Wednesday, June 23, 2010

बिखरते रंग देखे थे ज़माने में
अब अँधेरे है आशियाने में
दीवारों के परदे भी उलझे हुए
सोचते क्या रह गया छिपाने में
चमकती चांदनी जो पड़ कभी जाती
दिखती दरारे और बने घर उस वीराने में
फिर भी मंजूर नहीं बुझना अभी
सेकड़ो हैं उमंगें इस ज़माने में

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