Saturday, January 07, 2012

थोडा धीरज रखो
अपने भी दिन फिरेंगे
यह माट की हडिया हटेगी
टाट हट परदे सजेंगे
देखना चूल्हे में अपने
आग अब हरदम जलेगी
बर्तनों में पानी रहेगा
यह धारा आँखों से  न बहेगी
 
गाडियों में बैठकर
हम भी  कही फिर दूर होंगे

रात भी अपनी कटेगी
शांत सब  स्वप्नों  में  रहेंगे      
इतना सभी कुछ मिल सकेगा
सच बताता हूँ तुम्हे
जो यदि में पढ़ सका  उन सभी की तरह 

कृते अंकेश

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