Friday, January 25, 2013

उलझे कैशो को रही निहार 
कैसा फैला सम्मुख यह जाल 
आते जाते नाविक अनेक 
छेड़े सागर की गति विवेक 
उड़ते रहते उनके है  पाल 
जाते चीर लहरें विशाल 
तूफानो  से अब  भय किसे
वो चलते है निर्भय डटे  

अधरों के कम्पन यहाँ 
छेड़े नाविक की गति वहा 
इन आँखों का इंद्र जाल 
निर्धारित करता उनकी चाल 
आँचल में उडती रही लटें 
सागर में जैसे लहर उठें 
फिर फिर उभरी वो छवि विशाल 
नाविक ने ज्यो लहराया पाल 

वो उठी कही फिर चली यु ही 
नावो ने भी एक  राह चुनी 
सागर ने समझा एक रात 
छिपकर बीतेगा प्रणय विषाद 
उसने फिर देखा था नभ को 
नभ ने फिर देखा था जग को 
जग ने पाया था खुद को 
लहरों के  मध्य अग्रसरित प्रयास 

फिर फिर उठते मन में विचार 
नाविक भी सोचे बार बार 
क्यों मिलता है यह इंतज़ार 
क्यों तट को छोडा अबकी बार 
कानो में ध्वनि थी गूँज रही 
आँखों में छवि थी घूम रही 
लहरों ने फिर दस्तक सी दी 
उन आँखों ने निद्रा चुनी 

इंदु भी आया क्षितिज पार 
था चमक रहा सुन्दर वो भाल 
लहरें भी उडती बन के ज्वार 
स्रष्टि का सौन्दर्य हुआ विशाल 
उस सागर में सिमटा विवेक 
लहरों में उलझा था जो शेष 
पवने करती थी मधुर पान 
उस सौन्दर्य को फिर सुप्त जान 

क्रीडा करती रही विशाल 
सागर ने भी लहराया भाल 
नावो ने फिर छोडा जो पाल 
लहरों ने किया रूप विकराल 
ये स्वप्न नहीं उसका कोई 
उसका न कोई अपना है 
वो जीती है बस इस तट पर 
सागर में जाना  न उसका सपना है 

कृते अंकेश 

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