Thursday, January 30, 2014

बह जाने दे मन के बंधन 
खुलने दे सीमाओ को 
आज निकल ओ नीर की बदली 
भिंगो दे मेरे जीवन को 

नहीं सकूंगा और टूट में 
कितना जीवन छूट गया 
मुझ तक आते आते फिर से 
भाग्य सितारा रूठ गया 

यहाँ शिकायत किससे कैसी
कौन यहाँ पर दोषी है
सबका अपना मार्ग यहाँ है
राह कोई न छोटी है

कृते अंकेश

Tuesday, January 28, 2014

ओ चिड़िया 
जरा बता दे मुझको भी 
कैसे है उड़ना 
देख सकू अपने पंखो को 
पहचानू किससे है जुड़ना 
सिखा हवा मुझको अब बहना 
कहना अपने अंतर को 
उड़ा साथ में ले जाऊ जो 
सपना सात समंदर को 
रंग बिरंगी तितली मुझको 
भर दे अपने रंगो से
लेकर सपने उड़ू में जिससे
उम्मीदो के पंखो से

कृते अंकेश

मेरी नाराजगी  में
मेरे शब्द बन जाते है गलतिया
लेकिन मेरी ख़ामोशी ले जा सकती है
उन्हें बहुत दूर तक
इसलिए मेरे दिल
बोल खुल के बोल
जबकि तू नाराज़ है

कृते अंकेश

Wednesday, January 22, 2014


बच्चे चंचल होते है
वह ज्यादा देर तक ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते है
क्यूंकि उनके पास इतना समय ही नहीं होता है
बचपन काफी तेज़ी से निकलता है
बच्चे लेटते हुए घिसटते है,
घुटनो चलते है, खिसकते है, सँभलते है
और फिर दोनो पैरो से चलने  लग जाते है
कितना कुछ बदलता है
और फिर शेष जीवन यही घिसा पिटा क्रम चलता है

कृते अंकेश

Sunday, January 19, 2014


साहित्य और में

 साहित्य शायद मुझे विरासत में मिला है, मेरी माँ ने अपना स्नातक साहित्य में किया, तो वही मेरे पिताजी एक अभियंता के साथ साथ एक मझे हुए कवि है।बचपन से ही मुझे चयनित साहित्यिक पुस्तको से भी परिचित करवाया गया, लेकिन मेरी  साहित्यिक अभिरुचि को बढ़ाने में आगरा के राजकीय पुस्तकालय का एक विशिष्ठ योगदान है, यह  पुस्तकालय मेरे स्कूल के ठीक सामने था और मात्र १०० रुपया इसकी आजीवन सदस्यता होने के कारण इसका सदस्य बनना मुश्किल भी न था, इस पुस्तकालय में एक बड़ा हाल था जिसमे २०० से अधिक अलमारिया थी एवं विभिन्न विस्तृत विषयो पर पुस्तके उपलब्ध थी।  प्रत्येक  सदस्य दो पुस्तके अधिकतम १४ दिन के लिए अपने  घर ले जा सकते थे।   उस समय मैं १० या ११ साल का था और मेरे लिए इतनी पुस्तको में से एक या दो  पुस्तको को चुनना आसान  काम नहीं होता था,  पता नहीं क्यो लेकिन मैं उस हाल में से वही पुस्तके ले जाना चाहता था जो न तो इतनी  लम्बी हो कि चौदह दिन में खत्म ही न हो सके और न ही इतनी छोटी या फिर बोरिंग हो  कि मुझे फिर से इस हाल में बापिस आना पड़े, सामान्यत: मुझे पुस्तको के चयन में अत्यधिक समय लगता था, दो से तीन  घंटे या और भी ज्यादा और किसी विशेष पुस्तक को चयनित करने से पहले में न जाने कितनी पुस्तको के कितने  पन्ने पढ़ चुका होता था, धीरे धीरे वह अलमारिया, उनकी पुस्तके, उन पुस्तको के विषय  मेरी स्मृति में चिन्हित होते चले गए, इसी पुस्तकालय में एक दिन मेरे हाथ हरिशंकर परसाई जी की किताब लगी,  मैंने तब तक उनका नाम नहीं सुना था लेकिन  उनके सटीक व्यंग एवं कटाक्षो में मुझे साहित्य की जादुई क्षमता का परिचय मिला,  मेने उसके बाद नए नए लेखको की कहानिया पड़ना शुरू किया , विशेषत: कहानी संग्रह जो भिन्न भिन्न क्षेत्रो के लेखको की प्रमुख कहानियो का संग्रह होते है। साहित्य का यही सम्बन्ध मेरी शब्दावली को विकसित करने में मुख्य योगदायी है, लेकिन अभी तक यह सम्बन्ध मात्र गद्य से ही था, पद्य से में उतना ही परिचित था जितना कि एक सामान्य छात्र होता है । विद्यालय में होने वाली वाद विवाद प्रतियोगिताओ ने मुझे अपनी साहित्यिक क्षमताओ को प्रदर्शित करने का मौका दिया, इन प्रतियोगिताओ में मैं  मुख्यत: विषय के विपक्ष में ही बोलता था और शायद यह मेरे व्यवहार का एक हिस्सा भी बन गया, में आज भी किसी भी विषय का प्रतिरोध उतनी ही आसानी के साथ कर सकता हूँ जितना कि मुश्किल से उसका समर्थन। लेकिन साथ ही वाद विवाद प्रतियोगिता ने मुझे एक और चीज़ भी सिखायी, वह थी, अपने और अपने  विपक्षी के  सभी पक्षो का निष्पक्ष आकलन । क्यूंकि किसी भी विरोध को सुदृढ़ तरीके से करने के लिए आपको वस्तुस्थिति का ज्ञान होना अत्यतन्न आवश्यक है, चाहे फिर आप विषय के किसी भी पक्ष में हो। जब में  कक्षा ९ या १० में था, विद्यालय ने एक वार्षिक पुस्तिका निकालने का निर्णय लिया, मुझे इसका छात्र सम्पादक बनाया गया, और यही मैंने अपनी पहली कविता इसी पुस्तिका के लिए लिखी। सपना शीर्षक पर लिखी यह कविता आज भी मेरी पसंदीदा है एवं शायद मेरे सभी परिचितो ने इसे मुझसे अवश्य ही सुना होगा । कविताओ का यह क्रम मुझे गद्य से पद्य की और लेकर चला गया और मुझे पद्य लिखना गद्य  लिखने से कही अधिक आसान लगने लगा , यद्यपि में समय समय पर गद्य लिखने का प्रयत्न करता हूँ लेकिन उतनी आसानी से नहीं लिख पता जितना कि कवितायेँ लिख सकता हूँ ।

कृते अंकेश

Saturday, January 18, 2014

प्रेम प्रतिबन्ध 
असीमित सम्बन्ध 
घायल ह्रदय 
मृत शरीर 
ख्याति 
बह गया सब कुछ पानी के जैसे 
अखबारो की सुर्खियो में 

कृते अंकेश
जनता त्रस्त हो चुकी थी, भ्रष्टाचार और बलात्कार की खबरो से अखबार रंगे पड़े थे, ऐसे में उस बूढ़े से दिखने वाले आदमी ने जब आवाज़ उठायी, धरना प्रदर्शन किया, अनशन किया, तो लोगो में फिर से विश्वास जगा, सारा देश उनके साथ लामबद्ध हो गया, चुनाव हुए और सरकार को उठा फेका गया, नए प्रतिनिधि आये, लोगो ने चैन की सांस ली, पर फिर से अखबारो में वही समाचार, फिर से बलात्कार , लोग चिल्लाने लगे, सरकार ने कहा हम आवाज़ उठाएंगे, धरना प्रदर्शन करेंगे, लोगो में विश्वाश जगा या नहीं यह पता करवाया जा रहा है 

कृते अंकेश
मृत्यु श्रापित है 
जीवन से न मिलने के लिए 
जीते है लोग मृत्यु से अनभिज्ञ 
जबकि देती है वो पहरा जीवन के छोर पर 
कहते है कुछ लोग मृत्यु को भी चकमा देते है 
आसान नहीं होता है मृत्यु के लिए हर बार जीवन के पास आना 
इसीलिए करती है वो इंतज़ार टूटती साँसो का 
और करती है छिपकर वार 

