Saturday, August 28, 2010

प्रवाह 

जलमग्न होती धरा और डूबती मनुष्य काया 
सेकड़ो घर ले समेटे काल बन संकट है छाया
आंसूओ की क्या कमी थी 
जल का यह सागर बहाया 
या सचमुच मनुष्य ने प्रकृति  को इतना रुलाया

तीव्र विस्तार से   जल  की धारा जो चली 
लग रहा मानो भोगोलिक सीमाएं सारी घुल चली  
एक है दुनिया हमारी 
अस्तित्व अपना एक है 
आओ मिटाये दूरिया यह मनुष्य अभी शेष है 




 









No comments: