Saturday, November 16, 2013

एक अँधेरा है सघन छाया हुआ 
लग रहा जैसे कि कोई आया हुआ 
जो उजाले से न अब तक है हारा 
सो गया जबकि यह शेष जग सारा 

ले तिमिर कि चादरों को वो उढ़ाता है 
थक चुके जग को ढांढस बंधाता है 
रोकता है फिर दिवस को शीघ्र आने से 
विश्व की कर्म वेदी को फिर सजाने से 

देखता है रात्रि का खेल वो सारा
फिर बिछुड़ने को चलेगा जग यह दोबारा
फिर मिलन की राह को वो रात लाएगा
पर भला क्या वो दिवस का साथ पायेगा

कृते अंकेश

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