कितने परिचित तुम थे मुझसे
उधड़ी उधड़ी सी पहचाने
कितना परिचित में था तुमसे
कितने परिचित हम थे खुद से
रहे अपरिचित परिचित बनके
उधड़ी उधड़ी सी पहचाने
लेकर फिरते रहे ज़माने
तोल मोल के बोल बनाकर
रटते गए बस वही तराने
अभिमानो के व्यंग बहाकर
जाना जीवन की विस्मृति को
या पहचाना तुमसे खुद को
या खोया तुझमे ही निज को
कृते अंकेश
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