Saturday, July 31, 2010

स्वप्न 

चल देते है कभी
अचानक से
अनजानी राहों पर 
मंजिलो की तलाश में
समझते है 
कभी समझाते है
या कभी शायद समझ कर भी 
बहक जाते है 
टकराते है टूटते है 
उम्मीदों  से झूझते है 
बहता है मन 
मानो कटी पतंग 
चंचलता बढती है
लहरों की तरह 
कुछ तासीर ही ऐसी है 
या ख्वाबो  का करिश्मा 
जीनी है वो दुनिया
जो में बुनता रहा हूँ 
बीत चला अरसा 
क्यों चुप में खड़ा हूँ 
यह शोर है कैसा 
कैसी है हलचले 
यह ख्वाब है बीता 
या स्वप्न भवर है
टिक टिक घडी की 
निरंतर चल रही 
चंद निगाहे 
बस लक्ष्य तक रही 
उम्मीद है रचेंगे 
इक नया फ़साना 
हो स्वप्न ही भला 
यह  कर है जाना 









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