जीवन मात्र शरीर नहीं 
जीवन आपका अस्तित्व है
जब तक यह अस्तित्व शारीरिक है
यह क्षयित होता रहता है
और एक दिन मृत्यु इसको अपना भोग बना लेती है
लेकिन मनुष्य को सामर्थ्य है अपने अस्तित्व को शारीरिक से वैचारिक बनाने की
और विचार तो अमर है
मृत्यु क्या समय भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते
बस इसी तरह कुछ लोग अमर हो जाया करते है

कृते अंकेश

Friday, January 17, 2014


मेरे हॉस्टल कि बिल्ली कितनी भाग्यशाली है
घूमती है इधर से उधर, जाती है जहा करता है उसका मन
आ जाती है कभी कभी मेरे पास भी जब ऊब जाती है बाकि सभी चीज़ो से
नहीं देखा मैंने उसे कभी ठहरते हुए एक जगह
चल पड़ती है हर अगले पल एक नए मिशन की खोज में
मुझे याद है बचपन में एक बिल्ली मेरे घर में आकर दूध पी जाती थी
और माँ कभी कभी मुझे बोल कर जाती थी
दूध गर्म है फ्रिज में रखने से पहले ठंडा होने रखा है
देखते रहना बिल्ली नहीं आ जाये
उस दोरान मुझे काफी कुछ पता लगा बिल्लियो के बारें में
कितनी सतर्क रहती है शिकार करते हुए
और कितना डरती है वह पानी के स्पर्श से
उनके पास तक दुश्मन बनकर जाना उतना ही मुश्किल है
जितना आसान दोस्त बनकर उनके नजदीक आ जाना है
बिल्ली पर भरोसा करना आपकी सबसे बड़ी भूल हो सकती है
लेकिन बिल्ली आपको कभी नहीं भूलती है
वह फिर से कभी कभी पुरानी जगहो पर लौट आती है
और अगर कही राह में मिल जाये तो म्याऊ कहकर आपको अपनी याद दिलाती है

कृते अंकेश

कुछ दिन और दिनो से बेहतर
कुछ दिन और दिनो से हल्के
कुछ दिन खाली,कुछ दिन पूरे
कुछ दिन बीते ढलते ढलते

कुछ दिन  खोये ख़ामोशी में
कुछ दिन महके और ख़ुशी में
कुछ दिन फिर अलसाये सोये
कुछ दिन बस सपनो में खोये

कुछ दिन लाये याद सुनहरी
कुछ दिन बांधे बातें गहरी
कुछ दिन साथ हक़ीक़त लाये
कुछ दिन दिन का मूल्य बताये

कृते अंकेश

Thursday, January 16, 2014

रात गगन में चॅाद जो आया 
लगा मुझे कि तुम आये हो 
चमगादड़ जो उड़ी अचानक
लगा कि जुल्फे लहराये हो

साय साय जब हवा थी चलती
लगता कि तुम गीत हो गाते
आसमान में बिजली चमकती
लगता मानो तुम मुस्काते

हाल ही न पूछो मेरा क्या
में तो पागल पहले से हूँ
रही सही जो सासे शेष थी तन में
खोकर उनको अब गुमसुम हूँ

कृते अंकेश
लोग कितने अजनबी से हो गये है आजकल, 
दिखते थे जो चेहरे खुशी मे, खो गये हैं आजकल 
रात के पहरे घने क्यों हो गये है आजकल 
संग मिल गप्पे लड़ाते, पल खो गये हैं आजकल 

ढूढ़ते वीरानियो में बैठकर यादों का घर
क्या तुझे है याद फिर वो संग अपना वो शहर
अजनबी से पल थे वो और अजनबी से वो पहर
मिलकर यादों को रंगा था साथ हमने बेखबर 

उस इमारत की कड़ी के टूटे से पत्थर है हम
इक किनारे अब पड़े बिखरे हुए से पल गुमसुम
आज भी हैं ढूंढते खामोशियो के राज यू
ख्वाब हो जैसे सजीदा, उम्मीदे कोई जीवंत

कृते अंकेश

Thursday, January 09, 2014


तुम अगर हो ख्वाब मेरा
तो हक़ीक़त की चाह किसको

मानता हूँ में जिया हूँ
इस जगत की भीड़ में
है नहीं कुछ पास मेरे
इस अनोखे नीड़ में

लेकिन सजाता हूँ जिसे में
पालता आँखो में हूँ
तुम अगर वो ख्वाब मेरा
तो हक़ीक़त की चाह किसको

