चली 
लग रहा मानो भोगोलिक सीमाएं सारी घुल चली  
एक है दुनिया हमारी 
अस्तित्व अपना एक है 
आओ मिटाये दूरिया यह मनुष्य अभी शेष है 




 









Saturday, August 14, 2010

सजती सभा स्वाधीनता
सम्राट सा सम्मान है
सम्पूर्ण सृष्टि सार सरिता
सज रहा सुरधाम है
स्वतंत्र स्वयंभू स्वराज्य का
हो रहा उदघोष  है
लहरा रहा  तिरंगा
हर साँस में अब जोश है 

Saturday, July 31, 2010

स्वप्न 

चल देते है कभी
अचानक से
अनजानी राहों पर 
मंजिलो की तलाश में
समझते है 
कभी समझाते है
या कभी शायद समझ कर भी 
बहक जाते है 
टकराते है टूटते है 
उम्मीदों  से झूझते है 
बहता है मन 
मानो कटी पतंग 
चंचलता बढती है
लहरों की तरह 
कुछ तासीर ही ऐसी है 
या ख्वाबो  का करिश्मा 
जीनी है वो दुनिया
जो में बुनता रहा हूँ 
बीत चला अरसा 
क्यों चुप में खड़ा हूँ 
यह शोर है कैसा 
कैसी है हलचले 
यह ख्वाब है बीता 
या स्वप्न भवर है
टिक टिक घडी की 
निरंतर चल रही 
चंद निगाहे 
बस लक्ष्य तक रही 
उम्मीद है रचेंगे 
इक नया फ़साना 
हो स्वप्न ही भला 
यह  कर है जाना 









Sunday, July 25, 2010

अवसरों को ढूढना 
करना बहाना प्यार का 
बीत जाएगी बहार 
खो न जाना यार 

फिर बजे जो बांसुरी 
ताल छेड़े जो मृदंग 
सोचना है सामने 
फिर वही संसार 

देख मेघराज को 
खिलने लगे जो मन मयूर 
करना नियंत्रित कामना 
है चंचलता पाश 

बारिशो की बूँद को 
गिरने न देना ओष्ठ  पर 
छल जायगी घटा 
वियोगी बयार 

में यहाँ सुदूर में 
शांत छंद रच रहा 
मेरी कवित्व साधना 
है तेरा इंतज़ार

आदित्य ने आभा को पिघला आज है बरसा दिया
ग्रीष्म ने भी शीर्ष पर रहने को है तय  किया 
जीवन लगा पिघलने स्वेद की बूदो तले
वाष्प बन धरा का सारा नीर भी जाता रहा

चल रही पवन भी आज पूरे जोर शोर से
बरसा रही अनल की धार आसमा के छोर से
तपती तपस्या जून की है इन्द्र ने भी सुन रखी
लापता है मेघराज बढती घटा रविन्द्र की

धार जमुना की गई सिकुड़  सर्प रेख सी 
व्याकुल हुई धरा तकती  राह मेघ की
आ चला आषाण लेकिन ताप तेवर तीव्र है
जीवन गया सिमट चढ़ा  प्रदूषण की भेट है 



Thursday, July 22, 2010

में अभी तक सोचता था
हूँ अनाड़ी में यहाँ
आज वह  बतला गया
यह  बस मेरा नजरिया था
चंद पत्थरो  को तराशा 
नूर  का दर्जा मिला 
और कोई  खंडहरों  में ताउम्र भटकता फिरा
.................
जिन्दगी की जंग में बस जीतना ही नहीं 
सेकड़ो नै हार  कर भी नाम है रोशन किया

Saturday, June 26, 2010

समर 

यह  समर मिलन है  सीमा  का
हर घाव यहाँ  धुलते हैं
जब रक्त यहाँ बहता हैं
माटी से रिसता हैं
जाता हैं उस पार वहा
जहा एक वीर है और ढहा
माटी करवाती आलिंगन
चूमा करती हर कण से कण
यह रक्त नहीं आंसू है
जो धरती आज है रोती
खोये है दो वीर पुत्र
कैसे खुश हो सकती
फिर जस्न मना यह कैसा
यह कौन बजाये तुरही
यह किसने खीची  सीमा
यह किसकी संसोधित संधि
बेवफा 

शायर क्या है वफ़ा
यह मौत सिखा जाती है
दो कदम बहुत ज्यादा है
पल भर में ले जाती है
वो तो हँसते थे चलते थे
यह चुपके से आती है
वो जाने पहचाने थे
यह अनजानी ले जाती है
हम सफ़र कहो या दीवाना
यह वफ़ा निभाती है
आती है ले जाती है
 मझधार में न तड़पाती है
है इश्क मुझे हर पल से
दिल तक जब रहता है
सोचा जो इसने  पल भर
मतलबी बना कहता है
 हम बड़े हैं शायर कलम हमारी
वो बेवफा नारी
जो थी जानी पहचानी
और यह मौत मिली अनजानी

