Wednesday, July 02, 2014

रात भर जला शहर यू अपनी आग में
ढूंढती थी फिर सुबह क्या बचा है राख में
बनकर हवा थी उड़ गयी, रुप, वैभव और छवि
कोयलों के ढेर में आखो की नमी शायद बची
संभोग मे रत अस्थिया, गिद्दो की चौचो की नौकपर
क्षण में बदला हैं शहर, क्षणभंगुरता को छोड़कर

कृते अंकेश

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