है नहीं  मेरा सहारा
है कहा मेरा किनारा
दे सकू में जो तुझे
है नहीं उपहार प्यारा

लेकिन सजाता फिर पलो की
याद को आँखो में हूँ
तुम अगर वो ख्वाब मेरा
तो हक़ीक़त की चाह किसको

में कहा तुझमे जुडूंगा
दूर भी कैसे रहूंगा
पास तुझको ला सकू
है कहा वो भाग्य तारा

लेकिन जियूँगा में गमो की
जोड़ती झिलमिल सी धारा
तुम अगर वो ख्वाब मेरा
तो हक़ीक़त की चाह किसको

कृते अंकेश

एक नए गांधी ने आकर दिल्ली को अभी सम्भाला है
बैठ घोटालो की फ़ाइल पर
जनता को दिया निवाला है

उनके साथी राजनीति में अभी जरा से कच्चे है
भूल गए इस जन-अदालत में
अभी वो बच्चे है

उनसे युवा पीढ़ी ने सपनो का
एक नया सपना पाला है 
एक नए गांधी ने आकर दिल्ली को अभी सम्भाला है

कृते अंकेश

दुःख ने जब मुझको आ घेरा
लगता था फिर दूर सवेरा
हिम्मत अपनी हार रहा था
खुद को ही में मार रहा था

तुमने मुझको याद दिलाया
मेरा सपना पास बुलाया
मेरी हिम्मत को सहलाया

सुख के मद में डूब गया जब
खुद को ही में भूल गया जब
अपने आँगन की सीमा में
अपनो को अनजान सा पाया

तुमने मुझको याद दिलाया
मेरा सपना पास बुलाया
मेरी हिम्मत को सहलाया

कृते अंकेश

Sunday, January 05, 2014

उड़ती मिटटी में साँसे ढाल 
बनाया किसने यह इंसान 
कि अपनी पर जब यह आ जाये 
नहीं कुछ इसके आगे तूफ़ान 

छिपाया इसमें कितना नीर 
बनाया इसको कितना धीर 
मगर जब टूटा करता वीर 
नदी ज्यो पर्वत से बहती पीर 

मगर पाया इसने विस्तार
कि जैसे नभ का है यह सार
टूटे चाहे क्यों न कितनी बार
उठा करता यह फिर बन विशाल

कृते अंकेश
है ईश्वर तुम कह दो हमसे 
या तो हम इंसान नहीं 
साँसे देकर छोड़ दिया क्यों 
जब दो मुट्ठी भी धान नहीं 

कृते अंकेश

उनके मन की न कहो तो
भोहे चढ़ा लेते है लोग
छोटी मोटी बातो पर अक्सर
जग सर पर उठा लेते है लोग

क्या सुनेगे क्या कहेंगे
यह अगर जग न सुने
यु अधूरी बात कह कर
कोलर उठा लेते है लोग

कोई पूछे फिर मुझे
में बात किसकी कर रहा
आइना जब में दिखाता
पत्थर उठा लेते है लोग

कृते अंकेश

Saturday, January 04, 2014


परदे बदले गए महल के
कुछ तो हलचल आयी है
रंग न देखो अब तुम इनके
रंगो ने बस बर्बादी लायी है

देखो पर पर्दो के अंदर
कितनी है सच्चाई छिपी
जानो उनकी हर बातो में
कितनी है गहराई छिपी

हाँ यह तूफ़ान नहीं है पहला
हवा यहाँ पहले भी आयी है
लेकिन शायद ही उनमे से कुछ
इतनी ज्यादा टिक पायी है

देखो जानो पहचानो सच को
और चुनो फिर अपने कल को
आज यही है मौका बेहतर
याद करोगे वरना  इस पल को

कृते अंकेश

Wednesday, January 01, 2014


जिनकी रही खुशिया अधूरी
उनको खुशियो का भण्डार दे
जो रहे खुशियो से लथपथ
उनको फिर ख़ुशी इस बार दे

जो रहे सपने सजाते
उनको सपनो का संसार दे
जो हकीकत को थे  बनाते
उनको वक़्त फिर इस बार दे

सोचते जो सबका भला
उनको बढ़ा एक  बार दे
संसार सुन्दर सा सजा हो
नववर्ष ऐसा इस बार दे

कृते अंकेश