Sunday, January 19, 2014


साहित्य और में

 साहित्य शायद मुझे विरासत में मिला है, मेरी माँ ने अपना स्नातक साहित्य में किया, तो वही मेरे पिताजी एक अभियंता के साथ साथ एक मझे हुए कवि है।बचपन से ही मुझे चयनित साहित्यिक पुस्तको से भी परिचित करवाया गया, लेकिन मेरी  साहित्यिक अभिरुचि को बढ़ाने में आगरा के राजकीय पुस्तकालय का एक विशिष्ठ योगदान है, यह  पुस्तकालय मेरे स्कूल के ठीक सामने था और मात्र १०० रुपया इसकी आजीवन सदस्यता होने के कारण इसका सदस्य बनना मुश्किल भी न था, इस पुस्तकालय में एक बड़ा हाल था जिसमे २०० से अधिक अलमारिया थी एवं विभिन्न विस्तृत विषयो पर पुस्तके उपलब्ध थी।  प्रत्येक  सदस्य दो पुस्तके अधिकतम १४ दिन के लिए अपने  घर ले जा सकते थे।   उस समय मैं १० या ११ साल का था और मेरे लिए इतनी पुस्तको में से एक या दो  पुस्तको को चुनना आसान  काम नहीं होता था,  पता नहीं क्यो लेकिन मैं उस हाल में से वही पुस्तके ले जाना चाहता था जो न तो इतनी  लम्बी हो कि चौदह दिन में खत्म ही न हो सके और न ही इतनी छोटी या फिर बोरिंग हो  कि मुझे फिर से इस हाल में बापिस आना पड़े, सामान्यत: मुझे पुस्तको के चयन में अत्यधिक समय लगता था, दो से तीन  घंटे या और भी ज्यादा और किसी विशेष पुस्तक को चयनित करने से पहले में न जाने कितनी पुस्तको के कितने  पन्ने पढ़ चुका होता था, धीरे धीरे वह अलमारिया, उनकी पुस्तके, उन पुस्तको के विषय  मेरी स्मृति में चिन्हित होते चले गए, इसी पुस्तकालय में एक दिन मेरे हाथ हरिशंकर परसाई जी की किताब लगी,  मैंने तब तक उनका नाम नहीं सुना था लेकिन  उनके सटीक व्यंग एवं कटाक्षो में मुझे साहित्य की जादुई क्षमता का परिचय मिला,  मेने उसके बाद नए नए लेखको की कहानिया पड़ना शुरू किया , विशेषत: कहानी संग्रह जो भिन्न भिन्न क्षेत्रो के लेखको की प्रमुख कहानियो का संग्रह होते है। साहित्य का यही सम्बन्ध मेरी शब्दावली को विकसित करने में मुख्य योगदायी है, लेकिन अभी तक यह सम्बन्ध मात्र गद्य से ही था, पद्य से में उतना ही परिचित था जितना कि एक सामान्य छात्र होता है । विद्यालय में होने वाली वाद विवाद प्रतियोगिताओ ने मुझे अपनी साहित्यिक क्षमताओ को प्रदर्शित करने का मौका दिया, इन प्रतियोगिताओ में मैं  मुख्यत: विषय के विपक्ष में ही बोलता था और शायद यह मेरे व्यवहार का एक हिस्सा भी बन गया, में आज भी किसी भी विषय का प्रतिरोध उतनी ही आसानी के साथ कर सकता हूँ जितना कि मुश्किल से उसका समर्थन। लेकिन साथ ही वाद विवाद प्रतियोगिता ने मुझे एक और चीज़ भी सिखायी, वह थी, अपने और अपने  विपक्षी के  सभी पक्षो का निष्पक्ष आकलन । क्यूंकि किसी भी विरोध को सुदृढ़ तरीके से करने के लिए आपको वस्तुस्थिति का ज्ञान होना अत्यतन्न आवश्यक है, चाहे फिर आप विषय के किसी भी पक्ष में हो। जब में  कक्षा ९ या १० में था, विद्यालय ने एक वार्षिक पुस्तिका निकालने का निर्णय लिया, मुझे इसका छात्र सम्पादक बनाया गया, और यही मैंने अपनी पहली कविता इसी पुस्तिका के लिए लिखी। सपना शीर्षक पर लिखी यह कविता आज भी मेरी पसंदीदा है एवं शायद मेरे सभी परिचितो ने इसे मुझसे अवश्य ही सुना होगा । कविताओ का यह क्रम मुझे गद्य से पद्य की और लेकर चला गया और मुझे पद्य लिखना गद्य  लिखने से कही अधिक आसान लगने लगा , यद्यपि में समय समय पर गद्य लिखने का प्रयत्न करता हूँ लेकिन उतनी आसानी से नहीं लिख पता जितना कि कवितायेँ लिख सकता हूँ ।

कृते अंकेश

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