Tuesday, October 22, 2013


बारिशे रूकती नहीं
बहती रही दीवार से
गिरती रही उस फर्श पर
पग थे जहा उस यार के
बहती  रही जो यह हवा
किसने कहा कब क्या कहा
कहते रहे जो लोग फिर भी
कौन सुनकर रुक गया
उडती रही फिर वो लटें
घुंघराली जो आकार  में
इंदु सम चेहरे को ढकती
मानो कालिमा आकाश में
और गरजी बिजलियाँ
लगता   घना  प्रतिरोध है
बढ रहा एकाकी मन
क्या उसे  यह बोध है

कृते अंकेश

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