Saturday, September 11, 2010

अंत

ढूंढ  रहा अपनी परछाई
खुद से भी अनजान हुआ
बीत गए सुख दुःख के साए
गम भी अब वीरान हुआ


भटक रहा हूँ अंधियारे में
आशाएं भी  लुप्त हुई
जीवन की यह शेष स्वांस भी
अंतपूर्व ही मुक्त हुई


योग वियोग सीमाएं छूटी
काल विकाल रची वसी
शून्य सरोवर में बहती यह
काया ही  अब शेष बची


किसी रोज़ और किसी मोड़ पर
जो पैगाम मिले कोई
कह   देना  यह रात  गयी
लाने  एक प्यारी सुबह नयी..........

कृते अंकेश 

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