Sunday, February 15, 2009

बस कहने का अवसर दे दो

तज मौन की सीमा को कह दूँगा
अंतर्मन के हर एक राज़
बस कहने का अवसर दे दो

माना अब तक चुपचाप खड़ा था
दूर नही मैं पास खड़ा था
सम्मुख मेरे तुम थे प्रियवर
फिर भी मैं खामोश खड़ा था

उन गहरी सांसो को तज कर
अंतर्मन की बात कहूगा

बस कहने का अवसर दे दो




मुझको शब्दो का ज्ञान नही है
संज्ञा की पहचान नही है
स्वरलहरी से में अनजाना
सुर ताल लय का ध्यान नही है




स्वछंद विचारो की माला से
प्रियवर तेरा श्रृंगार करूगा
बस कहने का अवसर दे दो




माना मेरी राह नई है
भोतिक ऐश्वर्य यहाँ नही है
कलाप्रेमी हूँ स्वप्न  सजाता
मुझे सृष्ठी का ध्यान नही है




जीवन की अनमोल धरोहर
स्वप्नो को तुझ पर अर्पित कर दूँगा
बस कहने का अवसर दे दो




माना समय अब   क्षणिक   शेष है  
आने वाला हर पल विशेष है
नश्वर जीवन की सांसो को
आखिर कब तक रोक सकूंगा




लेकिन प्रियवर तेरे कहने तक
मैं बस यु ही मौन रहूँगा
बस कहने का अवसर दे दो

बस कहने का अवसर दे दो

3 comments:

kaviraj said...

very good man...keep it up.
i liked the flow and the smoothness of it.
haan thoda sa edit kar le , lines differentiate nahin hui hain...kahin kahin "enter" dabana bhool gaya hai shayad....baaki mast hai :)

poorni said...

very very nice really too good..
kya kavitha yeh yaar ,shandhaar,to lakha huaa to mazadhaar.hats off.......very nice touched my heart

Neha said...

bahut hi behtarin abhivyakti hai....main aap se blogvani me sammillit hone ka nimantran deti hoon....mere blog me bhi aapki aalochnaon ka swagat hai......