दिनकर प्रखर है अनुभव तेरा
स्वर्णिम तेरा रहा बसेरा
रहा जलाता ज्योति दिवस की
स्मृति बनती विगत स्वप्न की
तेरे आधारों से जीता
तेरे पैमानों से सीता
तेरा तेज़ ही संचित मस्तक पर
उन्मादों में उठता उड़ता
में आभास हूँ एक पल भर का
जैसे सपना उठता मिटता
मेरी यादें मेरी साँसे
ठोकर में उड़ता धूल का रेला
हसता खिलता फिर भी मिलता
हर पल हर क्षण नव गति भरता
इंसानों का अदभुत मेला
क्या खेल है ऐसा किसी ने खेला
हम अपने स्वर में है जीते
जाने कितने बरस है बीते
फिर से एक नव वर्ष है आया
हमने फिर उल्लास मनाया
कृते अंकेश
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