Saturday, April 19, 2014

थी वो छोटी सी बमुश्किल साल भर की ही रही
में नया था उस शहर में
वो थी दुनिया में नयी
दूर से देखा मुझे और दूर से निकली गयी
खींचती रेखा अनोखी
मानो कहती हो
सोचना इसमें आने का भी नहीं
था वो मेरी मौसी का घर
धर्म की नगरी प्रयाग
डाला था मैंने वहा
अपनी शिक्षा का पड़ाव
और फिर दिन कैसे गुज़रे
था समय भी दौड़ता
उस दौड़ के ही बीच में
कुछ समय मौसी के घर में भी गुज़रता
और वो नन्ही सी लड़की
कब मेरी गोद तक आने लगी
कुछ सुने और कुछ अनसुने अपने मन के किस्से सुनाने लगी
और भी बच्चे वहा थे पर वो उनमे सबसे छोटी रही
अपनी बातो से सदा वो ध्यान मेरा मोहती रही
कहती मुझको अंकेश वो
भइया भी थी जोड़ती
बाक़ी बच्चो से अलग पर वो नाम मेरा बोलती
मुझको यु तो उसने सिखाया काफी कुछ था उन दिनो
पर में बड़ा था सीख न सकता था सब उसकी तरह
पूछती मुझसे थी क्यो स्कूल में रहते हो तुम
मैंने बोला सब बड़े रहते है तो हो जाती गुमसुम
और फिर अगले ही पल बोली की होगे आप भी
में हँसा तो हसने लगी फिर वो मेरे साथ ही
खेलती थी खेल सारे वो मेरे साथ ही
हार कर भी जीतता में
उसकी हसी नादान थी
मुसकराती थी वो हमेशा
खेल से अनजान सी
लाती ठहाको का भी डेरा
सोचती हैरान सी
और फिर पूरा हुआ
मेरा भी शिक्षा का यह क्रम
बोला उसको फिर मिलेंगे
आप पड़ना लिखना फिर आ जाना स्कूल में मेरे ही संग
वो मगर अचरज में थी
था उसे न यह पता
में नहीं हिस्सा वहा का
चल भी दूंगा इस तरह
उसके बचपन ने हमेशा देखा मुझको था वहा
और अचानक छोड़ना मुझको भी अच्छा न लगा

कृते अंकेश

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