Sunday, October 31, 2010

 स्मृति

वो चिर परिचित प्रतिबिम्ब था
फिर क्यो में हैरान हुआ
उन  अधरो का वक्र मुझे
क्यो इतना अनजान लगा

इतनी ख़ामोशी क्यो मेरे
अधरो पर छायी है बैठी
 जीवन के अर्ध शतक बीते
 यह धुंधली घटा छायी कैसी

वह विगत स्वप्न वह विगत घडी
वह विस्मित सी बेचैन बड़ी
वह बारबार व्याकुल करती
वह बेखोफ बड़ी, वह बेखोफ बड़ी

फिर धुंधले से साये में
कुछ परिचित रेखाओ को पाया
पलको को बंद किये बैठा
भूल गया क्या छोड़ आया

कृते अंकेश

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