Wednesday, June 23, 2010

बिखरते रंग देखे थे ज़माने में
अब अँधेरे है आशियाने में
दीवारों के परदे भी उलझे हुए
सोचते क्या रह गया छिपाने में
चमकती चांदनी जो पड़ कभी जाती
दिखती दरारे और बने घर उस वीराने में
फिर भी मंजूर नहीं बुझना अभी
सेकड़ो हैं उमंगें इस ज़माने में

Saturday, June 19, 2010

       समर्पण 

उस  क्षण  मुझको विश्राम कहा
आनंद भी हैं अविराम नहीं
सीमा अब तक अपरिभाषित सी 
बिखरी आशा अनजान यही

मुझको उत्तर की चाह  नहीं
मेरे प्रश्नों का मोल यही
जीवन मेरा संग्राम सा हैं
पाने की इसमें आस दबी

कुछ पल गुमसुम ही रहने दो 
 ख़ामोशी तोड़ी जाएगी 
बरसो  से ख्वाब  सजाया है 
तस्वीर  भी  मोड़ी जाएँगी 

अश्रु भी अवसान नहीं 
जीवन भी अंत नहीं होगा 
यह क्रम सदा चलता आया 
मुझसे विचलित न कल होगा 

यही समर्पण पाया था 
मैं यही समर्पण दे जाऊँगा 
मैं आज समर्पित होता हूँ 
कल  यही समर्पण चाहूँगा 

Wednesday, May 19, 2010

मेरे कुछ ख़ास साथियो को समर्पित 

बीत गया धुंधला सा सपना
रात गुजर सी चली गयी 
आने वाले कल की यादे 
फिर माथें में उभर रही 

स्वप्निल स्वरित स्वयंभू काया 
स्वप्नों की यह चंचल छाया
स्वप्न सरोवर सुधा प्रवाहित 
आज सृजन  को उभर रही 

छोड़ चला  मैं आज स्वयं को 
स्वप्न नया एक पाने को 
कदम उठाये आज है मैंने 
दुर्गम पथ अपनाने को



Sunday, April 04, 2010

सीमा

जब बारिश की बूंदो ने भी हमसे नाता तोड़ लिया
 खेतो की हरियाली ने भी गाँव का दामन  छोड़ दिया 
सुनकर आया तेरे दर पर खुशियो की बारिश होती है
नहीं पता था आंसू बहते और नुमाइश होती है

आज तुम्हारे शहर मैं आकर  मैं खुदको ही भूल गया 
नहीं पता किस राह चला था और किधर मैं निकल गया 

अपनी मिट्टी पर जब हम अनजाने चेहरे पाते थे 
उन चेहरों मैं भी जाने कैसे अपनापन खोज ही लाते थे
आज सेकड़ो चेहरो में , मैं खुद को खोया सा पाता हूँ 
बस   फुटपाथो पर बिखरी भूखी  लाशे गिनता जाता हूँ 

नही जानता क्यो फिर भी वो गीत खुशी के गाते हैं
क्या वो इतने सीमित है या हम सीमा से बाहर आ जाते हैं 

Thursday, March 04, 2010

कुछ सपनो को शायद
और सवारा जा सकता था
काले कागज पर स्याही को फिर बिखराया जा सकता था
मेरे मन को भी शायद  कुछ पल
ठहराया  जा सकता था
पर उन बिखरे पन्नो को नहीं छिपाया जा सकता था

अब तो कागज़ के टुकड़े ही बस इतिहास बताते है
जाने किन सदियों के किस्से थे
कब की याद दिलाते है
कही देख कर भी उनको
जब मैं खुद को यह बतलाता हूँ
उस कागज की कतरन को मैं खुद के सम्मुख पाता हूँ

Thursday, February 04, 2010

 (१)
देना मुझको दर यही , जीने के पल चार
बाकि किसको खैर  है, सम्मुख सत्य यथार्थ!!
(२)
पाया पावन  देह पिघल , श्रमिक मणिक अनमोल
अंक सहेजे वसुंधरा,  हर्षित  तृप्त विभोर !!

Monday, January 25, 2010

Story -:



She wondered if it was always going to be like this and closed her eyes.

