Wednesday, June 13, 2012

स्वर थे अनजान
न कुछ पहचान
न लय, न सुर, न ताल
अनकहे सवाल
व्यर्थ का  ववाल
पुकारता यह  मन
चला जा अपनी धुन
उत्श्रंखल बासुरी
सदा यु ही बजी
उर्वशी कहो
कहा को तुम चली
ढूढ़ते है मेघ
हृदय के राग को
छिपे हुए कही
किसी चिराग को
स्वप्न में भी जो
रहा सदा  है मौन
 जानते हो  क्या
भला वह है कौन ?

अंकेश

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