Wednesday, May 14, 2014



यह कविता अभी कुछ  पंक्तियो तक और चलेगी
जब तक कवि को नही मिलता एक शीर्षक
जिस पर लिख सके वह एक कविता
वैसे ऐसा नही है कि  कविताएँ शीर्षक  मिलने पर ही लिखी जाती हो
और वास्तविकता तो यह है की अधिकांशत: कवितायेँ शीर्षकविहीन ही होती है
जीवन की तरह
कौन जानता है अपने जीवन का शीर्षक
या अगर हम कुछ मान  भी लेते है तो कितना सटीक उतरता है वह शीर्षक जीवन पर
जीवन  तो जिया जाता है स्वछंद, अपनी ही धुन और अपने ही हिलोरो मैं
ठीक उसी तरह कवितायेँ भी बहती है  विचारो की गंगा में
शीर्षक के बंधनो  से परे
एक अन्त की ओर

कृते अंकेश

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