Saturday, December 22, 2012

नन्हे से जीवन में भरती जो अपने प्राणों की सरगम 
जिसकी ऊँगली ने पकड़ दिखाया कदमो को सारा आँगन 
जिसके आँचल की छाव तले झटपट सो जाया करते थे 
अपनी टूटी फूटी बातो से हम जिसे सताया करते थे 

जिसने देखा हमको पल पल चलते बढते गिरते उठते 
जिसने खुद को भी लिया भिंगो अश्रु जब इन आँखों से बरसे 
जीवन के प्रतिशोध में भी जो जलकर रही सदा मधुरित 
जिसकी मुस्कानों ने घोला इन कर्णौ में बस अमृत 

वो मेरी माँ भगवान् है मेरी मेरे मंदिर में रहती है
आओगे अब कब घर बापिस बस इतना ही कहती है
में क्यों उस आँगन को इतना दूर मगर अब पाता हूँ
चाहकर भी न बार बार उस मंदिर में जा पाता हूँ

कृते अंकेश

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