Sunday, February 24, 2013

परिधियो  में बीत  रहे थे स्वप्न
खीचते सीमाएं  बार बार
उभरते बादल नभ के श्वेत
बरसते बेबस हो हर  एक बार

श्याम था तेरे नयनो का रंग
निशा ने छीना वर्ण विकार
मधुर अधरों के बिखरे पाश
सजाये  शहर तेरा है आज

ढूंढता में जिसको हर पल
छवि  मधुरित  जिसका विस्तार
कही  खोयी स्वप्नों में रही
 रहा  उन स्वप्नों का इंतज़ार

कृते  अंकेश 

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