Wednesday, October 19, 2011

मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी
नंदन वन सी फूल उठी यह छोटी सी कुटिया मेरी

माँ ओ कह कर बुला रही थी, मिटटी खा कर आई थी
कुछ मुह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लायी थी

पुलक रहे थे अंग, द्रगो में कोतूहल सा छलक रहा
मुह पर थी आल्हाद लालिमा, विजय गर्व था छलक रहा

मैंने पुछा यह क्या लायी, बोल उठी वह, "माँ काओ"
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय ख़ुशी से, मैंने कहा, तुम्ही खाओ

पाया मैंने बचपन फिर से, बचपन बेटी बन आया
उसकी मंजुल मूर्ती देखकर, मुझमे नवजीवन आया

मैं भी उसके साथ खेलती, खाती हूँ, तुतलाती हूँ
मिल कर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ

जिसे खोजती थी बरसो से, अब जाकर उसको पाया
भाग गया था मुझे छोड़कर, वह बचपन फिर से आया

(सुभद्रा कुमारी चौहान)

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