Tuesday, July 10, 2012

नारी स्वर 

घूँघट में बंद रखते हो
आँखों को नीचा करते हो
साँसों पर सीमा कसते हो
फिर कहते हो साथ चलो
पहले चलने का अधिकार तो दो

सीमित सपनो का अस्तर है 
 बिछी हुई चारपाई है
क्या इस  जीवन की परिधि
बस शादी और सगाई है
यह  भी है काया मानव की
इसको स्वतंत्र संसार तो दो
फिर कहते हो साथ चलो
पहले चलने का अधिकार तो दो

न चिंतित हो मेरे कल को लेकर
मेरा कल मेरा सपना होगा
मेरी अभिलाषा बस इतनी
मुझको सपने रचने की हिम्मत देना
है पाला नन्हे तन को बरसो मैंने
अब नन्हे मन को पलने का अधिकार तो दो
फिर कहते हो साथ चलो
पहले चलने का अधिकार तो दो

क्यों वस्त्रो की सीमा तन  पर
क्यों शील का है प्रतिबन्ध यहाँ
क्या कभी किसी पुरुष ने भी
इतना है  उपहास सहा
इस चरित्र  के चित्रण में
पहले उचित मानको को स्थान तो दो
फिर कहते हो साथ चलो
पहले चलने का अधिकार तो दो

 है नहीं यह सीमित तन और मन
हर क्षेत्र को इसने खखोला है
जीवन के हर स्तर को
अपनी गुणवत्ता से तौला है 
इस जीवन को भी स्वतंत्र बन
पथ विकास  पर चलने का अधिकार तो दो
फिर कहते हो साथ चलो
पहले चलने का अधिकार तो दो

कृते अंकेश

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