It is a big day for her, as she is no more going to live in those nasty huts, where future goes to nowhere …

She was just three year old when her fortune rewarded her this place. She even does not know as to who brought her here. Whenever she thinks about it, she remembers only dark faces rusting with each other
and then a big silence.
What she can recollect a bit more clearly was the harsh voice of Kazir. Kazir was a tall guy having dark moustache but a slim body. Most of the people knew him better as "Kazir bhai".
Initially Kazir sent her with a fifteen year old girl. He instructed that girl, "See, now you got a baby in your arms, I want double money from now onwards".
After that the sun, street light and the loud horns was the only musical amusement for her. She had no idea, of what she was doing and why she was doing it. No one ever asked it from Kazir. She was an orphan and all orphans in this city were being fed and taken care of by Kazir. It is the only truth of her life.
As time passed by, her duties kept on changing but she was still begging and yet she had nothing she could call belonging to herself. "God helps them, those who work hard" has no meaning for this poor girl. She has no idea what a play is, and how one can have fun in life? Her only joy was in seeing one car hitting the other, people running after the bus and missing it, salesman cheating the customers and pickpockets using their tricks.
At this age when education should nurture her mind, she is getting pulse of all the evils prevalent in the society. Still she worked hard and in fact it was her blood which was making her so.



As she grew up and turned sixteen, Kazir asked her to learn some dance and told that she is going to dance in a bar.
This was the first time when she was hearing something other than those horns and her legs were supporting her movements automatically as if it were saying "Sarika, mould yourself into this, you are not going to that world again."
"Girls pack up", this was the voice of the bar owner. After this she had no idea how years passed by. The moments she missed from her miserable life were the moments when she was dancing.
Sarika turned fifty and life has still given her nothing more than an opportunity to work and she was doing it with full dedication.
Kazir has now become old and most of the time he rests on his bed due to sickness. Sarika is the one who sees him, serves him and helps him. It is not a return of what Kazir has done for her and in fact Kazir has done nothing for her. She only was doing a lot for him. Even since, when she was not knowing that she was doing it for him and she was doing it still.

There were lots of other girls who used to work for Kazir but none of them was with Kazir then.
After a month Kazir passed away. First time in her life she felt that she was alone, though she couldn't cry, as she didn’t know how to? Only a drop of water appeared on her face but whether it was sweat or tear, no idea.
But it hardly affected her life. In fact there was not much in her life to get affected by.She was living a life which leads to nowhere. Still she was going in her full zeal to meet its end. This passion was the only thing which differentiated her from others and this was something which she had learned before she was three year old, before misfortune happened to her, before her loved ones left her alone, before her childhood got lost on the way or before she came to this place.
Time has not changed. Only the characters are changing. Kazirs are still growing up in the society and society needs them, otherwise who will take care of those who lose their way. There are lot more Sarikas and lot more communities like this. Humanity and compromise is making their business day by day.

The only difference one can identify among those faces was on the basis of "How old he or she was when they came here? As after that nothing was being added to his or her grey cells.

Sarika was still working hard. In fact it was not true that she was a beggar, she never begged in her life, she just served for a beggar. Her life never taught her begging, she only learned working hard and then she left learning.

Today she finished her work earlier as she was not feeling well. She came home, she was feeling tired. She took a glass of water, sat on bed. It was a hot summer, weather was dry and hot.

Her eyes were closed. No one was there to mourn, she never taught anyone to mourn. This society never taught anyone anything. Education was completely missing here.

PS. Thanks to vaibhav goel for reviewing and correcting few mistakes.......
प्रकृति के पुत्र
मनुवंशज मानव सुपुत्र
व्याकुल है किसी बड़े शहर मैं
चिंतित हैं परिवर्तित पर्यावरण मैं

उद्देश्य अभी भी स्वार्थ ही है
अपना अस्तित्व बचाने का
बिगड़े मौसम को मनाने का

झगडे होते 
किसका दायित्व
किसका अपराध बड़ा मुझसे
वह खेला था, पहले मुझसे

चिंता है अपने जीवन की
नहीं सोच है संतुलन की

फिर से कागज भर जायेंगे
जंगल कटते जायेंगे

हम विकसित होते जायेंगे

Saturday, January 23, 2010

Music

Echoed in air
blurred with passion
sense of mind
or some notion

ritual craft
or devil's sound
It's an art
of God's proud

beyond the word
it goes inside
having broken limits
make feel you sky

then it seems
like heaven on earth
Thou power o God
I seen in beats & words
The eclipse


Myth
or horror
or some insane
The eclipse in india
like a big drain

blended
with rumour
seems a fuzz
not only ignorant
all looks like dull

science
taught us
how days & night
few still fear
how bad is bright

hope
they learn
the power of light
matter of physics
not some sunsign

Friday, January 22, 2010

उत्तर

कही ठोकर ही मिलती है
संभलना भी वही आता
कही महलो में रहते हैं
जमाना पर्दों में छिप जाता
मुझे ठोकर ही देना तुम
तेरी दुनिया बड़ी प्यारी
तबियत भी अगर बिगड़े
सिखाती यह दुनियादारी
शिकायत हैं जिन्हें कह दू
जरा शबनम से जा पूछो
कितने साल गर्भ में धरती के
मोम के हैं बीते
फिर भी पिघलता हैं
किसी को रोशनी देकर
खुद चला जाता
वापस अँधेरे में ..........