Tuesday, January 01, 2013

दिनकर प्रखर है अनुभव तेरा 
स्वर्णिम तेरा रहा बसेरा 
रहा जलाता ज्योति दिवस की 
स्मृति बनती विगत स्वप्न की 

तेरे आधारों से जीता 
तेरे पैमानों से सीता 
तेरा तेज़ ही संचित मस्तक पर 
उन्मादों में उठता उड़ता 

में  आभास  हूँ एक पल भर का 
जैसे सपना उठता मिटता 
मेरी यादें मेरी साँसे 
ठोकर में  उड़ता धूल का रेला 

हसता  खिलता फिर भी मिलता 
हर पल हर क्षण नव गति भरता 
इंसानों का  अदभुत मेला 
क्या खेल है ऐसा किसी ने खेला 

हम अपने स्वर में है जीते 
जाने कितने बरस है बीते 
फिर से एक नव वर्ष है आया 
हमने फिर उल्लास मनाया 

कृते अंकेश 

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