वो सुप्त है, मैं हूँ जगा
खामोश वो, मैं हूँ ठगा
वो जीतती, मैं हारता
वो भींगती, मैं भागता
वो खिल रही, मैं मिल रहा
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा
है दूर पास क्या पता
कैसी आस क्या खता
किसे खबर है रंग की
किसे फिकर है ढंग की
है सिलसिला बस बढ रहा
अब हार का किसे गिला
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा
छिपे हुए से रंग है
जो आज संग संग है
मुस्कुरा रही धरा
छिड़े जो यह प्रसंग है
हर स्वर खिला खिला
मन की इस तरंग का
यह कैसा खेल चल रहा
यह कैसा खेल चल रहा
कृते अंकेश
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