चाह नहीं है मुझे बसंतो के क्रम देखने की
या खो जाने की पतझड़ो की श्रंखला में
लक्ष्य नहीं है मेरा समय के साथ बहना
या जाते देखना कोई सपना सुनहरा
मैं तो बस एक मौका परस्त हूँ
तलाश है उड़ान की
उड़ना है ऊँचा बहुत ऊँचा
फैला पंखो को जहा खो जाये जग समूचा
चाहे फिर मुह के बल ही क्यों न गिरे
क्यूंकि तब आने वाली पीड़ी यह तो जान सकेगी की क्या न करे
कृते अंकेश
No comments:
Post a Comment